घर जाकर आज की आधुनिक संघर्ष करती नारी से चाची की तुलना करने लगी। चाची कहीं भी कम नहीं लगी। भोली और सरल दिखने वाली चाची में अपनी लड़ाई लड़ने का आत्म बल
अंगूरी
15 साल बाद दादाजी की मृत्यु पर गांव जा रही थी, जब से पढ़ने शहर आई तो गांव से जैसे संबंध ही टूट गया था क्योंकि मां बाबूजी सब मृदुल के पास ही आते रहते थे। मृदुल का काम शहर में अच्छा चल रहा था। फिर बाबूजी ने उसके लिए मकान भी वहीं बनवा दिया था। चित्रा भाभी शहर की लड़की थी। उन्हें रोज-रोज गांव जाना पसंद नहीं था। जब कुछ खास बात होती तो वह एक-दो दिन को चली जाती थी। घर मेरे हवाले छोड़कर, मैंने 13 वर्ष की उम्र में गांव छोडा तो फिर उस तरफ मुड़कर नहीं देखा क्योंकि मैं दादाजी, चाचाजी के दकियानूसी विचारों से परेशान हो गई थी। हालांकि तब मैं छोटी थी, फिर भी हर समय की टोका टाकी मुझे अच्छी नहीं लगती थी। मैं कभी भैया के साथ खेलती या हंसती या भैया जैसा खाने- पहनने को मांगती तो वह बहुत डांटते थे, कहते थे तुम लड़की हो लड़कियों की तरह रहा करो। अभी से घर का काम करना सीखो। धीरे-धीरे बोलो, धीरे-धीरे हंसो… तुम भैया की बराबरी कैसे कर सकती हो?
मेरा नन्हा सा कोयल मां अंदर अंदर ही अंदर विचलित हो जाता था। मैं सोचती एक बार दादा से पूछूं कि भैया के पास ऐसा क्या है जो मेरे पास नहीं है, भैया मुझसे अलग कैसे हैं? लेकिन नन्हा सा मन दादा जी के सामने कहने का साहस नहीं जुटा पाया। मृदुल स्कूल जाता, मेरा मन भी पढ़ने को करता। कभी मैं मां से स्कूल जाने को कहती तो वह चुप रहती, पर उनकी आंखें विवशता से भर जाती थी, बस मेरे सिर पर हाथ फेर कर दुलार देती जैसे वह मेरी हर इच्छा को पूरा करना चाहती हैं पर कर नहीं सकती… मां बाबूजी से कहती महिमा पढ़ना चाहती है, वह स्कूल जाना चाहती है, दो-चार शब्द सीख लेगी तो आगे जीवन में काम आएंगे।
बाबूजी मां को समझाते तुम तो जानती ही हो कमला कि पिताजी लड़कियों के पढ़ने के सख्त खिलाफ हैं, वह महिमा को कभी स्कूल नहीं जाने देंगे। तुम अपना मन दुखी मत करो, भगवान पर भरोसा रखो, वही कोई रास्ता निकालेंगे, तुम घबराओ मत। मैं इसके लिए ऐसा लड़का देखुंगा जो इसे सारी खुशी दे सके।मां मचल कर कहती- हां अब तो तुम्हारी तनिक बात पिताजी नहीं मानते, जब जरूर तुम्हारी चलेगी जहां पिताजी को ठीक लगेगा, झोंक देंगे। अब समय बदल गया है और गांव में स्कूल भी खुल गया है, फिर भी पिताजी लड़कियों को पढ़।ना नहीं चाहते हैं… मां कहते-कहते रोने लगती।
बाबूजी फिर समझाते, नहीं कमला, धीरज धरो ऐसा नहीं होगा… मैं धीरे-धीरे कोई राह निकाल लुंगा। हमने समझदारी से दो बच्चों को जन्म दिया है तो भविष्य भी अच्छा ही देंगे। बाबूजी मां को हर तरह से ढ़ाढस देते। मैं नन्ही सी जान सब सुनती रहती मेरा चंचल मन कुछ ठीक से समझ नहीं पाता था। आज फिर मन उड़ कर उन्हीं स्मृतियों में खो जाना चाहता है।
