जूठन आत्मकथा में दलित जीवन का यथार्थ ओमप्रकाश वाल्मीकि हिंदी साहित्य में दलित साहित्य की एक महत्वपूर्ण कृति मानी जाती है। जूठन में लेखक ने अपने बचपन स
जूठन आत्मकथा में दलित जीवन का यथार्थ | ओमप्रकाश वाल्मीकि
जूठन ओमप्रकाश वाल्मीकि द्वारा लिखित एक आत्मकथा है। इसमें उन्होंने दलित जीवन के यथार्थ को दर्शाया है। यह आत्मकथा हिंदी साहित्य में दलित साहित्य की एक महत्वपूर्ण कृति मानी जाती है। जूठन में लेखक ने अपने बचपन से लेकर युवावस्था तक के अनुभवों का वर्णन किया है। उन्होंने जातिवाद, गरीबी, उत्पीड़न, शिक्षा और सामाजिक बहिष्कार जैसे मुद्दों पर अपनी राय रखी है।
सदियों से भारतीय समाज में दलितों को मानव द्वारा निर्मित तीन तत्त्व धर्म, सामाजिक परिवेश और शिक्षा से वंचित रखा जाना वास्तव में एक भयंकर त्रासदी है। आत्मकथाओं में इन समस्याओं का विश्लेषण हुआ है। सामाजिक समस्याएँ दलितों में असंतोष से आरंभ होती है। जब दलित यह महसूस करने लगा कि उसके हिस्से में जो मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पा रहा है, वह हर क्षेत्र में दूसरों से वंचित समझने लगा, तभी वह अपने अधिकार को संघर्ष से प्राप्त करने की कोशिश करता है। हिंदी के वरिष्ठ दलित लेखक मोहनदास नैमिशराय की आत्मकथा 'अपने-अपने पिंजरे' के प्रकाशन के ठीक दो वर्षों बाद हिंदी दलित आत्मकथाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि द्वारा लिखित 'जूठन' का प्रकाशन हिंदी दलित साहित्य का गौरव माना जाता है। सन् 1997 में राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा दलित आत्मकथाओं में एक पुष्प पिरोया गया था, जिसकी खुशबू पूरे साहित्य जगत को सुरभित कर गई।
'जूठन' आत्मकथा में लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि स्वयं दलित भंगी-वाल्मीकि समुदाय से हैं। आत्मकथा में ओमप्रकाश वाल्मीकि ने निजी एवं जातिगत समस्याओं के सभी कड़वे यथार्थ का पर्दाफाश किया जो हमें सोचने पर विवश करते हैं।
'जूठन' की कथावस्तु का प्रारंभ बालक वाल्मीकि के प्राथमिक विद्यालय में पढ़ने एवं सवर्ण गुरु के असभ्य व्यवहार से होता है। गुरु का यह व्यवहार इसलिए था कि ओमप्रकाश 'चूहड़े' जाति के थे; जो दलित होने से मानव मैला ढोने का कार्य करती है। उत्तर प्रदेश में चूहड़ा एक जाति है जिसे भंगी भी कहा जाता है। समस्त 'जूठन' में भंगी समाज की दर्दनाक पीड़ा का यथार्थ चित्रण मिलता है। इस आत्मकथा में "अबे ओ चूहड़े के....ओ चूहड़े, कितना भी पढ़ लिख ले... रहेगा तो चूहड़ा ही। पढ़-लिखकर पर निकल आये हैं चूहड़े के....ओ सुअर खाने वाले, भंगी कहीं का आदि प्रताड़नाएँ सुनने को मिलती हैं। यह सब सुनने पर भी एक मासूम बालक ओमप्रकाश हर वक्त इसे नजरअंदाज करने का प्रयास करता है। छात्र ओमप्रकाश को इस जिल्लत से तब छुटकारा मिला जब उनके पिताजी ने साहस का परिचय देते हुए हेड मास्टर के दुर्व्यवहार- का सामना किया।
जूठन आत्मकथा में अभिव्यक्त दलित चेतना निम्नांकित हैं -
शिक्षा में भेदभाव
