मैं मिलना चाहती हूँ, मेरे भीतर के पुरुष से

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मैं मिलना चाहती हूँ, मेरे भीतर के पुरुष से अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस: अक्क महादेवी विश्व 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मानता है। उद्देश्य यह

मैं मिलना चाहती हूँ, मेरे भीतर के पुरुष से
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस: अक्क महादेवी 


विश्व 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मानता है। उद्देश्य यह कि स्त्रियों को सुरक्षा, सम्मान, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि मिल सके। क्या यह सब कुछ पूर्णतया स्त्रियों को मिल गया है? क्या विश्व के जागने से पहले भारत में स्त्री दिवस नाम का कोई औचित्य हुआ करता था? इन प्रश्नों के उत्तर जानना भी आवश्यक है आज के इस दिन में। कन्नड़ भाषा का अस्तित्व करीब 2,500 साल पहले से है। सुदूर दक्षिण की उन महिलाओं को याद करना आवश्यक है जिन्होंने कन्नड़ साहित्य को विकसित करने में अपना सर्वस्व झोंक दिया। पंपा, रन्ना, पोन्ना, कुमारव्यास, हरिहर आदि साहित्यकारों का महत्वपूर्ण योगदान तो रहा ही है साथ ही साथ कन्नड़ की स्त्री भक्ति आंदोलन ने कन्नड़ साहित्य को अलग ही पहचान प्रदान की है। पाँचवी, छठी शताब्दी में तमिलनाडु में जन्मी भक्ति ने बाद के एक हज़ार वर्षों में भारत के विशाल भूभाग की हवा को अपनी मानवीयता, अपने माधुर्य, अपने बेलागपन और अपने क्रांतिकारी विचार-गीतों, पदों, वचनों, वाखों और साखियों की सुगंध से सराबोर कर दिया। बड़ी संख्या में स्त्रियाँ इस आंदोलन का हिस्सा बनीं, जिन्हें हम आज भी बहुत आदर, सम्मान से याद करते हैं’। अक्क महादेवी उन सबकी नेत्री बन गई। 

मैं मिलना चाहती हूँ, मेरे भीतर के पुरुष से अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस: अक्क महादेवी
अक्क महादेवी का जीवन एक मधुर संगीत-यात्रा की तरह है। वे एक अनोखे, असाधारण जीवन की अद्भुत महायात्रा को जिस तन्मयता और काव्यात्मकता से गाती हैं, वह भक्ति के मार्ग में दुर्लभ है। उनकी यात्रा एक दुनिया से चल कर दूसरी दुनिया में जाने की है, मर्त्य से अमर्त्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, समस्त भौतिक सीमाओं के पार असंभव और अनंत की ओर जाने की है। उन्हें लक्ष्य का पता है, रास्ते का नहीं। रास्ता वे स्वयं बनाती हैं’।  उनका जन्म हुआ तमिलनाडु के शिवमोगगा के उतुतडि गाँव बारहवीं शताब्दी में 1130-1150 इसवीं के बीच में हुआ। इनकी माँ का नाम सुमति और पिता का नाम निर्मल था। घर का वातावरण शैवमय था। गुरु के रूप में अक्क महादेवी को गुरु लिंगदेवारू मिलें। जिन्होंने महादेवी को शिव नाम की दीक्षा दी। महादेवी ने चेन्न मल्लिकार्जुन को ही अपना पति स्वीकार कर लिया। लेकिन समाज का दबाव या फिर नियति जो भी कहें राजा कौशिक युवा महादेवी के रूप से सम्मोहित हुआ और उनसे महादेवी को विवाह करना पड़ा। शिव प्रेम यहाँ समाप्त नहीं हुआ यहीं से तो उनकी मुक्ति और साधना का मार्ग और भी अधिक प्रशस्त हो गया। 

महादेवी ने हिम्मत करके पति का राजमहल यहाँ तक कि शरीर के वस्त्र तक को त्याग दिया। पग-पग पर बाधाओं को देखा लेकिन बिना डरे शिव प्रेम में मतवाली महादेवी आगे बढ़ती रहीं।  अवश्य ही अक्क महादेवी की जीवन गाथा भक्ति, लौकिक जीवन और अलौकिक जीवन की त्रिवेणी के संगम को दर्शाता है। अक्क महादेवी कर्नाटक के नाम के बिना कर्नाटक के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को समझना उसका अधूरा ज्ञान पाना ही है। महादेवी ने न केवल दक्षिण भारत के सामाजिक जीवन को रूढ़िग्रस्त मानसिकता से मुक्त किया था अपितु भारतीय साहित्य को भी अपने वचनों के द्वारा प्रभावित किया। जब पश्चिमी देशों में भी स्त्रियों पर अनेक तरह के बंधन थे, उन्हें पुरुषों के बराबरी के अधिकार नहीं मिले थे, उस समय 12वीं शताब्दी में बड़ी संख्या में महिलाएँ या तो अपने पतियों के साथ या पतियों को अस्वीकार कर ‘वीरशैव’ आंदोलन की छतरी के नीचे आ गयी थीं। स्त्री देह हमेशा से ही  सौन्दर्य, आकर्षण, रहस्य का विषय रहा है। राजा कौशिक भी तो युवा अक्क महादेवी के रूप सौंदर्य को देखकर ही उसे पाने के लिए पागल हो गया था। वह कहाँ समझ सका था महादेवी की साधना की शक्ति को। ‘काम मंगल से मंडित श्रेय, सर्ग इच्छा का है परिणाम’। लेकिन अमंगल काम ने हमेशा स्त्रियों का पीछा किया है, उन्हें भोग की वस्तु बनाया है, उन्हें कैद में डाला है, उनके अधिकार छीने हैं, उन्हें यातनाएं दी हैं, मारा है’।   

अक्क महादेवी ने अमंगल काम का विरोध कैसे करना है इसे अपने जीवन के द्वारा स्त्रियों को सिखाया है। कामान्ध पति ने जब ध्यानामग्न महादेवी को खींचकर अपने कक्ष की ओर ले जाने का प्रयास किया तब छीना-झपटी में महादेवी की साड़ी खींच गई। महादेवी ने साड़ी को संभालने का प्रयास नहीं किया। कौशिक के साड़ी को खींचने से वे निर्वस्त्र हो गयीं। महादेवी मुड़ी और उसी अवस्था में महल से निकल गईं। ‘केदारनाथ सिंह महादेवी की नग्नता को पुरुष वर्चस्व के विरुद्ध एक स्त्री के आक्रोश के रूप में देखते है, ‘सबसे चौंकाने और तिलमिला देने वाला तथ्य यह है कि अक्क ने सिर्फ राजमहल नहीं छोड़ा, वहाँ से निकलते समय पुरुष वर्चस्व के विरुद्ध अपने आक्रोश की अभिव्यक्ति के रूप में अपने वस्त्रों को भी उतार फेंका। यह पूरे संभ्रांत वर्ग की सुरुचि के गाल पर एक तमाचे की तरह था, जो आज भी इतिहासकारों को विचलित करता है। पर अंतत: स्त्री को पुरुष नेत्रों का सामना तो करना था। कहते हैं, अक्क ने इसका समाधान यह निकाला कि वह अपनी नग्नता को अपने लंबे-लंबे केशों से ढँक लिया’।‘जिसके चलते उनका नाम ‘केशांबरा’ पड़ गया था। एक महायात्रा पूरी हुई। एक इतिहास का जन्म हुआ।  
                                

- डॉ. सुपर्णा मुखर्जी 
हैदराबाद

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