कुंडली का रहस्यमयी अष्टम भाव

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अष्टम भाव जातक के जीवन की अत्यंत ही रहस्यमयी घटनाओ जैसे अचानक से उत्थान या पतन, दीर्घकालिक परिवर्तन, आयु, मृत्यु तुल्य कष्ट, मृत्यु, अचानक से धन की प

कुंडली का रहस्यमयी अष्टम भाव


द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:, पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।
वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:, सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

(शान्ति: कीजिये प्रभु ! त्रिभुवन में, जल में, थल में और गगन में, अन्तरिक्ष में, अग्नि - पवन में, औषधियों, वनस्पतियों, वन और उपवन में, सकल विश्व में अवचेतन में, शान्ति राष्ट्र-निर्माण और सृजन में,  नगर , ग्राम और भवन में प्रत्येक जीव के तन, मन और जगत के कण - कण में, शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए।)

कुंडली का रहस्यमयी अष्टम भाव
अष्टम भाव जनमकुंडली का अत्यंत ही महत्वपूर्ण और रहस्यमय भाव माना गया है। इस भाव के माध्यम से हम जीवन के गहरे पहलुओं को समझने का प्रयास करते हैं। अष्टम भाव हमें आत्म-खोज और परिवर्तन की ओर प्रेरित करता है। यह हमें जीवन की चुनौतियों का सामना करने का साहस प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त जनमकुंडली के अष्टम भाव को गहन खोजों, अन्वेषण, आविष्कार, रिसर्च कार्य, पुरातत्व शास्त्र, ऐतिहासिक खोजें, इतिहास, इत्यादि विषय  में महत्वपूर्ण जानकारी के लिए निर्दिष्ट किया गया है। अनुभव में पाया गया है ऐसे जातक जो अपने जीवन में अत्यधिक धनवान हैं, उनके जीवन में अष्टम भाव एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जन्म कुंडली का सर्वाधिक रहस्यमयी भाव अष्टम  भाव को ही माना गया है। अष्टम भाव को सबसे बली दुख स्थान के रूप में जाना जाता है। अष्टम भाव के अन्य कारकत्वों में  मुख्य रूप से प्रजनन अंगों और गुप्तांगों के रोग, जातक की आयु, आकस्मिक एवं अकाल मृत्यु, मृत्यु का कारण, पूर्ण विनाश, परेशानियां, अड़चने, दुख, पिछले जन्म में किए गए पाप कर्मों से अप्रसन्नता, षड्यंत्र, अभियोग, पाप कर्म, अनैतिक कर्म, दुर्भाग्य, आयुष्य, रुकावटें, ऋण, शत्रुता, सार्वजनिक निंदा, गुप्त शत्रु,  विवाह विच्छेद, अतिरिक्त वैवाहिक सम्बंध इत्यादि के विषय में  विचार किया जाता है। सम्भवत: यही कारण जान पड्ता है इसे दुख स्थान के रूप में इंगित किये जाने का। अष्टम भाव जातक को जीवन में दुख, परेशानी मानसिक संताप, पीड़ा, कष्ट, मृत्यु तुल्य कष्ट और यहां तक की मृत्यु प्रदान करने में सक्षम होता है। इस भाव के कारक ग्रह न्याय के देवता शनि बताये गये हैं। इतना सब देखते हुए क्या हम ऐसा समझे कि अष्टम भाव जीवन पर्यंत जातक को दुख, तकलीफ, परेशानी, पीडा या मानसिक संताप ही देने वाला है? शायद ऐसा नहीं है। सिद्धांत रूप में देखा जाए तो कुंडली के बारह भावो में से कोई भी भाव बुरा या दुष्ट नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि सभी भाव दैवीय सिद्धांतों के भाग होते हैं जिनमें कुछ कार्य निर्दिष्ट होते हैं। इस प्रकार हम देखें तो पाते हैं कि पत्रिका का अष्टम भाव मोक्ष त्रिकोण का एक महत्वपूर्ण भाग है जो शरीर में कुंडलिनी जागरण के लिए सर्वाधिक उपयुक्त माना गया है। ज्योतिष शास्त्र में अष्टम भाव को एक रहस्यमयी और महत्वपूर्ण भाव माना जाता है। यह भाव जीवन के गूढ़ रहस्यों, परिवर्तन और अनिश्चितताओं का प्रतिनिधित्व करता है। 