उत्तर प्रदेश के बरला गाँव में जन्मे ओमप्रकाश की प्राथमिक शिक्षा का आरंभ अपने गाँव से हुआ। लेखक जिस बस्ती में रहते थे, उस बस्ती में एक ईसाई आते हैं। उनका नाम 'राम मसीहा' था और वह चूहड़ों के बच्चों को घेरकर बैठ जाते थे और उन्हें पढ़ना-लिखना सिखाते। सरकारी स्कूलों में तो उन्हें कोई घुसने तक नहीं देता था। इसलिए उनके पास ही इन्हें भेजा जाता था। सेवक राम मसीहा ने खुले में बिन कमरों के, बिना टाटा-चटाई वाले स्कूल में अक्षर का ज्ञान देना शुरू किया था। कुछ दिनों बाद सेवकराम और ओमप्रकाश के पिताजी छोटनलाल में कुछ खटपट हो गई थी, जिस कारण उन्होंने ओमप्रकाश को पढ़ाना छोड़ दिया था। बाद में पिताजी ने उन्हें बेसिक प्राइमरी विद्यालय में दाखिला देने का विचार किया, जहाँ पाँचवी कक्षा तक का अध्ययन होता था, वहीं मास्टर हरफूल सिंह थे। उनसे पिताजी ने कहा- "मास्टर जी, थोरी मेहरबानी हो जागी म्हारे जातक (बच्चा) कू बी दो अक्षर सिंखो दोगे।"
काफी चक्कर काटने के बाद एक दिन ओमप्रकाश को उसी स्कूल में दाखिला मिल गया। तब भारत को आजादी मिले आठ साल हो गये थे। गाँधी द्वारा दी गई अछूतोद्धार की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ी थी। सरकारी स्कूलों के दरवाजे अछूतों के लिए खुलने आरंभ हो गये थे, लेकिन जनसामान्य की मानसिकता में कोई विशेष बदलाव नहीं आया था। लेखक को स्कूल में दूसरों से दूर बैठना पड़ता था और वह भी जमीन पर । स्कूल में त्यागियों के बच्चे उन्हें 'चूहड़े का' कहकर चिढ़ाते थे। कभी-कभी बेवजह पिटाई करते थे। कथा में रामसिंह जाति से चमार था और सुक्ख़न सिंह झीवर। दोनों ओमप्रकाश के दोस्त बन गये थे। इन्हीं के साथ ओमप्रकाश ने बचपन के खट्टे-मीठे अनुभव समेटे थे। ये दोनों भी पढ़ने में सबसे आगे थे लेकिन जाति का छोटापन उन्हें भी कदम-कदम पर छलता रहा।
साफ-सुथरे कपड़े पहनकर जाते तो भी प्रताड़ित होना पड़ता और पुराने-फटे कपड़े पहनकर स्कूल जाएँ तो भी प्रताड़ित किया जाता था। एक दिन हेडमास्टर साहब ने ओमप्रकाश को कमरे में बुलाकर कहा-क्या नाम है तेरा ? चूहड़े का है? जब लेखक ओमप्रकाश ने 'हाँ' कहकर गर्दन हिलाई तब उन्होंने पूरे स्कूल में झाडू लगाने को कहा। मास्टर साहब के आदेश पर उसने पूरे स्कूल के कमरे, बरामदे को साफ कर दिया था। यह देखकर कि इतनी जल्दी इसने पूरी सफाई की, तो उससे स्कूल का मैदान भी साफ करा दिया। इतने पर भी हेड मास्टर को तसल्ली नहीं हुई तो दूसरे दिन भी उससे झाडू लगाने को कहा।
ओमप्रकाश के झाडू लगाने की खबर जब पिताजी को लगी तो वे स्कूल में आकर बोले-‘“कौन-सा मास्टर है वो, द्रोणाचार्य की औलाद जो मेरे लड़के से झाडू लगवावे है।" पिताजी की आवाज को सुनकर हेडमास्टर ने कक्षा के बाहर आकर तेज शब्दों में कहा-" ले जा इसे यहाँ से.... चूहड़ा होके पढ़ाने चला है.... जा चला जा... नहीं तो हाड़-गोड़ तुड़वा दूँगा।" इस समय पिताजी ने उनका हाथ पकड़ते हुए कहा- "मास्टर हो इसलिए जा रहा हूँ.....पर इतना याद रखिए मास्टर.... पर इतना याद रखिए मास्टर.... ये चूहड़े का यहीं पढ़ेगा... इसी मदरसे में.... और यो ही नहीं.... इसके साथ और भी आवे पढ़ने कू।"
इस प्रकार ओमप्रकाश के पिताजी की प्रतिकार करने की शक्ति ने उनका हौसला बढ़ाया। स्कूल के हेडमास्टर कालिराम की शिकायत लेकर लेखक के पिताजी ने गाँव के मुखिया का दरवाजा खटखटाया पर उन्हें उत्तर मिला-"क्या करोगे स्कूल भेज के या... कौवा भी कभी हंस बन सके, तुम अनपढ़ गँवार लोग क्या जानो ? विद्या ऐसे हासिल न होती.... अरे चूहड़े के जातक कू झाडू लगाने क्रू कह दिया तो कौन-सा जुल्म हो गया ? या फिर झाडू तो लगवाई है, द्रोणाचार्य के तरियो गुरु दक्षिणा में अँगूठा तो नहीं माँगा।"
