भारतीय साहित्य की आधुनिक समीक्षा की विवेचना

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भारतीय साहित्य की आधुनिक समीक्षा की विवेचना भारतीय साहित्य की आधुनिक समीक्षा एक ऐसा विषय है जो साहित्य के माध्यम से समाज, संस्कृति और मानवीय मूल्यों

भारतीय साहित्य की आधुनिक समीक्षा की विवेचना


भारतीय साहित्य की आधुनिक समीक्षा एक ऐसा विषय है जो साहित्य के माध्यम से समाज, संस्कृति और मानवीय मूल्यों को समझने का प्रयास करता है। आधुनिक समीक्षा के अंतर्गत साहित्य को केवल कलात्मक अभिव्यक्ति के रूप में ही नहीं, बल्कि एक सामाजिक दस्तावेज़ के रूप में भी देखा जाता है। यह समीक्षा पद्धति साहित्य को उसके ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ में रखकर विश्लेषण करती है, जिससे साहित्य के माध्यम से समकालीन समस्याओं और चुनौतियों को समझने में मदद मिलती है।

आधुनिक समीक्षा का जन्म उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से मानना चाहिए। आधुनिक भारत और आधुनिक भारतीय संस्कृति तथा साहित्य के आविर्भाव का भी यही समय है। इस काल में ब्रिटिश शासन की स्थापना के बाद ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गयी, जिनके कारण सर्जना के साथ-साथ समीक्षा की प्रवृत्ति को भी प्रेरणा प्राप्त हुई। पाश्चात्य साहित्य-संस्कृति के साथ सम्पर्क और संघर्ष के फलस्वरूप वैज्ञानिक चिंतन का जन्म हुआ, जिसके द्वारा भारतीय मनीषा ने अतीत एवं वर्तमान का ऐतिहासिक पर्यवेक्षण आरम्भ कर दिया और इस प्रकार समस्त देश में एक नई सांस्कृतिक जागरण की चेतना व्याप्त हो गयी। मुद्रण-कला के आयात से नवीन ज्ञान-विज्ञान का प्रसार बड़े वेग से हुआ, जिसके लिए गद्य का विकास अनिवार्य हो गया। ईसाई मिशनरियों ने धर्म के प्रचार के लिए और ब्रिटिश शासक-वर्ग ने और तन्त्र को सुदृढ़ करने के लिए शिक्षा का पुनर्गठन किया-अंग्रेजी ज्ञान-विज्ञान से गर्भित पाठ्यक्रम का आयोजन किया गया और भारत का प्रबुद्ध नागरिक-वर्ग अंग्रेजी काव्यादि के अलावा समीक्षा-साहित्य के सम्पर्क में भी आया। उत्तर-मध्य युग में भारतीय साहित्य का जीवन के साथ जो सम्बन्ध टूट गया था, वह फिर से स्थापित हुआ। ये सभी परिस्थितियाँ ऐसी थीं जिनसे समीक्षात्मक दृष्टि का उन्मेष हुआ और भारतीय भाषाओं में समीक्षा-साहित्य की रचना के लिए प्रेरणा मिली। 

आरम्भिक समीक्षा के अनेक रूप

प्रायः सभी भाषाओं में प्रारम्भिक समीक्षा के निम्नोक्त रूप मिलते हैं- 
  • नव-प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं में नवीन विधाओं एवं तात्कालिक साहित्य-प्रवृत्तियों पर टिप्पणियाँ ।
  • समसामयिक प्रकाशनों की समीक्षा। 
  • प्राचीन कालजयी ग्रंथों का विवेचन। 
  • सिद्धान्त-कथन-पाश्चात्य सिद्धान्तों का आयातः संस्कृत काव्य-सिद्धान्तों का उद्धरण। 
  • सांस्कृतिक (धार्मिक-सामाजिक) विषयों पर टिप्पणी और साहित्य के साथ सामयिक परिवेश के सम्बन्ध का संकेत।
 
