सीढ़ियों पर शहर | हिंदी कहानी

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सीढ़ियों पर शहर शहर की धूल,धुआँ, गाड़ियों के पों -पों, घर्र -घर्र, टिकट- टिकट,धक्का - मुक्की,आगे बढ़ो सीट पर बैठो। खड़ी मत रहो। यह सुनते हुए रुकती -

सीढ़ियों पर शहर


हर की धूल,धुआँ, गाड़ियों के पों -पों, घर्र -घर्र, टिकट- टिकट,धक्का - मुक्की,आगे बढ़ो सीट पर बैठो। खड़ी मत रहो। यह सुनते हुए रुकती - चलती उत्तराखंड परिवहन की बस में बैठे धुंधले मैले शीशे से सड़कों और पहाड़ों को देखते हुए पिथौरागढ़ से टिहरी तक का सफर निकल गया।
 
पहली सुबह आरंभ किया हुआ सफर दूसरी सुबह तक जाने कितने ही नजारे दिखा गया। कभी पहाड़ की घुमावदार सड़के, तो कभी मैदान के शहर और हाईवे, कभी गलियारे छोटे सिमटते हुए शोर मचाते हुए, कभी पर्वत नदियां पहाड़ शांत चह चहाते हुए,कुछ कहना चाहते हुए। कहीं मनुष्य का शोर तो कहीं नदियों का कलरव। यूं तो हाईवे निर्माण से कहानी हाईवे पर सरपट दौड़ती है कि एक गाड़ी दूसरी गाड़ी को कुछ देर के बाद नजर ही ना आए. किंतु परिवहन को यह अवकाश कहाँ। राज्य परिवहन की बस है तो जनता जनार्दन के लिए है इसलिए हर शहर को प्रणाम करते हुए, हर गली को नमस्ते कहते हुए उसे निकालना होता है। जब लंबा सफर हो तो एक बस मिलना मुश्किल है कई बसें बदलकर सफर को पूरा करना अपने आप में एक अलग ही अनुभव है। यदि समान अधिक है तो फिर यह अनुभव अपने आप में एक नया चोगा ओढ़ कर चलता है।
  
सामान को उठाकर यहां से वहां, इस बस से उसे बस पटकते रहो।कभी तहखाने में, कभी बोनट पर,कभी छत पर बस एक जगह से दूसरी जगह सामान धक्के खाता ही नजर आ रहा था। हमारी ही तरह वह बदलते वातावरण और जीवन शैली के बीच खुद को और परिस्थितियों को झेल रहा था।
   
सीढ़ियों पर शहर
खैर.......। चिं चिं, पों पों से धूल धुए से आगे बढ़ते हुए सुनसान वनों का नजारा लेते हुए आखिरकार गाड़ी पहुंच ही गई हनुमान चौक नई टिहरी। चौराहे पर लगी हनुमान मूर्ति दोनों दिशाओं को देखती हुई।जैसे आगतुकों का स्वागत करती हो और जाने वालों की रह तकती हो।
 
बस से उतरते ही हवा में खुला एक अलग एहसास था यह पिछले शोर गुल से शांत और खुद में ही खोया हुआ शहर 'टिहरी '।
 
चौराहे से किनारे हटे तो पैताने पर लेटी भागीरथी और भिलंगना गलबहिया डाले शांत सो रही। कभी जल में कुछ रेखाएं उभरती', लगता हवा उनके उन केशो को झूला रही है जो बंधन में बधने से रह गए थे।छोटे थे अल्हड़ से,बस कभी झूल जाते मुख मंडल पर आके और अपनी अल्हड़ हथेलियां में खुद ही खुद पर मुस्कुराते।
 
सामने समृद्ध पर्वत विशाल फैला हुआ अपनी गरिमा पर खुद ही गर्व करता हुआ। ऐसा लगता जैसे वह उन दोनों का पितामह हो जिनकी गोद में सर रखें दोनों लेटी स्वयं को सौभाग्यशाली समझती है।
 