इस प्रकार लेखक को किसी प्रकार प्राइमरी स्कूल में दिन गुजारने पड़े जो अन्याय से भरे थे।
बस्ती के बाहर जीने का साहस
सदियों से दलितों की बस्ती हमेशा गाँव के बाहर ही रही है। इसी कारण ओमप्रकाश वाल्मीकि जाति से चूहड़ा होने के कारण इनका निवास भी बस्ती के बाहर किसी गंदे नाले के किनारे पर है। ओमप्रकाश लिखते हैं कि 'बरला' गाँव में उनका घर चंद्रभान तगा के घर से सटा हुआ था। उनके बाजू में कुछ मुसलमान जुलाहे रहते थे। घर के सामने छोटी सी जोहड़ी थी, जिसने उनके बीच एक फासला बना दिया था। जोहड़ी को डब्बोवाली भी कहते थे। डब्बोवाली के एक तरफ तगाओं के पक्के मकान की ऊँची दीवारें थीं। जोहड़ी के किनारे पर चूहड़ों के मकान थे, जहाँ पर पूरे गाँव भर की औरतें टट्टी-फरागत के लिए बैठ जाती थीं। रात के अँधेरे में ही नहीं दिन के उजाले में भी पर्दों में रहने वाली त्यागी महिलायें सार्वजनिक खुले शौचालय में निवृत्ति पाती थी।
इस तरह गंदे जगह पर उनका घर था। चारों तरफ गंदगी भरी होती थी। ऐसी दुर्गंध कि दिन भर में साँस घुट जाए। साथ ही तंग गलियों में घुसते सुअर, नंग-धडंग बच्चे, कुत्ते, रोजमर्रा के झगड़े ऐसा वातावरण था जिसमें ओमप्रकाश वाल्मीकि का बचपन बीता। इस माहौल में यदि वर्ण व्यवस्था को आदर्श व्यवस्था कहने वाले को दो-चार दिन रहना पड़ जाए तो उनकी राय बदल जाएगी। छुआछूत की तो ऐसी स्थिति थी कि कुत्ते-बिल्ली, गाय-भैंसों को छूना बुरा नहीं था लेकिन यदि चूहड़े का स्पर्श हो जाए तो पाप लग जाता था। सामाजिक स्तर पर इन्सानी दर्जा बिल्कुल नहीं था।
दलितों का अंतर्विरोध
ओमप्रकाश वाल्मीकि चूहड़े जाति से हैं। दलितों में यह जाति सबसे निचली माना जाती थी। वैसे चमार जाति का पायदान इनसे ऊपर था । लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं-" भंगी समाज जिसे आज वाल्मीकि समाज के नाम से जाना जाता है, के मन में यह बात बैठ चुकी है, जिसके कारण वे हीन-ग्रंथियों के शिकार हैं। समाज की उपेक्षा और प्रताड़ता ने उनमें इस तरह हीनता-बोध भर दिया है कि वाल्मीकि परिवार में जन्मे उच्च शिक्षित, उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त व्यक्ति भी अपनी पहचान छिपा कर रखता है।" दलित जातियों में भी परस्पर मेल-मिलाप नहीं है लेखक स्कूल से स्काउट में मिली वर्दी को धोकर उस पर इस्तरी कराने के लिए धोबी के पास जाता है। उसे देखते ही धोबी चिल्लाया- "अबे चूहड़े के किये घुसा आ रहा है?" वर्दी पर इस्तरी करानी है-लेखक ने कहा। तब धोबी ने कहा-"हम चूहड़े-चमारों के कपड़े नहीं धोते, न ही इस्तरी करते हैं। जो तेरे कपड़े पे इस्तरी कर देंगे तो लोग हमसे कपड़े न धुलवायेंगे, म्हारी तो रोजी-रोटी चली जायेगी।" यद्यपि धोबी भी शूद्र जाति में आते हैं पर वह जाति चूहड़ा-चमारों से ऊपर के पायदान पर होने के कारण दलितों में अंतर्विरोध के दर्शन होते हैं। चूहड़ा जाति की नारी तो दोहरा अभिशाप झेलती है।
चूहड़ा जाति में विधवा विवाह का समर्थन किया गया है। हिंदू परंपराओं की तरह विधवा विवाह हीन दृष्टि से नहीं देखा जाता था। लेखक के भाई सुखबीर का निधन होने पर उनके ससुर ने अपनी विधवा बेटी का रिश्ता सुखबीर के छोटे भाई जसबीर से कर दिया था, जिसे सामाजिक तौर पर सभी ने स्वीकृति दे दी थी। पीने के पानी की समस्या थी। बस्ती में चंदा इकट्ठा करके एक कुआँ बनवाया था। बरसात के दिनों में कुएँ के पानी में लंबे-लंबे कीड़े हो जाते थे, उस पानी को पीना मजबूरी थी क्योंकि तगाओ (सवर्ण) के कुएँ से पानी लेने का उन्हें अधिकार नहीं था।
