फेक न्यूज और दुष्प्रचार का बढ़ता जाल

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फेक न्यूज और दुष्प्रचार का बढ़ता जाल आज के डिजिटल युग की सबसे जटिल और गंभीर चुनौतियों में से एक है। सूचना क्रांति ने जहां दुनिया को एक-दूसरे से जोड़ने

फेक न्यूज और दुष्प्रचार का बढ़ता जाल


फेक न्यूज और दुष्प्रचार का बढ़ता जाल आज के डिजिटल युग की सबसे जटिल और गंभीर चुनौतियों में से एक है। सूचना क्रांति ने जहां दुनिया को एक-दूसरे से जोड़ने और ज्ञान के प्रसार को अभूतपूर्व गति दी है, वहीं इसने गलत सूचनाओं को फैलाने का एक खतरनाक मंच भी प्रदान किया है। सोशल मीडिया, वेबसाइट्स और मैसेजिंग ऐप्स जैसे व्हाट्सएप, ट्विटर और फेसबुक ने सूचनाओं को पलक झपकते ही लाखों-करोड़ों लोगों तक पहुंचाने की क्षमता दी है, लेकिन इस गति का दुरुपयोग भ्रामक और झूठी खबरों को वायरल करने में भी हो रहा है। यह समस्या केवल व्यक्तिगत स्तर पर ही नहीं, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों में भी गहरे नकारात्मक प्रभाव छोड़ रही है।

फेक न्यूज और दुष्प्रचार की परिभाषा

फेक न्यूज और दुष्प्रचार का बढ़ता जाल
फेक न्यूज ऐसी सूचनाएं हैं जो जानबूझकर गलत या भ्रामक होती हैं और इन्हें किसी खास मकसद से बनाया और फैलाया जाता है। यह मकसद किसी व्यक्ति, समुदाय या संगठन की छवि को नुकसान पहुंचाना, सामाजिक तनाव पैदा करना, या फिर आर्थिक और राजनीतिक लाभ हासिल करना हो सकता है। दूसरी ओर, दुष्प्रचार एक कदम आगे है, जहां संगठित और योजनाबद्ध तरीके से गलत सूचनाओं का उपयोग बड़े पैमाने पर प्रभाव डालने के लिए किया जाता है। उदाहरण के लिए, किसी देश में अस्थिरता पैदा करने, चुनावों को प्रभावित करने या सामाजिक एकता को तोड़ने के लिए दुष्प्रचार का सहारा लिया जाता है। यह जाल इतना जटिल हो चुका है कि इसे पहचानना और इससे निपटना आसान नहीं रह गया है।

डिजिटल युग की भूमिका

इस समस्या की जड़ें डिजिटल तकनीक के तेजी से प्रसार में हैं। सोशल मीडिया ने हर व्यक्ति को एक सूचना प्रसारक बना दिया है, जहां बिना किसी सत्यापन के कोई भी संदेश, वीडियो या लेख लाखों लोगों तक पहुंच सकता है। खास तौर पर संकटकाल में, जैसे प्राकृतिक आपदाओं, महामारियों या सामाजिक अशांति के समय, फेक न्यूज की बाढ़ आ जाती है। कोविड-19 महामारी इसका एक स्पष्ट उदाहरण है, जब टीकों, उपचारों और वायरस की उत्पत्ति को लेकर झूठी खबरें और अफवाहें इतनी तेजी से फैलीं कि लोगों का विश्वास वैज्ञानिक तथ्यों से हटकर भ्रामक दावों की ओर चला गया। ऐसी सूचनाओं ने न केवल लोगों की जान जोखिम में डाली, बल्कि स्वास्थ्य सेवाओं पर भी अनावश्यक दबाव बढ़ाया।

सामाजिक प्रभाव

सामाजिक स्तर पर, फेक न्यूज और दुष्प्रचार समाज में विभाजन और अविश्वास को बढ़ावा देते हैं। जब लोग बार-बार गलत सूचनाओं के संपर्क में आते हैं, तो उनका भरोसा तथ्यों और विश्वसनीय स्रोतों पर कम होने लगता है। यह स्थिति पुष्टिकरण पक्षपात (confirmation bias) को बढ़ाती है, जहां लोग केवल वही सूचनाएं स्वीकार करते हैं जो उनकी पहले से मौजूद मान्यताओं के अनुरूप हों। परिणामस्वरूप, समाज में ध्रुवीकरण बढ़ता है और लोग एक-दूसरे के प्रति संदेह और शत्रुता की भावना रखने लगते हैं। भारत जैसे सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से विविध देश में, जहां धार्मिक और जातिगत संवेदनाएं गहरी हैं, ऐसी भ्रामक खबरें हिंसा और तनाव को जन्म दे सकती हैं। उदाहरण के लिए, व्हाट्सएप पर फैली अफवाहों के कारण कई बार भीड़ द्वारा हिंसा की घटनाएं सामने आई हैं।

