जैनेन्द्र कुमार का उपन्यासकार के रूप में मूल्यांकन

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जैनेन्द्र कुमार का उपन्यासकार के रूप में मूल्यांकन हिंदी उपन्यास जगत में जैनेन्द्र कुमार का नाम एक ऐसे लेखक के रूप में चमकता है, जिसने मनोविज्ञान को

जैनेन्द्र कुमार का उपन्यासकार के रूप में मूल्यांकन


हिंदी उपन्यास जगत में जैनेन्द्र कुमार का नाम एक ऐसे लेखक के रूप में चमकता है, जिसने मनोविज्ञान को उपन्यास का आधार बनाकर एक नई पड़ाव स्थापित किया। उनके उपन्यासों में पात्रों का मन:स्थिति, उनके संघर्ष और भावनाएं बड़ी गहराई से उभर कर सामने आती हैं।जैनेन्द्र कुमार ने उपन्यास के पारंपरिक ढांचे को तोड़कर एक नए प्रयोग का बीज बोया। उन्होंने समय और स्थान के साथ खिलवाड़ करते हुए पाठकों को एक नए तरह के अनुभव का आनंद दिया। उनकी भाषा सरल और सहज होने के साथ-साथ प्रभावशाली भी है। उन्होंने अपनी भाषा को पात्रों और स्थितियों के अनुरूप ढालकर एक अद्भुत तालमेल बिठाया।

प्रेमचन्दोत्तर उपन्यासकारों में जैनेन्द्र कुमार का विशिष्ट स्थान है। वे हिन्दी उपन्यास के इतिहास में मनोविश्लेषणात्मक परम्परा के प्रवर्तक के रूप में मान्य हैं। जैनेन्द्र अपने पात्रों की सामान्य-गति में सूक्ष्म संकेतों की निहितता की खोज करके उन्हें बड़े कौशल से प्रस्तुत करते हैं। उनके पात्रों की चारित्रिक विशेषताएँ इसी कारण संयुक्त होकर उभरती हैं। जैनेन्द्र के उपन्यासों में घटनाओं की संघटनात्मकता पर बहुत कम बल दिया गया मिलता है। चरित्रों की प्रतिक्रियात्मक सम्भावनाओं के निर्देशक सूत्र ही मनोविज्ञान और दर्शन का आश्रय लेकर विकास को प्राप्त होते हैं। " आश्चर्य की बात तो यह है कि सुनीता, सुखदा, भुवनमोहिनी और अमिता जैसी प्रेयसियों के पति इनके प्रणय-व्यापार में बाधा न पहुँचाकर उल्टे इनकी सहायता करते हैं, वे इन्हें खतरे से भरे खेल के लिए प्रेरित करते हैं। इन उपन्यासों के संसार को देखकर यही कहते बनता है कि पति आवश्यकता से अधिक भले हैं, प्रेमिकाएँ आवश्यकता से अधिक उदार और क्रान्तिकारी बड़े ही सौभाग्यशाली। इनके लगभग सभी उपन्यासों में मूल समस्या प्रेम और विवाह की है, व्यक्ति और समाज में आपसी विरोध की है। इस समस्या को उठाने में जैनेन्द्र आधुनिकता के बोध का परिचय देते हैं, परन्तु इसके निरूपण में वह इसका निषेध भी करने लगते हैं। जहाँ तक उपन्यासों के रचना-विधान का सवाल है, वह तिकोन की स्थापना में योजनाबद्ध है। इस तरह जैनेन्द्र उस गृहिणी के समान हैं, जिसके पास पकवान तो कम हैं, लेकिन वह उन्हें परोसने में अपनी कुशलता का परिचय अवश्य दे जाती है। जगदीश पाण्डेय इनको चीरहरण का कथाकार इसलिए कहते हैं कि इनमें नारी ही अपना चीर हटा देती है और बाद में वियोग का उपदेश देने लगती है ।' (इन्द्रनाथ)
 

जैनेन्द्र की उपन्यास कला

जैनेन्द्रजी के उपन्यासों में जिस औपन्यासिक शिल्प के दर्शन हुए हैं, उसका संक्षिप्त परिचय अग्र प्रकार है-