अंधश्रद्धा
चूहड़ा जाति में शिक्षा का अभाव होने के कारण कई प्रसंग में अंधश्रद्धा का बोलबाला दिखाई पड़ता है। भूत-प्रेत की छाया, देवी-देवताओं की पूजा में सुअर, मुर्गे, बकरे और शराब चढ़ाई जाती थी। भगत के शरीर में देवी-देवता प्रकट हो जाने पर बीमारी का इलाज कराया जाना सामान्य बात है। दवा-दारू करने के बजाय भूत-प्रेत की छाया से छुटकारा पाने के लिए झाड़-फूँक, ताबीज, गंडे, भभूत आदि का उपयोग किया जाता है।
कुप्रथाएँ
चूहड़ा जाति में कुप्रथाओं का प्रचलन था, जिसमें सलाम की प्रथा में यह प्रावधान था कि विवाह के बाद दूल्हा-दुल्हन सारे गाँव में घूमकर सवर्ण के घर जाकर 'सलाम' करते हैं, पैर छूने पर बदले में कोई कपड़ा या बर्तन दिया जाता था। कपड़ा या बर्तन देते समय किसी-किसी का व्यवहार बेहद रूखा और अपमानजनक होता था । प्रत्येक घर के सामने खड़े होकर जोर-जोर से ढोल बजाया जाता, जिसकी आवाज सुनकर औरतें-लड़कियाँ बाहर आती थीं। हिंरमसिंह की शादी पर उसकी सास कहती- "चौधराइन, मेरी कोई दो-चार लौंडी तो है नहीं जो मेरे और जमाई थारे दरवाजे पे आवेंगे। इज्जत से लड़की को भेज सकूँ ऐसा तो कुछ दो...।"
इस प्रथा को देखने में साधारण सी बात लगती है, लेकिन दूल्हा या दुल्हन, शादी के पहले ही दिन उनमें हीनता-बोध भर दिया जाता था। इस प्रथा का विरोध ओमप्रकाश जी ने किया है।
आर्थिक समस्याएँ
लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि दलित जाति में पैदा हुए। दरिद्रता इनकी पहचान है। दिन भर गाँव में साफ-सफाई का काम, मानव मैला ढोते-ढोते सदियों से उपेक्षित जाति की आर्थिक स्थिति बहुत ही खराब थी। बेगार पर काम करना, बदले में उच्च जातियों के घरों में रूखी-सूखी रोटी और '' पर पेट भरना, यही इनका भाग्य था। गरीबी के कारण सवर्णों के घर-घर 'जूठन' खाने को विवश वाल्मीकि जाति की व्यथा कथा को लेखक ने उजागर किया है।
'जूठन' में ओमप्रकाश जी ने अपने बचपन से लेकर नौकरी तक की उन समस्त पीड़ाओं, समस्याओं का वर्णन किया है जो उन्हें दलित होने के कारण झेलनी पड़ीं। गाँव में साफ-सफाई और मैला ढोने पर 'जूठन' मिलती थी, उस पर गुजारा करना पड़ता था बेगार की प्रथा ने जाति की कमर तोड़ दी थी। सवर्ण लोग कोई भी काम बिना रुपयों के हक से करवाते थे। आर्थिक हालात अच्छे न होने के कारण मरे हुए जानवर की खाल निकालकर उसे बाजार में जाकर बेचना, सुअर पालना, बौने (सुअर का बच्चा) की ग्राहक के आदेश पर हत्या करना इत्यादि नृशंस काम करने पड़ते। फिर भी को जिंदगी भर रोटी, कपड़ा और मकान के लिए संघर्ष करना पड़ता। इस प्रकार लेखक जाति ने दलित जीवन की विभिन्न समस्याओं को इस आत्मकथा में व्यक्त किया है।
इस प्रकार जूठन आत्मकथा दलित जीवन के यथार्थ का एक जीता जागता उदाहरण है। यह हमें बताता है कि दलितों को किस तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता था। यह आत्मकथा हमें जातिवाद के खिलाफ आवाज उठाने और दलितों के अधिकारों के लिए लड़ने के लिए प्रेरित करती है। जूठन हिंदी साहित्य में दलित साहित्य की एक महत्वपूर्ण कृति है। यह आत्मकथा दलित जीवन के यथार्थ का एक दस्तावेज है।
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