मराठी में विष्णुशास्त्री चिपलूणकर, मो. ग. आगरकर और प्रसिद्ध राष्ट्र नेता बाल गंगाधर तिलक ने 'केसरी' पत्र के माध्यम से आधुनिक समीक्षा का सूत्रपात्र किया। इनमें चिपलूणकर का योगदान सर्वाधिक है। उन्होंने संस्कृत के प्रसिद्ध कवियों-कालिदास, भवभूति, बाण, सुबंधु और दण्डी का, अंग्रेजी काव्य-सिद्धान्तों हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल का इतिहास लिखते समय हमारे सामने यह समस्या उत्पन्न होती है कि किस साहित्यकार को इतिहास में स्थान दिया जाये और किसकी उपेक्षा की जाए, क्योंकि आजकल साहित्य के प्रत्येक क्षेत्र में नित्य नये रचनाकार उभरकर आ रहे हैं और प्रायः प्रत्येक कवि युग-प्रवर्तक, अमर-रचनाकार आदि होने का दावेदार बनता है। इस सन्दर्भ में हमारा सुझाव है कि समाज की चेतना पर रचनाकार के प्रभाव का निर्णय भविष्य करेगा। अतः इतिहास के केवल दिवंगत रचनाकारों को ही स्थान दिया जा सकता है। ऐसा करते हुए हमें कुछ महत्वपूर्ण एवं सर्वमान्य रचनाकारों की उपेक्षा करनी पड़ सकती है। यह भी हो सकता है कि इतिहास के साथ परिशिष्ट के रूप में हम वर्तमान कवियों के विवरण की एक तालिका जोड़ दें जिनके महत्व आदि पर भविष्य के इतिहास लेखक विचार कर सकते हैं। हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में अनेक शोध प्रबन्ध सामने आ रहे हैं। इनमें कुछ प्रतिशत तो उपयोगी होंगे ही। तब समस्या यह है कि नित्य नई उपलब्ध सामग्री को साहित्य के इतिहास में किस प्रकार सम्मिलित किया जाए। 
उर्दू को हिन्दी की शैली मानने वाले कवियों की कमी नहीं है। तब समझा यह है कि उर्दू के रचनाकारों को हिन्दी साहित्य के इतिहास में स्थान दिया जाए अथवा नहीं और यदि दिया जाए तो किस रूप में और क्रिस सीमा तक। हमने अभी तक पं. श्रद्धाराम फुल्लौरी, पं. माधव प्रसाद मिश्र आदि साहित्यकारों तथा अनेक अल्पज्ञात रचनाकारों का सम्यक् मूल्यांकन नहीं किया है। आवश्यकता है इनका सम्यक् मूल्यांकन करके हिन्दी में रचित साहित्यिक ग्रन्थों के अध्ययन की भी समस्या हमारे सामने है।
 
भारतीय साहित्य की आधुनिक समीक्षा की विवेचना
पद्य का इतिहास लिखते समय हमने परिनिष्ठित काव्य पर ही विचार किया है, लोक साहित्य और उसके रचनाकारों की उपेक्षा की है। प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या हिन्दी साहित्य तथा कथित शिष्ट नगर-निवासियों तक ही सीमित है। तब हमारे सामने लोक-साहित्य, लोक-गीत, लोक-नाट्य, स्वांग आदि को हिन्दी साहित्य के इतिहास में स्थान देने या न देने की समस्या उपस्थित होती है। इस ओर विचार विनिमय अपेक्षित है, क्योंकि पिछले 50-60 वर्षों में लोक-साहित्य के क्षेत्र में संकलन एवं शोध का कार्य बहुत ही व्यापक स्तर पर हुआ है। सन् 1857 में होने वाले प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में अब तक की कालावधि का आधुनिक काल कहा जाता है। आधुनिक काव्य द्वारा खड़ी बोली में रचित साहित्य बोध होता है। परन्तु हमने यह विचार नहीं किया है कि 18वीं शताब्दी में हमारे ग्रामीण अंचल में हिन्दी साहित्य का कितना प्रचार था तथा ग्रामीण जनमानस की रुचि कितनी परिष्कृत थी। हमें हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखते समय इस ओर ध्यान देना चाहिए ब्रह्म साहब द्वारा संकलित 'हिन्दी कविता संग्रह' तथा पद्यभूषण पं. श्री नारायण चतुर्वेदी द्वारा लिखित आधुनिक हिन्दी गद्य का आदिकाल सदृश्य पुस्तकों की खोज करके आधुनिक काल की इस छूटी हुई कड़ियों को जोड़कर हिन्दी साहित्य के इतिहास की एक बहुत बड़ी कमी को पूरा करना चाहिए। हम देखेंगे कि हमारी ग्रामीण जनता उतनी नहीं थी जितना अनपढ़ हम उसको मान बैठें हैं। पं. श्री नारायण चतुर्वेदी प्रणीत आधुनिक काल के गद्य का आदिकाल पढ़ने पर हम यह भी देख सकते हैं कि सन् 1857 ई. के पूर्व ही खड़ी बोली एक निश्चित रूप ग्रहण कर चुकी थी, बहुत कुछ वर्तमान खड़ी बोली का रूप ।
 
हमें काँगड़ा शैली के चित्रों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। इन चित्रों से सम्बन्धित गुरुमुखी एवं नागरी लिपियों में ब्रजभाषा के अनेक छन्द लिखे हुए हैं। उनका अध्ययन ब्रजभाषा काव्य के पुनर्मूल्यांकन में सहायक-सिद्ध होगा। हो सकता है कि हम इस निष्कर्ष को भी प्राप्त कर सकें कि आधुनिक काल के पुनर्जागरण में ब्रजभाषा-काव्य का कितना योगदान रहा।
 