जैसे ही गाड़ी ने खिंच-खिंच की आवाज की और गाड़ी उबड़- खाबड़ रास्ते पर हिचकोले खाने लगी, मैं समझ गई… अब अपना गांव पास है। गांव पास आते ही मेरे मन में सबसे पहले अंगुरी चाची की याद आई, वह मेरी प्रथम गुरु थी जिन्होंने मुझे अक्षर ज्ञान कराया था। मैं मन से उनको हमेशा नमन करती रहती थी। प्रथम गुरु परमेश्वर समान होता है और सच भी है अगर वह मुझे नहीं मिलती तो शायद मेरी पढ़ाई की लगन को दिशा नहीं मिलती। मैं उनकी बहुत आभारी हूं, पर कभी उनको धन्यवाद तक देने गांव नहीं आई, बस मां बाबूजी से उनके बारे में पूछ लेती थी। आज जब गांव जा रही हूं तो उड़कर सबसे पहले चाची जी से मिलने का मन हो रहा है। उनका प्यार, स्नेह जो इतने दिनों से दबा पड़ा था आज बरबस उमड़ा पड़ रहा है। उनसे पहली मुलाकात याद आ रही है उनका दुल्हन का रूप मुझे आज भी याद है।
गांव में कर्ण चाचा की शादी शहर से हो रही है और लड़की भी पढ़ी-लिखी आ रही है… देखो कैसे निभती है… चाचा तो बस पांचवी तक पढ़े थे, चाची आठवीं पास आ रही थी। जब दादी मां बहू को देखने गई तो मैं भी उनके साथ देखने गई। सुंदर सलोनी चाची मुझे बहुत अच्छी लगी। सलीके से साड़ी पहनी थी उसी के मैच का ब्लाउज था। बाल लंबे लंबे खुले थे। मुस्कुराकर घुंघट में ही सबका स्वागत कर रही थी। जब दादी घर आई तो मां ने पूछा कैसी है बहू रानी? तो दादी मां से पहले मैं ही बोल पड़ी - चाची बहुत अच्छी है…!
हमारे घर के सामने चाचा का घेर था। कुछ दिन बाद मैंने चाची को वहीं देखा तो मैं दौड़कर उनके पास गई और बोली चाची तुमने मुझे पहचाना… मैं महिमा हूं सामने के घर में रहती हूं।
- हां बीवी मैंने तुम्हें पहचान लिया, तुम बहुत अच्छी हो।
- नहीं, तुम अच्छी हो मैंने मां को भी बताया था, लेकिन तुम घेर में क्या करने आई हो?
- मैं उपले बनाया करूंगी… तो जगह देखने, साफ करने आई हूं सारा गोबर कूड़े में चला जाता है।
- तो तुम रोज यहां आया करोगी? मैं खुशी से उछल पड़ी !
- हां बीवी।
- तो मैं रोज तुम्हारे पास आया करूंगी।
- अच्छा… तुम्हें सचमुच अच्छी लगती हूं?
- हां चाची !
और मैं स्नेह से उनसे लिपट गई थी, उन्होंने प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरा था। फिर वह रोज गोबर थापने आने लगी। मैं भी उनके पास जा बैठती, दोनों बातें करते रहते। चाची के गोरे गोरे सुंदर हाथ गोबर में सने उपले बनाते, जो उन्हें बनाने भी नहीं आते थे फिर भी वह बनाती थी। एक दिन चाची ने पूछा- बीवी तुम स्कूल नहीं जाती, जो रोज यहां आ जाती हो? चाची, दादाजी नहीं भेजते हैं, मेरा मन तो पढ़ने को बहुत करता है… तुम तो पढ़ी हो चाची क्या मुझे पढ़ा दोगी?
