भारत के त्योहारों में जहाँ दीवाली की धूम धाम, रक्षा बन्धन की चहलकदमी, और होली की रंगीनियाँ हैं—वहीं भाई दूज का पर्व उन रिश्तों को समर्पित है जो अक्सर
भाई दूज: विश्वास, प्रेम और आस्था का एक अटूट बंधन
भारत के त्योहारों में जहाँ दीवाली की धूम धाम, रक्षा बन्धन की चहलकदमी, और होली की रंगीनियाँ हैं—वहीं भाई दूज का पर्व उन रिश्तों को समर्पित है जो अक्सर कहानियों से परे, ज़िंदगी की पटरी पर सच्चाई से चलते हैं। यह पर्व भारतीय संस्कृति के हृदय में उस निःस्वार्थ प्रेम को स्थापित करता है जो जीवन की जटिलताओं के बावजूद अटूट रहता है। इस दिन, एक बहन अपने भाई के मस्तक पर तिलक लगाती है, अपनी प्रार्थनाओं और शुभकामनाओं से उसे अभिसिंचित करती है; जवाब में भाई आजीवन उसकी रक्षा का वादा करता है। यह सिर्फ एक पारंपरिक रीति नहीं—यह विश्वास, प्रेम और आस्था का वह त्रिवेणी संगम है, जो पीढ़ियों, संस्कृतियों और समय से अनवरत जुड़ा है, और आधुनिकता की कसौटी पर भी अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करता है। यह अनुष्ठान हमें याद दिलाता है कि भले ही जीवन की दौड़ में भौतिक दूरियाँ बढ़ जाएं, लेकिन भावनात्मक डोर कभी टूटने नहीं चाहिए।
यह पर्व अपने नाम से ही अपनी कथा कहता है—‘भाई’ अर्थात् भाई और ‘दूज’ अर्थात् चाँद के बाद की दूसरी तिथि (द्वितीया)—अर्थात् कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की दूसरी तिथि को मनाया जाना। यह समय शीत ऋतु के आगमन और नई फ़सलों की तैयारी का होता है, जो रिश्तों के नवीनीकरण का भी प्रतीक है। इस पर्व की उत्पत्ति से जुड़ी हैं दो प्रमुख मिथक कथाएँ, जिनमें भाई-बहन के इस बंधन में सुरक्षा, भरोसा, आशीर्वाद और समर्पण की पवित्रता का आदर्श छिपा है। एक कथा के अनुसार, यमराज (मृत्यु के देवता) अपनी बहन यमुना के पास आए थे। यमुना ने अपने भाई का विधिवत स्वागत किया, तिलक लगाया, और स्वादिष्ट भोजन कराया। बहन के इस आतिथ्य और प्रेम से यमराज इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने यह प्रतिज्ञा की थी कि इस दिन जो भाई अपनी बहन से मिलेगा और उसके हाथों का भोजन करेगा, उसे अकाल मृत्यु का भय नहीं होगा। यह प्रतिज्ञा जीवन और मृत्यु के ऊपर प्रेम की विजय को स्थापित करती है। दूसरी कथा कृष्ण और उनकी बहन सुभद्रा के मिलन को समर्पित है, जहाँ नारकासुर के वध के बाद लौटने पर सुभद्रा ने अपने भाई का स्वागत और तिलक किया था। इन उपाख्यानों में मर्म सिर्फ कथाओं से परे है: ये पर्व पारिवारिक जिम्मेदारी, सुरक्षा का भाव और अमर प्रेम की भावना को सामाजिक रूप प्रदान करते हैं।
भाई दूज का समारोह यद्यपि देश के विभिन्न भागों में थोड़ा भिन्न स्वरूप लेता है—महाराष्ट्र-गोवा में यह 'भाऊ बीज' है, जहाँ शाम को बहनें गोधूलि वेला में भाई का पूजन करती हैं; और पश्चिम बंगाल में ‘भाई फोँटा’—लेकिन इसकी मूल भाव धारा और भावनात्मक तीव्रता समान रहती है। उत्तर भारत में, बहन भाई को निमंत्रित करती है, तिलक (रक्त, कुंकुंम, चावल) लगाती है, आरती करती है और मिष्ठान् भोजन कराती है। हरियाणा और राजस्थान जैसे क्षेत्रों में, 'गोला' (सूखा नारियल) देने की विशिष्ट परंपरा है, जिसे रक्षा और समृद्धि के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। आज कल भाई दूज सिर्फ रक्त संबंधों तक सीमित नहीं रहा है, बल्कि वीडियो कॉल और ऑनलाइन उपहारों के माध्यम से भी मनाया जाता है। यह दिखाता है कि प्रेम और आस्था के बंधन समय और दूरी से हार मानने को तैयार नहीं हैं, बल्कि आधुनिक तकनीक को भी अपने भावनात्मक उद्देश्य की पूर्ति के लिए साध लेते हैं।