बांध के सिरहाने से ऊपर को बढ़ता शहर जो विकास की कहानी गढ़ने का प्रयास करता नजर आता है।प्रयास इसलिए कहूंगी क्योंकि छोटी सी जगह में सब कुछ रखा है विद्यालय, कॉलेज,अस्पताल,बाजार,और हर कोई अपने ही कार्य में व्यस्त है। खुद में खोया हुआ। यह तो अच्छी बात है ना.......आप यही सोचेंगे।
 
धीरे-धीरे हमारी भी कम बढे।नीचे की ओर....जहां शहर रहता है। सीढ़ियां दर सीढीयां।उतरते हुए हम भी पहुंचे कॉलेज के पास..... जहां एक कमरा किराए पर लिया हुआ था। दो कमरे किचन इत्यादि एक छोटे से परिवार के लिए काफी हो...इतना सा।
  
कॉलेज के नजदीक इसलिए ताकि बहुत सीढ़ियां ना चढ़नी पड़े। आखिर काम कुछ भी हो व्यक्ति अपना व्यक्तिगत सुख अवश्य तलाशता है। उसके पाने ,खोने मिटाने,हर चीज की चाह उस चीज में निहित होती है जहां उसका व्यक्तिगत सुख उसे प्राप्त होता है।
  
शहर में निकलते हुए एक अलग अनुभव प्राप्त हुआ। रास्ते शांत, गलियां शांत, हर कोई अपने दरवाजा के पीछे खुद में ही उलझा हुआ। ऐसा नहीं कि यहां लोग मेलजोल नहीं बढ़ाते या एक दूसरे से संपर्क नहीं रखते बल्कि ऐसा लगता है मानो खुद से ही कुछ चाह कर रहे हैं, खुद में ही खुद के जीवन को तलाश रहे हैं।
 
नदियों के पितामह के पीछे उनसे भी समृद्ध और विराट श्वेत मस्तक वाला 'बंदर पूँछ' सर उठाकर शहर को तकता नजर आता है जिस पर पड़ती धूप उसके श्वेत मुख मंडल को और भी आभासित कर देती है।
   
प्रातः कालीन सूर्योदय की बेला का मंत्रमुग्ध कर देने वाला दृश्य सहसा ही नतमस्तक को होने को प्रेरित करता है।......पहाड़ों के पीछे से झांकता नन्हा सा नारंगी सूर्य', अपनी भोली मुस्कान से सभी पर्वतों को नीलिमा से भर देता है।उसकी हौले हौले से बढ़ती मुस्कान आकाश को भी आलोकित करती है।... जब...प्रथम प्रकाश पर्वत शिखर की ओर बढ़ने लगता है तो ऐसा लगता है मानो शीत भरी रात्रि के बीत जाने की प्रतीक्षा में शिखर अपने गालों पर हाथ रखे बस सूर्य की ही रात तक रहा था और मंत्र मुक्त सिंह मैं उसे देखती रही। जल्दी से फोन निकाल कर उस अद्भुत दृश्य की तस्वीर ले ली और सहेज कर रख लिया फोन में भी और अपने मानस में भी।........किंतु एक बात मस्तिष्क को आंदोलित कर गई....।पक्षियों के स्वर कही सुनाई नहीं दिया??????? पक्षियों का स्वर कहां था जो प्रातः कालीन बेला में संपूर्ण प्रकृति को जगाने का प्रयास करता है।कुत्ते तो दिखते हैं किंतु शोर नहीं करते। बहुत दिनों तक आंखे गाय को भी देखने को तरस गई ऐसा लगा मानो विस्थापन केवल मनुष्यों का हुआ। अथवा शहर केवल मनुष्य के लिए है???? एक प्रश्न चिन्ह सा मस्तिष्क में कोंध गया।पक्षी कहाँ हैं???? क्योंकि वही तो है जो मनुष्यों की बाधाओ से मुक्त है। अभी तलक भी मैं उनकी चहचहाट नहीं सुन पाई हूं।पक्षियों ने यहां आना उचित न समझा??? या कोई और कारण है पता नहीं।
 