आज हम इसी पह्लू पर विचार करने का प्रयास करेंगे कि किस प्रकार से अष्टम भाव कुंडली के अन्य भावो से सम्बंध बनाते हुए जातक के जीवन को परिवर्तित और रूपांतरित करने में समर्थ हो सकता है। अष्टम के परिणामो को हम दो अलाग अलग दृश्टिकोणो या आयामो के अंतर्गत समझने का प्रयास करेंगे।
 

प्रथम आयाम

प्रथम आयाम के अंतर्गत हम अष्टम के द्वितीय, दशम, एकादश और द्वादश भाव से आपसी सम्बंध और प्रभाव के आधार अष्टम भाव के रहस्य को समझेंगे।

किसी भी भाव का सप्तम भाव उसका आधा अंग माना जाता है। जन्मकुंडली का दूसरा भाव धन भाव कह्लाता है अतः इसका सप्तम अर्थात अष्टम भाव भी धन को निरूपित करता है। यह धन जातक का स्व अर्जित नही होता है। अष्टम भाव अचानक से आपके धन को बढ़ा सकता या अचानक से धन समाप्त भी करा सकता है। अष्टम भाव विपत्ति, हानि, परेशानी, पतन इत्यादि का भाव है। अतः धन से आने वाली विपत्ति, हानि, परेशानी या पतन दे सकता है। जैसे लग्न भाव का सप्तम भाव उसका पार्टनर, जीवनसाथी या साझेदार के रूप में बताया गया है। अभी यदि सप्तम के संदर्भ में देखा जाए तो अष्टम भाव सप्तम से दूसरा पड़ता है अर्थात यह भार्या, पार्टनर या साझेदार के धन के विषय में भी जानकारी प्रदान कर सकता है। संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि इन  कारकत्वों के संबंध में अष्टम भाव पर पड़ने वाले प्रभाव के अनुरूप शुभ या अशुभ दोनों प्रकार के फल जातक को प्राप्त हो सकते हैं।

 
अष्टम भाव दशम भाव से एकादश है। जहां एक ओर दशम भाव हमारे समस्त प्रकार के कर्म को दर्शाता है वहीं दूसरी ओर एकादश भाव लाभ का भाव, आय का भाव अथवा इच्छा पूर्ति का स्थान बताया गया है।  अतः अष्टम हमारे समस्त प्रकार के कर्मो के लिए लाभ स्थान है। सर्व विदित है कि जीवन में कर्म तो हमारे हाथ में होते हैं परंतु कर्म का फल हमारे नियंत्रण में नहीं होता। अर्थात कर्म का फल क्या मिलेगा और कब मिलेगा यह एक रहस्य ही बना रह्ता है। इस कारण इस भाव से इसका विचार सर्वथा उपयुक्त जान पड़ता है। आठवां भाव बली है, शुभ प्रभाव में है और पीड़ित नहीं है तब जातक के समक्ष अच्छे अवसर प्राप्त हो सकते हैं और जातक को कर्म फल की अच्छी प्राप्ति बताई जा सकती है। और पीडित होने की स्थिति में हमें अपने कर्मों का यथोचित और समुचित फल प्राप्त नहीं हो पाता है। 

अष्टम भाव एकादश का दशम स्थान है। हम जानते हैं एकादश हमारा लाभ का स्थान है, इच्छापूर्ति का स्थान है और दशम हमारे समस्त कर्मों को निरूपित करता है। इस प्रकार अष्टम भाव  इच्छापूर्ति या लाभ के लिए किए जाने वाले कर्म को बताता है। इस दृष्टि से जातक के जीवन में कर्म की प्रधानता बतायी गयी है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं  –

योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते । (अध्याय 2/ श्लोक 48)

अर्थात- “हे धनञ्जय अर्जुन कामना को त्याग कर सफलता और असफलता को एक समान मान कर तू अपने कर्म के प्रति एकाग्र रहे। कर्म का कोई फल मिले या न मिले – दोनों ही मन की अवस्थाओं में जब व्यक्ति का मन एक समान रहता है उसी स्थिति को समत्व योग अर्थात कर्म योग कहते हैं।“