इस पर्व को अगर तीन प्रमुख आयामों में—विश्वास, प्रेम और आस्था—में गहराई से देखें तो यह हमारे सामाजिक जीवन की गहराइयों को दर्शाता है। सबसे पहले, विश्वास (Trust): भाई-बहन का संबंध साझा खेल, संघर्ष और विजय की विपत्तियों से शुरू होता है। भाई दूज उस मौलिक विश्वास को प्रतिध्वनित करता है कि "जब मुझे किसी का सिरहाना नहीं मिलेगा, तो तुम्हारा साथ होगा।" यह भाई-बहन के बीच एक भावनात्मक अनुबंध है। यमराज और यमुना की कथा में निहित मृत्यु भय से मुक्ति की प्रतिज्ञा, इस बात का प्रतीक है कि रक्षा का भरोसा सिर्फ एक अनुबंध नहीं, बल्कि एक अटूट विश्वास-जन्य अनुभव है। भाई-बहन एक-दूसरे के लिए एक निःशुल्क और स्थायी भावनात्मक सुरक्षा कवच प्रदान करते हैं।
दूसरा आयाम है प्रेम (Love): पर्व की रस्म में बहन की सबसे पहली कामना प्रेम की होती है—कि उसका भाई स्वस्थ, सुरक्षित और सम्मानित रहे। इस कामना में निःस्वार्थ भाव है। भाई का उपहार देना और बहन का स्नेहपूर्ण भोज देना—ये क्रियाएँ प्रेम को भौतिक रूप देती हैं। भोजन यहाँ एक शक्तिशाली प्रतीक है; बहन के हाथों का भोजन न सिर्फ पोषण देता है, बल्कि एक गहरी भावनात्मक संतुष्टि भी प्रदान करता है। आज जब दिल्ली NCR की सीमा से बाहर बसे भाई-बहन भले ही त्योहार पर एक-दूसरे से न मिल पाएँ, लेकिन मिठाई और उपहारों का आदान-प्रदान करते हैं, यहाँ तक कि एक-दूसरे के लिए विशिष्ट व्यंजन ऑनलाइन ऑर्डर करते हैं—यह प्रेम बहाव का आधुनिक रूप है, जो भौतिकता से ऊपर भावनात्मक जुड़ाव को प्राथमिकता देता है।
तीसरा, आस्था (Faith): यह सिर्फ पारिवारिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक स्तर पर भी है। यह आस्था ही है जो जीवन की तेज़ गति और रिश्तों में दूरी-विरह होने पर भी यह विश्वास जगाती है कि "मैं अपने भाई/बहन के लिए वहाँ हूँ।" यह विश्वास ही हमें प्रेरणा और स्नेहपूर्ण सामना करने की शक्ति देता है। यह अनुष्ठान हमें याद दिलाता है कि जीवन की नश्वरता के बावजूद, प्रेम और परिवार के मूल्य शाश्वत हैं। यह आस्था परिवार को एक स्थायी संस्था के रूप में देखती है, जिसे बनाए रखना हर सदस्य की जिम्मेदारी है।
जब आधुनिक जीवन में व्यस्तता, भौतिकता और सामाजिक बदलाव तेजी से आ रहे हैं, तब भाई दूज जैसे पर्वों की भूमिका सिर्फ स्मरण तक सीमित नहीं रह जाती—वे हमारे सामने कई चुनौतियाँ और अवसर भी रखते हैं। रिश्तों की दूरी आज एक बड़ी चुनौती है, जहाँ ये पर्व उस दूरी को 'आभासी मिलन' में बदलकर रिश्तों को बचाते हैं। उपहार बाज़ार ने इस पर्व को व्यावसायीकरण (Commercialization) के समीकरण में घेर लिया है, जबकि इसका मूल उद्देश्य प्रेम और श्रद्धा का है, जिसे सार्वजनिक प्रदर्शन से बचाकर निजी स्नेह की गहराई को बनाए रखना आवश्यक है। तीसरा, लिंग भूमिका परिवर्तन के साथ भाई की ‘रक्षा’ की बात आज बदल रही है; बहनें भी सार्वजनिक क्षेत्र में बड़ी भूमिका निभा रही हैं और आर्थिक रूप से सशक्त हैं। इसलिए यह पर्व पुरानी परतों को तोड़कर पारस्परिक सम्मान और सहयोग के नए स्वरूप में खुद को पिरो रहा है। अब यह केवल एकतरफा रक्षा का वचन नहीं, बल्कि द्विपक्षीय भावनात्मक साझेदारी का वादा है।
कुछ केस स्टडीज इस बात को स्पष्ट करती हैं कि भाई दूज कितना गहरा सामाजिक, भावनात्मक निवेश है:
केस 1: मनीषा और सौरभ—दूर दूरी में भी स्नेह। मनीषा दिल्ली में कॉर्पोरेट नौकरी करती हैं और उनका छोटा भाई सौरभ लखनऊ में है। वर्षों से भौतिक दूरी बनी हुई है, लेकिन वे भाई दूज को कभी नहीं चूकते। इस भाई दूज पर, मनीषा ने ब्रांडेड मिठाई की जगह अपने हाथ से बनी हल्दी-दूध की मिठाई तथा सौरभ के बचपन के पसंदीदा सूखे मेवे पैक करके भेजे। यह दिखाता है कि भावनात्मक मूल्य भौतिक मूल्य से कहीं अधिक है। यह रिश्ता आज भी टिका है—न सिर्फ उपहार के कारण, बल्कि विश्वास, समर्थन, समय स्मृति और प्रेम गुण के कारण, जो त्योहार के माध्यम से रीचार्ज होता है।
केस 2: रितु पुरवार और राहुल—बदलाव की दिशा में। रितु नौकरी के सिलसिले में मुंबई गईं, जबकि राहुल जयपुर में हैं। भाई दूज पर, राहुल ने बहन को डिजिटल फोटो एलबम भेजा जिसमें बचपन की यादें संकलित थीं। रितु ने भाई को एक वीडियो कॉल शुभकामना भेजी तथा अगले वीकेंड मिलने का वादा किया, जिसे वे 'भाई दूज बोनस' कहते हैं। यह दर्शाता है कि आधुनिक रिश्तों में 'मिलना' बदला है—कम भौतिक मिलन के बावजूद, एक-दूसरे के लिए रहना और जुड़े रहना नहीं बदला है। यह पर्व उन्हें भौतिक दूरी के बावजूद एक-दूसरे की जिंदगी में सक्रिय रूप से शामिल होने के लिए प्रेरित करता है।
केस 3: दृश्य सामाजिक पहल—निर्बल परिवारों में भाई दूज। एक गाँव में, जहाँ आर्थिक स्थिति कमजोर थी, स्थानीय महिला समूह ने भाई दूज के अवसर पर "समान उपहार पैकेट" तैयार किए। इस पहल ने दिखाया कि त्योहार सिर्फ सम्पन्न परिवारों का नहीं—बल्कि सामाजिक एकजुटता का माध्यम भी हो सकता है। जब समुदाय इस पर्व को मनाता है, तो सामाजिक पूंजी का निर्माण होता है, जो गरीबी और सामाजिक अलगाव के खिलाफ एक शक्तिशाली उपकरण है।
भाई दूज आज भी प्रासंगिक क्यों है? यह व्यस्त जीवन शैली में भाई-बहन के संबंध को रिश्तों की याद दिलाता है—एक अनिवार्य वार्षिक रिमाइंडर। मानसिक सामाजिक लाभ की दृष्टि से, भाई-बहन के बेहतर संबंध अकेलापन कम करते हैं और भावनात्मक समर्थन देते हैं। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि ऐसे अनुष्ठान व्यक्ति को भावनात्मक लचीलापन (Emotional Resilience) प्रदान करते हैं, जिससे वह जीवन की चुनौतियों का सामना बेहतर ढंग से कर पाता है। सांस्कृतिक रूप से, यह संस्कार पारित संरचना परिवार और समुदाय में सामाजिक स्थिरता को बढ़ावा देती है। यहाँ तक कि आध्यात्मिक आश्वासन भी मिलता है कि जीवन मृत्यु से ऊपर प्रेम स्वीकृति का संबंध है। उदाहरण के लिए, मोहन यादव (मध्य प्रदेश मुख्यमंत्री) ने भाई दूज के अवसर पर "लाड़ली बहना" योजना में अतिरिक्त राशि की घोषणा करके त्योहार को सामाजिक कल्याण से भी जोड़ा—यह दर्शाता है कि त्योहारों को अब व्यक्तिगत और सामाजिक नीतियों के अखंड भाग के रूप में देखा जा रहा है।
जब दीपों की रोशनी खत्म होती है और आतिशबाज़ियाँ शांत होती हैं, तब भाई दूज हमें याद दिलाता है—कि रिश्तों का दीप अभी जलना बाकी है। यह पर्व हमें विश्वास की याद दिलाता है कि "तू है तो मैं हूँ", प्रेम की याद दिलाता है कि "मैं तेरा हूँ, तू मेरा है", और आस्था की याद दिलाता है कि "जब तक यह बंधन जीवित है, डर का कोई स्थान नहीं।" यह हमें याद दिलाता है कि जीवन की दौड़ में समय-समय पर हम उन रिश्तों को याद करें जो हमारे अस्तित्व के मूल में हैं। इस भाई दूज पर आइए उस बन्धन को फिर से संजोएँ—छोटी सी मुलाक़ात, सरल से संदेश या संयुक्त चाय पर बातचीत—और याद करें: हम अकेले नहीं हैं, एक दूसरे का साथ ही हमारे भीतर का प्रकाश है, जो जीवन के अंधकार को दूर रखता है।
प्रोफेसर (डॉ.) कमलेश संजीदा , गाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश


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