कथानक

जैनेन्द्रजी का सबसे पहला उपन्यास 'परख' (1929) है। 'परख' में कट्टो नाम की एक ऐसी बाल-विधवा की कहानी है जो अपने मास्टरजी सत्यधन को अन्तर की सम्पूर्ण गहराई से प्रेम करती है। सत्यधन स्वभाव से स्वार्थी और व्यावहारिक सिद्ध होता है और अपने एक सम्पन्न मित्र बिहारी की बहिन गरिमा से विवाह करके इस बालिका के
जैनेन्द्र कुमार का उपन्यासकार के रूप में मूल्यांकन
हृदय पर गहरा आघात पहुँचाता है। वाजपेयीजी ने लिखा है कि उपन्यास की प्रेम-भूमिका भी सहज स्पृहणीय है। 'सुनीता' (1936) जैनेन्द्रजी का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है। कहानी का नायक 'हरिप्रसन्न' एक राष्ट्रीय कार्यकर्ता है। वह अपने मित्र श्रीकान्त के यहाँ रहने लगता है। श्रीकान्त उसके निरुद्देश्य बहते हुए जीवन-प्रवाह को अधिक संयमित देखना चाहता है। उसकी बहिन सुनीता हरिप्रसन्न को समझाने का प्रयत्न करती है। हरिप्रसन्न जिसका जीवन बड़े संकुचित दायरे में पला था तथा सुनीता का यह आकर्षण धीरे-धीरे आसक्ति का रूप धारण करता चला जाता है। 'त्यागपत्र' (1937) अनमेल विवाह के दुष्परिणाम की कहानी है। इसकी अभागी नायिका मृणाल के पति को उसके पूर्व-प्रेम का पता चल जाता है और वह उसे घर से निकाल देता है। उसका भतीजा प्रमोद एक निष्क्रिय स्वभाव का व्यक्ति है और पूरी सहानुभूति रखते हुए भी उसकी रक्षा नहीं कर पाता। इसके उपरान्त इस निरीह और निरपराध युवती के दयनीय पतन का अन्त अपराधियों और उपेक्षित व्यक्तियों की एक गन्दी बस्ती में घुल- घुलकर उसकी करुण मृत्यु में होता है। 'कल्याणी' (1939) में नायिका श्रीमती असरानी डॉक्टरनी हैं, उनके पति मिस्टर असरानी डॉक्टर, किन्तु गृहस्थी की आर्थिक गति श्रीमती असरानी के परिश्रम की ही अपेक्षा करती है। 'सुखदा' (1952) में पुनः क्रान्तिकारी जीवन को कथा का आधार बनाया गया है। सुखदा एक सम्पन्न घराने की लड़की है। उसका विवाह श्रीकान्त से होता है जो आर्थिक दृष्टि से कुछ हीन है। 'विवर्त' (1952) में भुवनमोहिनी रिटायर्ड जज की लड़की है। वह जितेन से प्रेम करती है, जितेन एक अंग्रेजी पत्र के सम्पादकीय विभाग में काम करता है। दोनों में आर्थिक स्तर पर वैषम्य है, इसलिए विवाह नहीं हो पाता। उसका विवाह बैरिस्टर नरेश चन्द्र से होता है। जितेन क्रान्तिकारी हो जाता है। 'व्यतीत' (1953) का कथानायक जयंत अपने अतीत जीवन का अवलोकन करता है और आत्म-कथात्मक शैली में उपन्यास की कथा आगे बढ़ती है। 'जयवर्द्धन' (1956) में जैनेन्द्र की कथा अरूप की प्रतिष्ठा करने में सार्थक हुई है। जयवर्द्धन में कथा-सूत्र दो स्तरों पर संचालित हुआ है- व्यक्तिगत और राजनीतिक। दोनों सूत्रों के केन्द्र में है 'इला'। 'मुक्तिबोध' (1973) में एक मुक्तकामी राजनीतिक नेता के जीवन की करुण कहानी अंकित की गयी है। जैनेन्द्र की दार्शनिक प्रवृत्ति मुक्तिबोध के प्रश्न को लेकर समाधान ढूँढ़ने में गहनतर होती गयी है। मुक्ति का प्रश्न सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर सुलझाया जा सकता है या आत्मिक स्तर पर ? लेखक का दुविधापूर्ण मनोमंथन कृति की महत्ता का आधार बन गया है। जैनेन्द्र की यह कृति उनके चिन्तन और सृजन के नये आयाम की साक्षी है। संक्षेप में कह सकते हैं कि जैनेन्द्र कुमार ने आधुनिकता की चुनौती को वैयक्तिक स्तर पर स्वीकारा है और नकारा भी। घर और बाहर, व्यक्ति और समाज, पति-पत्नी—प्रेमी के आपसी सम्बन्धों की समस्या के आधार पर उठाया है और इनके निरूपण में आधुनिकता-बोध के उस दौर का परिचय दिया है, जिसमें आज रोमांटिक बोध को आँका गया है।
 