- हां बीवी क्यों नहीं तुम बस किताब कॉपी पेंसिल ले आया करो।
बस मुझे तो जैसे मनचाही मुराद मिल गई थी। बीच-बीच में हाथ साफ करके लिखना भी सिखाती थीं। 3 साल में हर दिन चाची से पढ़ती रही अगर किसी कारणवश चाची घेर पर नहीं आती तो मैं उनके घर पहुंच जाती थी।
एक दिन चाची ने कहा- बीवी अब तुम पांचवी की परीक्षा दे दो।
- परीक्षा ?
- तुम चिंता ना करो… तुम्हारे यहाँ अखबार आता है न …
- हां
- तो बस तरकीब से दादाजी को पढ़कर सुना देना, वह खुश होकर स्वयं तुम्हें इजाजत दे देंगे।
चाची के बताए नुक्ते पर चलकर मैंने गांव रहकर आठवीं पास कर ली थी। फिर मृदुल के साथ शहर आ गई। गांव और चाची पीछे छूट गए। मैं आगे बढ़ती रही।
घर पहुंच कर थोड़ा रोना गाना हुआ। मैं मौका पाते ही उड़ चली चाची के पास… मन में जो चाची का रूप बसा था वह न पाकर मुझे लगा, मैं कहीं गलत घर में आ गई हूँ क्या…! मैंने सहमकर पूछा-
यहाँ अंगूरी चाची थी, वह कहां है?
- बीवी मैं ही तुम्हारी चाची हूं ।
- चाची तुम! और मैं उनसे लिपट गई।
- इतना प्यार मत दो बीवी मैं इसके लायक कहां हूं?
- क्यों चाची… क्या समय के साथ प्यार बदल जाता है? मैं तो तुम्हें गुरु मानकर तुम्हारी पूजा करती हूं। तुम ही थी जिसने मेरे जीवन में अक्षर ज्ञान की नींव रखी थी, मैं तुम्हें कभी बिसरा नहीं सकती… हां जीवन चक्र में उलझ कर जरूर रह गई, जो तुम्हें धन्यवाद देने भी नहीं आई… लेकिन मैं मन से तुम्हें पूजती हूं। अब मैं कुछ दिन यहां रुक कर तुमसे जीवन के अनुभव बांटुंगी।
चाची हंसी और बोली- बीवी अब तो तुम मुझे सिखाओ… जीवन संघर्ष से बच निकलना। मैं तो अब थक गई हूं, दुनिया चक्र से.. तुम ही मुझे रास्ता दिखाओ, तुम पढ़ लिखकर विद्वान बन गई हो।
-चाची जी तुम तो बड़ी चतुर और साहसी थी अब ऐसी हारी हारी बातें क्यों करती हो?
- बीवी जब अपने ही तोड़ने लगते हैं तो कितना भी साहस हो, दम तोड़ देता है।
-ऐसा क्यों होता है चाची? तनिक आराम से बताओ.. तुम्हारे अनुभव मेरे भी काम आएंगे।
- बीवी तुम्हें तो सब मालूम है कि जब मैं यहां आई थी तो इस घर की क्या हालत थी… सारी जमीन ठाकुर के यहां गिरवी पड़ी थी, खाने तक को अनाज नहीं बचता था। सब आधा पेट ही खाते थे। यह हालत देखकर मैंने घर बाहर कड़ी मेहनत की और लिख लिख कर ठाकुर से हिसाब रखकर 6 साल में जमीन छुड़ाई। नंद देवर को पढ़ाया, शादी की। फिर अपनी औलाद हो गई उन्हें पालने पोसने में लगी रही। भरत और विराट बाहर सर्विस पर चले गए हैं। उनका जब कोई काम होता है, तो मेरी याद आती है। काम निकलते ही गांव छोड़ जाते हैं। कभी मां के दुख-सुख की बात नहीं पूछते। सब अपनी गृहस्थी में मस्त है। इतने बिरवे सींचे… दो पेड़ भी उगाये पर आज अंगुली भर छाया को तरस रही हूं। अब तो मैंने जीवन की गति ही मोड़ दी है। घर में ही प्रौढ़ शिक्षा केंद्र खोल लिया है। बस उसके सहारे दिन अच्छा गुजर जाता है।
- चाची दिशाहीनों को दिशा दे सको, इससे अच्छा तो कोई और काम हो ही नहीं सकता है। अब तक अपनों को संवारा है, अब थोड़ा समाज की प्रगति में भी आप जैसी कर्मठ महिलाओं का योगदान होना जरूरी है। चाचा का क्या हाल है वह क्या करते रहते हैं?