एक रोज अपने परिवार से फोन पर बात करते हुए मैं बहुत खुश हुई,' क्योंकि पक्षी के चीखने की आवाज मेरे घर के अंदर तक गूंज रही थी। क्योंकि फोन स्पीकर में था मुझे लगा पक्षी आ गए वह मेरे बरामदे में चिल्ला रहे हैं। मुझे बहुत खुशी हुई और मैं भाग कर दरवाजे के बाहर गई मुझे लगा कोई चिड़िया आई है।...जरा देखो तो कौन सी चिड़िया है????क्योंकि उसके स्वर में मुझे अपना नाम सुनाई दे रहा था। लेकिन कोई चिड़िया नहीं थी...... यहां तो कुछ भी नहीं था....... वैसी ही सुनसानी थी कोई नन्ही चिड़िया नहीं, कोई नन्ही आंखें नहीं, कोई फड़फड़ाहट..नहीं....। 
          
फोन कटते ही वह आवाज भी बंद हो गई। फिर आभास हुआ कि वह तो चिड़िया वह चिड़िया थी जो मेरे घर के बाहर घोंसला बना कर रहती है। मेरी गौरैया.. शायद फोन पर मेरी आवाज सुनकर उसने अपनी उपस्थिति दर्ज की थी।वह भी मुझे अपनी कुछ बातें बताना चाहती थी। शायद मेरा हाल-चाल पूछना चाहती थी। शायद पूछना चाहती थी कि तुम अचानक कहां चली गई?? तुम क्यों दिखाई नहीं दे रही हो??किंतु हम मनुष्यों में इतनी समझ कहां,कि उनके निश्चल भाव को समझ सके। उनसे उनका हाल पूछ सके। उनसे जान सके कि वह कैसे हैं??हम उनसे कह सके कि हम सुख से रहते हैं, क्या तुम निर्भय होकर विचरण करते हो????किंतु हम मनुष्य में इतनी समझ कहां…।
   
अभी तक आस पड़ोस से परिचय नहीं हो पाया है।.. क्योंकि प्रतिदिन महाविद्यालय में व्यस्त रहते हैं,और एक दिन अवकाश के रोज कमरे में ही समय व्यतीत हो जाता है। ऐसा नहीं कि यहां के लोग मिलते नहीं किसी से बात नहीं करते, लेकिन मैं खुद ही एकदम से सबसे हिलती मिलती नहीं,'थोड़ा समय लगता है मुझे अपने जैसे लोग तलाशने में।
  
एक रोज दरवाजे के बाहर खड़ी थी तो पड़ोस के छत से एक बिल्ली ने पुकारा...., और उससे बातें करने लगी। वह भी अपनी छत से बहुत देर तक मुझे बतियाती रही। जैसे परिचय प्राप्त कर रही हो.. कि मैं कौन हूं?? कहां से आई हूं???क्या करती हूं????क्या तुम मुझसे बातें करोगी??? मुझसे मिलोगी????एक मित्रता का प्रयास...... शायद वह बिल्ली मुझे कर रही थी। किंतु गली के किनारे आहट होते ही वह भाग गई। उस दिन से अब तक नजर नहीं आई है...शायद....उतना ही परिचय लेना था उसने।कभी-कभी सड़क पर चलते हुए कुत्ते भी मिल जाते हैं। आसपास बैठे,लेटे, एक दूसरे से बात करते हुए। 
     
एक दिन एक दुकान में मुझे पेटिस खाते हुए देखकर एक कुत्ता चलाया। मोटा सा काला सफेद।मेरे सामने बैठ गया और देखने लगा कि क्या यह मुझे भी खाने को देगी??? वह तब तक मुझे देखता रहा जब तक कि मैंने अपनी आधी पेटीज उसके साथ साझा नहीं की।मोटा सा था अपना भार वहन करने में थोड़ा सा उसे मुश्किल हो रही थी इसलिए अध लेटा सा सामने बैठा रहा और पेटिस खाकर चला गया। अक्सर मैंने देखा कि कुत्ते एक निवाला भी खा ले तो अगले दिन से परिचित से हो जाते हैं। एक परिचय बना लेते हैं।एक ऐसा संबंध बना लेते हैं उस व्यक्ति के साथ जैसे वह बहुत समय से मिले हो। किंतु यहां वह भी उसी प्रकार से अपरिचित है। आज मिले ठीक है। लेकिन ना तो वह परिचय देते हैं ना करने का प्रयास करते हैं।
  