अत: आपको हर परिस्थिति में अपने कर्म पर घ्यान केंद्रित करना होगा। इस भाव से उन सारे कर्मों पर विचार किया जा सकता है जो जातक अपनी उपलब्धियां,  इच्छापूर्ति अथवा लाभ अर्जित करने के लिए करता है। अष्टम से  इस बात का पता चलता है कि अपनी इच्छाएं पूर्ण करने के लिए जातक का कर्म किस प्रकार का होना चाहिए।  यहां अष्टम उपलब्धियां को प्राप्त करने के लिए किए गए प्रयासों को दर्शाता है। संसार में कुछ लोग अपनी इच्छाओं, उपलब्धियों को सन्मार्ग की राह पर चलते हुए नियमनुसार हासिल करने का प्रयत्न करते हैं। वहीं कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो अनैतिक कर्म और प्रयासों का उपयोग करते हुए लाभ कमाने का प्रयत्न करते हैं। पीड़ित अष्टम भाव, एकादश का दशम होने की वजह से लाभ, ईक्षापूर्ति के लिए किए गए कर्म को पीड़ित करता है। जिस वजह से जातक भली प्रकार से कर्म नहीं कर पाता है और वह समुचित लाभ अर्जन से वंचित रह जाता है। यदि अष्टम भाव पीड़ित नहीं होता तो सकारात्मक परिणाम की संभावना बताई जा सकती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अष्टम भाव अपने आप में अनेक रहस्य को समेटे हुए है। 

अष्टम भाव द्वादश का नवम भाव अर्थात भाग्य स्थान है। द्वादश भाव इन्वेस्टमेंट का भाव बताया गया है। हमारे द्वारा किए गये इंवेस्ट्मेंट का क्या परिणाम मिलेगा, लाभ होगा अथवा नहीं, यह बात सदैव ही अनिश्चित और रहस्य बनी रहती है। यदि अष्टम भाव अच्छा है, शुभ प्रभाव में है तो जातक को अपने इन्वेस्टमेंट पर शीघ्र लाभ प्राप्त हो सकेगा अथवा कम इन्वेस्टमेंट करने पर अधिक लाभ प्राप्त कर सकेगा। अष्टम के पीड़ित होने का परिणाम है कि कभी-कभी जमा का लाभ हमें बहुत समय बाद या धीरे-धीरे मिलेगा। अष्टम का शुभ प्रभाव में होने पर व्यक्ति अपने इन्वेस्टमेंट से शीघ्र और अच्छा लाभ कमाता है। द्वादश भाव से हम गूढ़ विद्या में परिपक्वता, शयन सुख, विदेश में निवास स्थान, मोक्ष इत्यादि का विचार भी किया जाता है। अष्टम इन विषयों के भाग्य स्थान के रूप में भी देखा जाता है। अर्थात यदि हम गूढ़ विद्या में परिपक्वता लाने हेतु अध्ययनरत हैं तो क्या हमें इसमें सफलता मिलेगी? शयन सुख हमारे लिए लाभकारी होगा? विदेश में निवास से क्या भाग्योदय होगा? अथवा मोक्ष प्राप्ति का मार्ग सरल होगा? अतः अष्टम भाव हमें हमारे इन सभी प्रश्नों के उत्तर देने में सक्षम है।

नवम भाव का द्वादश होने के कारण अष्टम भाव हमारे भाग्य का व्यय स्थान हुआ। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि अष्टम भाव से जातक के दुर्भाग्य का अनुमान लगाया जा सकता है। इस इस प्रकार से जातक के जीवन में दुर्भाग्य का होना उसके शारीरिक, मानसिक और आर्थिक समस्त प्रकार के पतन की ओर इशारा करता है। इस प्रकार हमने देखा कि किस प्रकार कुंडली का अष्टम भाव, धन भाव, भाग्य स्थान, कर्म भाव, लाभ स्थान और व्यय भाव के रहस्यो को अपने में समेटे हुआ है।

 