भारतेन्दु युग में प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं में प्रकाशित सम्पूर्ण सामग्री को अभी तक हिन्दी साहित्य के इतिहास में शामिल नहीं किया गया है। हमारे विचार से उसमें देशभक्ति की भावना उसमें कहीं तीव्र एवं उग्र थी जितनी हम समझते हैं। वह राजभक्ति के म्यान में रहकर भी नंगी शर्मशार थी। हिन्दी गद्य के विकास में हमें ईसाई, पादरियों के योगदान के महत्व को तो स्वीकार करते हैं, परन्तु हमने उन अंग्रेजों की हिन्दी के प्रति की गई सेवाओं का मूल्यांकन नहीं किया है जो सिविल सर्विस में होते हुए भी हिन्दी की ओर आकृष्ट हुए थे। ईसाई पादरियों का हिन्दी-प्रेम बहुत कुछ स्वार्थवश था, जबकि इन अंग्रेज अफसरों का हिन्दी-प्रेम एवं हिन्दी सेवा सर्वथा विशुद्ध हिन्दी के प्रेमवश थे।
 
कई कवियों एवं लेखकों के विषय में प्रचलित भ्रात धारणाओं का निवारण हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखन की एक गम्भीर समस्या है। उदाहरणार्थ हम पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की चर्चा केवल एक कहानीकार के रूप में करते हैं और पं. श्रीधर पाठक को केवल कवि के रूप में ही जानते हैं। गुलेरी जी ने कई सुन्दर गीत लिखे थे और कविताओं की रचना की थी। पं. श्रीधर पाठक उच्चकोटि के गद्यकार भी थे। हिन्दी- साहित्य के इतिहास का पुनर्लेखन इस प्रकार होना चाहिए कि एकाकी पक्षों का उचित निवारण हो जाए और नवीनतम शोध निष्कर्ष उसमें स्थान प्राप्त कर सकें। पं. अम्बिकादत्त विरचित उपन्यास 'आरचर्ण वृतान्त' तथा चक्रवर्ती द्वारा लिखित 'चन्दा' उपन्यास सदृश अनेक अल्पज्ञात कृतियाँ अन्धकार के गर्त में पड़ी हुई अमृतलाल हैं। इनकी खोज करके हमें हिन्दी साहित्य के इतिहास को पूर्ण बनाना होगा।
 
हिन्दी साहित्य के प्रचार-कार्य को हमने हिन्दी साहित्य के इतिहास में स्थान नहीं दिया है। हमारा सुझाव है कि इस सन्दर्भ नियुक्त हण्टर कमीशन सदृश संस्थाओं के सम्मुख होने वाली गवाहियों को एकत्र करके उनके अध्ययन प्राप्त आवश्यक निष्कर्षों सहित हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन को एक नई दिशा प्रदान की जाए।

हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन का कार्य अभी तक वस्तुतः सुविधावादी रहा है। परन्तु हमें समझ लेना चाहिए कि हिन्दी साहित्य के इतिहास का पूर्ण एवं सर्वांगीण इतिहास का लेखन हिन्दी के सेवकों का नैसर्गिक दायित्व है। इस दायित्व के निर्वाह हेतु उन्हें मौलिक आधार निर्धारित करने होंगे। इस कार्य में क्षेत्रीय अंश का समाकलन करना होगा अर्थात् विभिन्न स्थलों का अंचलबार साहित्यिक इतिहास लिखना होगा और तब आंचलिक योगदान को समायोजित करके इतिहास-लेखन के कार्य को आगे बढ़ाना होगा। प्रत्येक अंचल की प्रत्येक विधा पर पृथक रूप से शोध कार्य किया जाए और उनका समायोजन एवं मूल्यांकन करके हिन्दी साहित्य के इतिहास का लेखन किया जाए।
 
ध्यातव्य है कि यह कार्य व्यक्तिगत स्तर पर न होकर संस्थागत स्तर पर हो। सम्भव हो सकता है आंचलिक स्तर पर कार्य व्यक्तिगत स्तर पर भले ही हो, परन्तु उपलब्ध समस्त सामग्री के समायोजन का उत्तरदायित्व किसी संस्था को ही ग्रहण करना होगा। 

हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की समस्या मौलिक है, हिन्दी साहित्य के इतिहास के नाम पर अभी तक जो कुछ लिखा गया है, उसमें बहुत कुछ अधूरा एवं अप्रमाणिक है। समस्या यह है कि जीवनी सम्बन्धी प्रमाणिक सामग्री, प्रामाणिक कृतित्व तथा हस्तलिखित प्रतियों के प्रमाणिक पाठ उपलब्ध हों। नवीन शोध-कार्य के प्रकाश में उक्त सामग्री का परीक्षण एवं शोधन किया जाए। तब आदि से अन्त तक हिन्दी साहित्य का इतिहास नए सिरे से लिखा जाए। यह कार्य या तो किसी साहित्य-सेवी संस्था द्वारा किया जाये अथवा अध्यापकों की विशेष समितियाँ गठित करके विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की सहायता से इस कार्य को पूरा करने का प्रयत्न किया जाये।

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