ऊधौ बिरहौ प्रेम करै पद की व्याख्या | सूरदास

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ऊधौ बिरहौ प्रेम करै पद की व्याख्या सूरदास गोपियाँ उद्धव से विरह के महत्त्व का प्रतिपादन करती हैं. विरह को भी प्रेम का वर्द्धन करने वाला तत्त्व मानकर

ऊधौ बिरहौ प्रेम करै पद की व्याख्या | सूरदास


धौ विरहौ प्रेम करै, 
ज्यों बिनु पुट-पट गहतन रंगहिं, पुट गहि रसहिं परै ।
ज्यों धर देह बीज अंकुर चिरि तौ सत फरनि फरै । 
ज्यों आंवा घट दहत अनल तो पुनि अमिय भरै । 
ज्यों रन सूर सहत सर सनमुख तौ रवि रथहिं सरै । 
सूर गोपाल प्रेम-पथ चलि कै कोऊ न दुखहिं डरै ।।

प्रसंग - गोपियाँ उद्धव से विरह, कष्ट, साधना तपस्यादि का महत्त्व प्रतिपादित करती हुई कहती हैं।
 
व्याख्या- गोपियाँ उद्धव से विरह के महत्त्व का प्रतिपादन करती हैं. विरह को भी प्रेम का वर्द्धन करने वाला तत्त्व मानकर उसकी महत्ता बताती हैं कि विरह भी प्रेम को अधिक श्रेष्ठ बनाता है। इस कथन की पुष्टि में प्रमाण स्वरूप वे कुछ उदाहरण देती हैं। पहला उदाहरण दिया है- किसी रंग भरे पात्र में कपड़े रंगने का यह कि बिना डुबाये कपड़ा कैसे रंगा जा सकता है और ज्यों ही डोब लगा दी जाती है, कपड़ा रंग-रंग खिलने लगता है। (यहाँ रंग में डुबाया गया कपड़ा दम घुटकर कष्ट सहने का बोध कराता है) दूसरा उदाहरण है कुम्हार द्वारा आंवा में घड़े पकाने का, यह कि जब घड़ा अपने शरीर को जलाता है, दहाता है तो अमृत भरने योग्य (पक्का) हो जाता है। नहीं तो कच्चे घड़े में अमृत भरने पर वह शीघ्र ही फूट जायेगा। (इस उदाहरण से भी कष्ट के बाद शुभ अवसर आने के सिद्धान्त की पुष्टि की गयी है।) इसी प्रकार है तीसरा उदाहरण दिया गया- बीज का, यह कि जब तक बीज बीच से चिरता नहीं तब तक पौधे के रूप में पल्लवित, पुष्पित होकर सैकड़ों फल कैसे दे सकता है। 

इस प्रकार फलवान् होने के लिए बीज को बीच में से चिरना पड़ता है। यदि रण में योद्धा डटकर युद्ध करता है और अपने वक्ष पर शत्रु पक्ष के बाण झेलता है तो वीरभूमि में प्राण गँवाने पर स्वर्ग प्राप्त करता है। ठीक इसी प्रकार जब तक प्रेमी विरह की अग्नि में तपता नहीं, तब तक प्रेम में निखार नहीं आता। गोपियाँ अन्त में स्पष्ट करती हैं कि मार्ग में यदि श्रीकृष्ण का प्रेम रूपी जल भरा हो तो दुख से, कष्ट से कोई गोपी नहीं डरेगी, क्योंकि श्रीकृष्ण का प्रेम तो कष्ट साधना से ही अधिक उभरेगा।

विशेष - उपरोक्त पद में निम्नलिखित विशेषताएँ हैं -
  1. इस पद के माध्यम से यह बताया गया है कि विरह की अधिकता से प्रेम में निखार आता है। 
  2. विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से गोपियों ने अपनी बात को पुष्ट करने का प्रयास किया है। 
  3. 'विरहौ प्रेम करै' में परिसंख्या अलंकार का सौन्दर्य परिलक्षित होता है। 
  4. ब्रजभाषा का प्रयोग है। 
  5. विप्रलम्भ श्रृंगार की सुन्दर व्यंजना है।

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