द्वितीय आयाम

दूसरा और महत्वपूर्ण आयाम अष्ट्मेष की स्थिति और प्रभाव पर आधारित है। अष्ट्मेश अपनी स्थिति और प्रभाव के कारण भाव विशेष के कारकत्वो अर्थात गुण स्वरुपो को हानि पहुंचाता है। अनुभव में यह पाया गया है कि यदि जातक के द्वारा अष्टम भाव के सकारात्मक कारकत्वों के अनुरुप कर्म अपने जीवन में अपनाये जाते हैं तब अष्टमेश के प्रभाव को न्यूनतम रखा जा सकता है। हम सभी जानते हैं कि वर्तमान समय में प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में परिवर्तन चाहता है, बदलाव चाहता है। एक ही प्रकार के जीवन शैली से वह उकता चुका है। इसी एडिक्शन को अष्टम भाव से देखा जाता है। यही वजह है कि वह अपना जीवन दुर्भाग्यपूर्ण मानने लगता है और मानसिक संताप से गुजरता है। अष्टम भाव जातक के जीवन में किसी ना किसी प्रकार के बडे बद्लाव और परिवर्तन का सूचक है। इसे हम आमूल चूल परिवर्तन या कम्प्लीट ट्रांस्फोर्ममेशन का भाव भी कह्ते हैं। अब यदि ऐसा जातक अपने जीवन में अष्टम भाव से संबंधित सकारात्मक गुण जैसे गूढ़ विषयों का अध्ययन, शोध, प्रबंधन, ज्योतिष शास्त्र, पुरातत्व शास्त्र, इतिहास, सर्जरी इत्यादि  को अपने जीवनयापन और जीवनशैली के रूप में अपनाता है,  तो वह विचाराधीन भाव जागृत हो जाता है। इस प्रकार अष्टमेश के कारण कारकत्वों में आई कमी दूर हो सकती है। अब यदि अष्टम भाव शुभ प्रभाव में हो और अष्ट्मेश भी शुभ स्थिति में हो तब यह भाव जातक के जीवन में आमूल चूल परिवर्तन लाने, बद्लाव लाने में सक्षम होता है। आइये कुछ मुख्य भावो के संदर्भ में इसे समझने का प्रयास करते हैं।

अष्टमेश यदि लग्न भाव में स्थापित है तो नियमानुसार यह जातक के शरीर, व्यक्तित्व, सोच, आचार विचार इत्यदि को कष्ट देगा या दूषित कर विपरीत प्रभाव डालने का प्रयास करेगा। अध्य्यन के दौरान यह पाया गया है कि इस स्थिति में जातक यदि अष्टम भाव के कारकत्वों जैसे रिसर्च, सर्जरी, ज्योतिष, पुरातत्व, इतिहास इत्यदि के साथ अपने आप को जोड लेता है तो अष्ट्मेश के लग्नस्थ होने से पड्ने वाले अशुभ प्रभाव को कम किया जा सकता है। अर्थात यदि जातक अष्टम से सम्बंधित गुण स्वरुपो के अनुरूप अपनी कार्य प्रणाली रखता है तो उसका शरीर, व्यक्तित्व, आचार विचार, व्यवहार, आत्मा शुद्ध और पवित्र बनी रह सकती है, और उसे शारीरिक कष्ट परेशानी, पीडा कम मिलेगी। चतुर्थ भाव से हम माता, भवन, भू सम्पत्ति, पैतृक सम्पत्ति, चल अचल सम्पत्ति, विद्या, वाहन, सामान्य खुशहाली, मानसिक शांति, सुख स्थान, गुप्त अथवा संरक्षित धन, मित्र इत्यादि का विचार करते हैं। सामान्यत: अष्टमेश की इस भाव में उपस्थिति इस भाव को हानि पहुंचाने का काम करेगी। अब यदि जातक स्वयम को अष्टम के कारकत्वों से जोड पाता है जैसे ज्योतिष का अध्य्यन, सर्जरी, रिसर्च, पुरातत्व शास्त्र इत्यादि तब जातक के अपनी माता से सम्बंध मधुर बन जाते हैं, जातक का जीवन खुश हाल बनता है और उसे मानसिक शांति और सुख की प्राप्ति होती है। पंचम भाव से संतति, विद्या, बौधिक क्षमता, ज्ञान, कार्य करने की मौलिक योग्यता, पूर्व पुण्य कर्म, पूर्व पुण्य कर्म पर आधारित भाग्य, साहित्य में प्रवीणता इत्यादि का विचार किया जाता है। अष्टमेश के प्रभाव से बुद्धि में अनैतिकता का समावेश होता है और जातक की बुद्धि भ्रष्ट हो सकती है। पूर्व जनम के पुण्य कर्म और उसके भाग्य को सक्रिय करने के लिए हमें अष्टम के कारकत्वों पर अपना घ्यान केंद्रित करना होगा। यहाँ मुख्य रूप से हमने अष्ट्मेश को आधार मानते हुए उसकी स्थिति और प्रभाव के आधार पर जातक के जीवन के उत्थान को समझने का प्रयास किया है। 