- अरे बीबी वह तो पूरे साहूकार हो गए हैं, अब उन जैसा कोई होशियार नहीं है। हर समय दो के चार बनाने के चक्कर में लगे रहते हैं। हर समय मुझ पर भी रोक-टोक लगाए रहते हैं। उन्हें तो बस मेरे पीहर वालों से चिढ़ रही हमेशा… यही चाहते रहे कि मैं उन्हें छोड़ दूं। बीवी लड़की को तो दोनों ही घर चाहिए ना! पीहर छोड़ बने ना ससुराल। मैं तो ऐसा समझी हूं कि ससुराल कर्मभूमि है तो मायका सरल और तरल भूमि है जहां जाकर हम मन और तन को हल्का कर लेते है… बीवी जो बहुत जरूरी है अगर हम सिर्फ काम में ही लिप्त रहें तो एक दिन थककर जरूर विचलित हो जाएंगे, मन टूट जाएगा, तन टूट जाएगा। लेकिन तुम्हारे चाचा इस बात को नहीं मानते, क्योंकि उन्हें तो अपना घर परिवार छोड़ना नहीं पड़ा ना, पर नारी मन की व्यथा को कैसे समझे… तन पर तो अधिकार पाना संभव है उसे तो पशु समान कहीं भी बांध दो, पर मानव मन तो सर्वदा चंचल है जो तन के साथ बांधने पर भी नहीं बंधता । बीवी कैसे बांधे मन, जरा सोचो तुम मां की कोख ढला, बचपन बाप के दुलार में बीता, भाई बहनों के साथ खेल कर बड़े हुए… उन सबको भूल पाना क्या संभव है! बीवी यह तो तन से प्राण जुदा करने वाली बात हुई, हमेशा तो घर गृहस्थी में लगे ही रहते हैं… कभी साल दो साल में या विवाह- परोजन में ही जाना होता है, उस पर भी पाबंदी हो तो नहीं चलेगी।
एक बार मेरी बहन की शादी थी। भैया लेने आए। इन्होंने मना कर दिया- नहीं जाना है पर मैं नहीं रुकी, चली गई। स्वयं नहीं पहुंचे शादी में… जब मैं लौट कर आई तो बोले- क्यों आई वही रहती.. करे खसम के पास, जहां बिना पूछे चली गई थी।
- बीबी क्यों ना आती, घर तो घरवाली का होता है, फिर ब्याह कर आई थी कोई भाग कर तो नहीं आई पर मैं पशु की तरह बंधकर नहीं रहुंगी। मैं जिंदा मानव मन हूं जो भावना प्रधान है। जब से बीवी मैं यहां और वह दुष्ट घर में रहता है।
- चाची इस बात को कितने दिन हो गए हैं?
- बीवी अब एक महीने बाद 10 साल पूरे हो जाएंगे।
- कैसा लगता है चाची गांव के लोग--- और शब्द मेरे गले में ही अटक गए।
- ठीक लगता है बीवी दासता का पट्टा मैंने उखाड़ फेंका है, अब मन से सब डर निकाल दिए हैं। गांव वालों की बहू बेटी मेरे पास पढ़ने या काम सीखने खूब आती हैं जिससे मैंने खाने लायक पैसा और आत्म संतोष अर्जित किया है।
- सच चाची तुम तो बड़ी साहसी हो अब मैंने तुम्हें अनुभवों का गुरु मान लिया है तुम मेरी आदर्श हो चाची।
घर जाकर आज की आधुनिक संघर्ष करती नारी से चाची की तुलना करने लगी। चाची कहीं भी कम नहीं लगी। भोली और सरल दिखने वाली चाची में अपनी लड़ाई लड़ने का आत्म बल था। वह स्वयं स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता रखी थी।
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