राजनितिक प्रभाव

राजनीतिक क्षेत्र में फेक न्यूज और दुष्प्रचार का उपयोग एक खतरनाक हथियार के रूप में हो रहा है। चुनावों के दौरान, विरोधी पक्षों के खिलाफ झूठी खबरें, डीपफेक वीडियो और भ्रामक प्रचार सामान्य हो गया है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता की मदद से बनाए गए डीपफेक इतने वास्तविक लगते हैं कि आम लोग उन्हें सच मान लेते हैं। इससे मतदाताओं में भ्रम पैदा होता है और लोकतांत्रिक प्रक्रिया की निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं। कुछ मामलों में, विदेशी ताकतें भी दुष्प्रचार के जरिए किसी देश की आंतरिक स्थिरता को प्रभावित करने की कोशिश करती हैं, जिससे राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा पैदा होता है।

आर्थिक प्रभाव

आर्थिक दृष्टिकोण से भी फेक न्यूज का प्रभाव गंभीर है। झूठी खबरें शेयर बाजार में उतार-चढ़ाव ला सकती हैं, कंपनियों की साख को नुकसान पहुंचा सकती हैं और उपभोक्ताओं को गुमराह कर सकती हैं। उदाहरण के लिए, किसी कंपनी के उत्पाद या सेवाओं के बारे में गलत जानकारी फैलाकर उसके शेयरों की कीमत को प्रभावित किया जा सकता है। इसके अलावा, फर्जी विज्ञापनों और ऑनलाइन स्कैम्स के जरिए लोगों को आर्थिक नुकसान पहुंचाने की घटनाएं भी बढ़ रही हैं।

फेक न्यूज को रोकने के उपाय

इस समस्या से निपटने के लिए कई उपाय किए जा रहे हैं। सरकारें और सोशल मीडिया कंपनियां फेक न्यूज को रोकने के लिए नीतियां और तकनीकी समाधान लागू कर रही हैं। कई प्लेटफॉर्म्स ने फैक्ट-चेकिंग यूनिट्स बनाई हैं, जो भ्रामक सामग्री की पहचान करती हैं और उसे हटाने या चेतावनी लेबल के साथ चिह्नित करने का काम करती हैं। हालांकि, ये प्रयास पर्याप्त नहीं हैं, क्योंकि गलत सूचनाएं फैलने की गति इतनी तेज होती है कि फैक्ट-चेकिंग का प्रभाव सीमित रह जाता है। साथ ही, तकनीक के विकास के साथ दुष्प्रचार के नए-नए तरीके सामने आ रहे हैं, जैसे डीपफेक और एआई-जनरेटेड कंटेंट, जिन्हें पहचानना और भी मुश्किल है।



इस चुनौती का सबसे प्रभावी समाधान है लोगों में डिजिटल और मीडिया साक्षरता को बढ़ावा देना। अगर लोग यह समझ सकें कि हर सूचना को बिना जांचे स्वीकार नहीं करना चाहिए, तो फेक न्यूज का प्रभाव काफी हद तक कम हो सकता है। स्कूलों और कॉलेजों में डिजिटल साक्षरता को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना, तथ्य-जांच के उपकरणों का उपयोग सिखाना और आलोचनात्मक सोच को प्रोत्साहित करना इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम हैं। साथ ही, पत्रकारिता में नैतिकता और जवाबदेही को बढ़ावा देना भी जरूरी है, ताकि मुख्यधारा का मीडिया लोगों का भरोसा बनाए रखे।

सामूहिक जिम्मेदारी

अंत में, फेक न्यूज और दुष्प्रचार का जाल केवल तकनीकी या सरकारी प्रयासों से नहीं टूट सकता। इसके लिए सामाजिक जागरूकता, व्यक्तिगत जिम्मेदारी और सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता है। प्रत्येक व्यक्ति को यह समझना होगा कि सत्य की खोज एक साझा दायित्व है। जब तक समाज का हर वर्ग इस चुनौती से निपटने के लिए एकजुट नहीं होगा, तब तक इस जाल को पूरी तरह तोड़ना मुश्किल रहेगा।

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