इस शहर में सब कुछ है, किंतु सभी खामोश। मस्तिष्क में यदा कदा यही विचार कोंधता है कि क्या पुराना टिहरी ऐसा ही था??? क्या पहले भी यहां के लोग इसी प्रकार से शांत थे???? जो सदियों से बसा हुआ शहर था??क्या वह परिचित नहीं था किसी से भी???? क्या वह एक दूसरे से ऐसे ही मिलते थे खामोश शांत????? …।

यूं तो नए शहर का निर्माण करते समय डुबोई गई हर इमारत को उसी रूप में यहां लाकर रख दिया गया। बल्कि कहा जाए कि पहले से बेहतर बना करके रखा गया है। लेकिन केवल इमारतें और लोग ही आए शायद। उनके मन नहीं आए। शायद उनकी वह हंसी नहीं आई। हंसते तो है,....बोलते भी हैं.....। ऐसा नहीं। लेकिन वह मिठास वह रस मुझे कहीं नजर नहीं आया। लगता है वह चहक कहीं खो गई है।
  
जो नदियां कभी किनारों से शोर मचाती हुई बहती थी, अटखेलिया खेलती थी। पर्वतों के किनारों से टकरा टकराकर अपनी अपनी उपस्थिति दर्ज करती थी वह वर्षों से सोई हुई है।....... ऐसा लगता है गोमुख और खतलिंग ग्लेशियर से निकलने के बाद जिस चहक के साथ भागीरथी और भिलांगना दौड़ती हुई आती थी, एक दूसरे से मिलकर खिलखिलाती थी। एक दूसरे से मिलने के बाद जो फेन उनमें उत्पन्न होता था, उस हर्ष को उस चहक को वह कभी का भूल चुकी है। शहर को वापस बसाने में कोता ही तो कोई नहीं कही गई,...... किंतु आवाज़ कहीं गुम हो गई। वह शोर, वह गड़गड़ाहट,वह आवेग जिसके साथ उन दोनों ने उस शहर को डुबोया था उसके ग्लानि में वह वर्षों से सारी आवाजों को खुद में जज्ब कर कर सो गई है.। पानी के ऊपर हलचल बहुत होती है। उनके मन में दफन वह दर्द कुहासा बनाकर ऊपर उठता है और अक्सर बरस जाता है। सुबह का सूर्य कितना ही अपनी खिलखिलाहट के साथ शहर को गर्म कर ले.... किंतु नदियों की निःशवासें है हर शाम को शीतल कर जाती है।
  
जब कभी भी बाहर निकाल कर यहां की सड़कों पर चलती हूं, ऐसा प्रतीत होता है जैसे किसी ने आकर घर के लोगों का सामान बाहर सीडीओ पर फेंक दिया हो। लोगों ने भीतर जाने का बहुत प्रयास किया किंतु दबंगों की दबंगई के आगे उनकी एक न चल सकी। वह अपना घर तो वापस न पा सके इसलिए उन्होंने अपना घरबार सीढीयो पर ही बसा लिया। अब उनकी गृहस्थी सीढीयों पर ही चलती है।......बस सीढ़ियां ही सीढ़ियां है इस शहर में सौ, दो सौ,हजार, दोहजार सीढ़ियां ही सीढ़ियां। यदि आप सड़कों का लंबा मार्ग नहीं अपनाना चाहते हैं तो आप सीढीयों से जाइए। सीढ़ियां हर तरफ सीढ़ियां।
 
ऐसा लगता है बाहर निकल जाने के बाद लोग सीढीयों पर रहने लगे और भीतर रहने वाले लोगों को कोई परेशानी ना हो इसलिए आवाज कोई नहीं करता। सब रहते हैं यहां,सब कुछ रहता है, किंतु शांत चुपचाप सीढीयों पर शहर।



- डॉक्टर चंचल गोस्वामी,असिस्टेंट प्रोफेसर 
स्नातकोत्तर महाविद्यालय नई टिहरी 
मेल -chanchalgoswamig@gmail.com
फोन -9084512957

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