शून्यता से संवाद की ओर

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शून्यता से संवाद की ओर कभी सोचा है, इंसान जितना आधुनिक होता जा रहा है, उतना ही भीतर से टूटता जा रहा है। तकनीक, सुविधा और उपलब्धियों की चकाचौंध में कह

शून्यता से संवाद की ओर


भी सोचा है, इंसान जितना आधुनिक होता जा रहा है, उतना ही भीतर से टूटता जा रहा है। तकनीक, सुविधा और उपलब्धियों की चकाचौंध में कहीं कुछ बहुत कीमती पीछे छूटता जा रहा है—संवेदनाएँ, संवाद और सहारा।कभी कभी लगता है — हम दौड़ तो बहुत रहे हैं, पर जा कहाँ रहे हैं? आधुनिकता के इस तेज़ रफ्तार दौर में इंसान की रफ़्तार तो बढ़ी है, मगर रिश्तों की गर्माहट, संवाद की मधुरता और दिलों की नज़दीकियाँ कहीं पीछे छूटती जा रही हैं।

शून्यता से संवाद की ओर
हाल ही में महाराष्ट्र के नाशिक से एक ऐसी खबर आई, जिसने संवेदनशील हृदयों को झकझोर कर रख दिया। 78 वर्षीय सेवानिवृत्त प्राचार्य ने अपनी 76 वर्षीय पत्नी का गला घोंटकर उनकी हत्या कर दी, और फिर खुद आत्महत्या कर ली। दोनों ही शिक्षा क्षेत्र की प्रतिष्ठित हस्तियाँ थीं। एक ज़माना था जब उन्होंने सैकड़ों बच्चों को जीवन का पाठ पढ़ाया होगा, चरित्र निर्माण किया होगा, मुस्कुराना सिखाया होगा... और आज? उन्होंने खुद अपनी साँसों को थाम लिया।क्या इस घटना को केवल ‘सुसाइड पैक्ट’ कहकर छोड़ देना ही काफी है? या यह हमारे समाज की गहराई से होती जा रही संवेदनहीनता की एक दर्दनाक तस्वीर है? जब तक हम इस ख़ामोशी को सुनना नहीं सीखते, तब तक ऐसी घटनाएँ हमें जगाने आती रहेंगी।

क्या यह वही देश है जहाँ संयुक्त परिवारों में तीन पीढ़ियाँ साथ रहती थीं? क्या यह वही समाज है जहाँ बड़ों को "अनुभव का खजाना" कहा जाता था? अब बुजुर्ग अकेलेपन से जूझते हैं, मन की बात कहने के लिए कोई नहीं होता। जीवन की सांझ में, जब उन्हें सबसे ज़्यादा साथ की ज़रूरत होती है, वे दर-दर की चौखट पर नज़रें टिकाए बैठे रह जाते हैं।यह दौर सिर्फ़ आर्थिक प्रगति का नहीं है, यह रिश्तों की विफलता का भी है। हम सबने देखा है—हर किसी के मोबाइल में सैकड़ों कॉन्टैक्ट्स हैं, लेकिन दिल से बात करने वाला कोई नहीं। व्हाट्सऐप पर हज़ारों फॉरवर्डेड मैसेज हैं, लेकिन एक सच्ची चिंता जताने वाला मैसेज ढूँढना मुश्किल है।

हमें रुककर सोचना होगा। किसी को वक़्त देना सिर्फ़ ज़रूरत नहीं, एक जिम्मेदारी है। बुजुर्गों के चेहरे पर मुस्कान, बच्चों के सवालों के जवाब, और अपनों के दिल की सुनवाई—यही तो समाज की असली खूबसूरती है।कभी किसी की आँखों में झाँक कर देखिए, शायद वहाँ सन्नाटे की चीख़ दबाई हुई हो। किसी का हाथ थामिए, शायद वो गिरने से पहले आखिरी उम्मीद तलाश रहा हो।

अकेलेपन का आतंक

आज हमारे पास स्मार्टफोन हैं, स्मार्ट टीवी हैं, लेकिन ‘स्मार्ट’ रिश्ते नहीं हैं। बुजुर्गों के पास समय है, अनुभव है, कहानियाँ हैं... पर सुनने वाला कोई नहीं। बच्चों के पास सवाल हैं, उत्साह है, भावनाएँ हैं... पर समझने वाला कोई नहीं।बुजुर्ग माता-पिता जिनका पूरा जीवन बच्चों के लिए कुर्बान हो गया, वही अब "बोझ" समझे जाते हैं। उनके अनुभवों को "आउटडेटेड" कहकर दरकिनार कर दिया जाता है। किसी ने कहा था, “सबसे बड़ा दुःख है—जब सामने कोई हो, लेकिन फिर भी आप अकेले हों।”

भावनात्मक दिवालियापन

इस समय हम भौतिक रूप से समृद्ध होते जा रहे हैं, पर भावनात्मक रूप से कंगाल। ज़िंदगी में सब कुछ है—पैसा, गाड़ी, मकान, शौहरत... लेकिन जो नहीं है, वह है सुकून। कोई कंधा जो थकान में सिर रख सकें, कोई मुस्कान जो दिल से निकले, कोई आँख जो नज़रों से ही सारा दर्द पढ़ ले।

हम अपने बच्चों को महंगे स्कूलों में पढ़ा रहे हैं, पर क्या हमने उन्हें सिखाया कि दादा - दादी की बात ध्यान से सुनना भी एक ‘मूल्य शिक्षा’ है? हम उन्हें "गैजेट्स" तो दे रहे हैं, पर ‘गुज़रे ज़माने की कहानियाँ’ क्यों नहीं दे रहे?

अब भी समय है

आइए, थोड़ी देर रुकें। किसी दिन यूँ ही बिना वजह अपने माता-पिता को गले लगाएँ। बच्चों के साथ ज़मीन पर बैठकर खेलें। किसी दोस्त को बिना किसी स्वार्थ के फोन करें। और कभी—कभी किसी बुज़ुर्ग की आँखों में झाँक कर बस पूछ लें, “आप कैसे हैं?”कभी-कभी एक छोटी सी बात, किसी को जीवनदान दे देती है। किसी की तन्हाई को बाँट लेने से हमारा कुछ कम नहीं होता, पर सामने वाले के लिए वो पूरी दुनिया बन सकता है।

क्यों न हम अपना शुभकामनाएँ भेजने का तरीका भी बदलें?
फॉरवर्ड किए हुए गुलदस्तों और फूलों की इमोजी की जगह एक सच्ची मुस्कान के साथ फोन करें  और सीधे दिल से कहें—“बधाई हो! आप याद आए, इसलिए फोन किया।”शब्द जब दिल से निकलते हैं, तो स्क्रीन से ज़्यादा असर करते हैं।क्यों न हम फिर से संवाद की परंपरा शुरू करें? क्यों न रिश्तों को "टाइमपास" नहीं, "जीवनसाथी" समझें? और क्यों न हम इंसान बनकर, एक-दूसरे के दुःख-सुख के भागीदार बनें?क्योंकि वक़्त गुज़र जाता है, लेकिन जो अकेले छूट जाते हैं... उनकी तन्हाई कभी नहीं गुज़रती। क्योंकि हम किस दौर में जी रहे हैं, यह तय नहीं करता कि हम कैसे इंसान हैं। पर हम कैसे इंसान हैं, यह तय करता है कि आने वाला दौर कैसा होगा।



- आसिफ़ जारियावाला
अकोला, महाराष्ट्र ,9970880452

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