फलदीपिका के अनुसार षष्ठम, अष्टम और द्वादश भावों के  स्वामी एक दूसरे के भावो में स्थित होकर हर्ष, सरल और विमल नामक  विपरीत राजयोग का निर्माण करते हैं। अष्टमेश के अशुभ स्थान षष्ठम, अष्टम या द्वादश भाव में स्थित होने पर सरल नामक विपरीत राजयोग का निर्माण होता है। इस योग में जन्मा जातक दीर्घायु, दीर्घमति, निर्भय, विद्यावान,पुत्र और धन से युत, अपने कार्यो में सफलता प्राप्त करने वाला, पवित्र और शत्रुओ पर विजय प्राप्त करने वाला प्रसिद्ध व्यक्ति हो सकता है। अष्टम भाव में यदि षष्ठम भाव का स्वामी स्थित हो जाता है तो हर्ष नामक विपरीत राजयोग का निर्माण करता है। हर्ष राजयोग में जिस जातक का जन्म होता है वह सुखी, भाग्यवान, दृढ शरीर का स्वामी, भोगी, शत्रुओ को पराजित करने वाला और पाप भीरु होता है। ऐसे जातक को धन दौलत, पुत्रो और मित्रो का सहयोग प्राप्त होता है। । अष्टम में यदि द्वादशेश आकर बैठता है, और यदि अष्टम अशुभ प्रभाव में आ जाता है तब विमल नामक विपरीत राजयोग का बनना बताया गया है। इस योग के साथ जन्मा जातक दूसरो के अनुकूल आचरण करने वाला, सद्गुणो के कारण लोकप्रिय, धन का संचय करने वाला, मितव्ययी और सुखी बताया गया है। 

इस प्रकार हम देखते हैं कि अष्टम भाव जातक के जीवन की अत्यंत ही रहस्यमयी घटनाओ जैसे अचानक से उत्थान या पतन,  दीर्घकालिक परिवर्तन, आयु, मृत्यु तुल्य कष्ट, मृत्यु, अचानक से धन की प्राप्ति जो स्व अर्जित ना हो, दीर्घ कालिक गम्भीर रोग इत्यदि को अंतर्निहित किए बैठा है। जीवन की सबसे सूक्ष्म और रहस्य पूर्ण विषय वस्तु प्राण मानी गई है। जिसे यहां स्थापित किया गया है। प्राण ही शरीर का भोग करता है। आवश्यकता है तो केवल इस बात की, कि हम कितनी सूक्ष्मता और गहराई के साथ  अष्टम भाव और उस पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन कर विवेचना कर पाते हैं। चलते चलते एक अन्य महत्व्पूर्ण तथ्य से अवगत कराना चाहता हूँ और वह है लग्न भाव, कारक सूर्य और चंद्र का प्रभाव और बल। हम सभी जानंते हैं कि जीवन में समस्त प्रकार की घटनाओ और सुख दुख का प्रभाव जातक को खुद ही अनुभव करना और भोगना होता है। अत: शारीरिक कष्ट को झेलने के लिए उसका शरीर हृष्ट पुष्ट और तंदरुस्त होना आवश्यक है। मानसिक पीडा, दुख, संताप को भोगने के लिए उसकी मानसिक स्थिति का अच्छा और सुदृढ होना आवश्यक है। अत: जातक की जनम कुंडली में लग्न भाव अर्थात जातक का शरीर, लग्न का कारक ग्रह सूर्य और मन का कारक ग्रह चंद्रमा बली हैं, शुभ स्थिति में हैं, तब ऐसी कुंडली अच्छी मानी जाती है। इस प्रकार मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि ऐसा जातक जिसकी पत्रिका में लग्न, सूर्य अथवा चंद्र में से कम से कम कोई भी दो यदि बली स्थिति में हैं तब वह भली प्रकार से जीवन के थपेडो को सह्ने की क्षमता रखता है और जीवन के सुख दुख को सहन करते हुए अनंत ऊंचाइयो को स्पर्श करता है।

आशा है आप सभी इस लेख को पसंद करेंगे। आपकी प्रतिक्रिया और सुझाव सादर आमंत्रित है।

सादर्।


- संजय श्रीवास्तव,बालाघाट मध्यप्रदेश,9425822488

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