पात्र योजना एवं चरित्र चित्रण

उपन्यास का केन्द्रीय भाव पात्रों द्वारा व्यक्त होता है। उपन्यास के मूल-भाव के अनुसार ही पात्रों के व्यक्तित्व, चरित्र एवं प्रवृत्तियों का निर्धारण होता है। 'परख', 'सुनीता', 'कल्याणी' से लेकर 'सुखदा', 'विवर्त', 'व्यतीत' और 'जयवर्द्धन' तक उनके सभी उपन्यासों में बाहर की स्थूल घटनाओं की अपेक्षा पात्रों के भीतर होने वाली सूक्ष्मातिसूक्ष्म हलचलों के चित्रण की ओर विशेष झुकाव मिलता है। कट्टो, सुनीता, मृणाल, कल्याणी, सुखदा, मोहिनी, अनिता और इला से लेकर सत्यधन, हरिप्रसन्न, श्रीकांत, नरेन्द्र, जितेन, जयन्त और जयवर्धन तक; उनके उपन्यासों के सभी प्रमुख पात्र सामाजिक और पारिवारिक संघर्ष से विमुख, परन्तु अपने भीतर के द्वन्द्वों में खोए हुए से भटकते रहते हैं। वास्तव में जैनेन्द्र पहले उपन्यासकार हैं, जिनकी रचनाओं में हिन्दी उपन्यास के पाठकों को पात्रों के अन्तरंग (सब्जेक्टिव) चरित्र-चित्रण के दर्शन हुए हैं। पात्रों के अचेतन अन्तर्द्वन्द्वों की. जिनके कारण वे किसी भी परिस्थिति से अपना मानसिक सन्तुलन नहीं बैठा पाते और कस्तूरी मृग के समान जीवन-भर भटकते फिरते हैं, उघाड़ने में ही जैनेन्द्र की उपन्यास- कला की समस्त शक्ति लगी है। जैनेन्द्र ने 'कल्याणी' में नारी के स्वावलम्बन की समस्या उपस्थित की है। कल्याणी जो इंग्लैण्ड से डॉक्टरी परीक्षा पास कर चुकी है, सोचती है कि वह गृहिणी बनकर रहे अथवा घर के बाहर रहकर अपना स्वतन्त्र पेशा अख्तियार करे, किन्तु वह अपने निजत्व को दबाकर अपने को पति की इच्छा पर निछावर कर देती है। उपन्यास में स्वच्छन्द प्रेम रोमांटिक बोध की गवाही देता है। इसे दमित वासना का विस्फोट भी कहा जा सकता है, जिसे 'त्यागपत्र' की करुण कथा में उजागर किया गया है। दयाल का जजी से त्यागपत्र देना और हरिद्वार में विरक्त जीवन बिताना अतृप्ति का परिणाम है।
 

संवाद एवं कथोपकथन

कथोपकथन के मुख्यतः दो कार्य होते हैं—पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं को उद्घाटित करना और कथा-प्रवाह को आगे बढ़ाना। आधुनिक उपन्यास में मनोविज्ञान के प्रवेश के कारण आज का उपन्यासकार घटना को महत्त्व नहीं देता। वह घटना को चरित्रों के आन्तरिक उद्घाटन का माध्यम मानता है। उसकी दिलचस्पी क्रमबद्ध अथवा श्रृंखलाबद्ध कथा प्रस्तुत करने में नहीं होती। यह उसका उद्देश्य ही नहीं है। जैनेन्द्र के उपन्योसों में कथा की कड़ियाँ बीच-बीच में टूटी-सी हैं। जहाँ क्रमबद्ध कथात्मकता नहीं है, ऐसे स्थलों पर पाठक को ही श्रृंखला जोड़नी पड़ती है। उसे अपनी अनुमान प्रक्रिया को सक्रिय रखना पड़ता है।
 
प्रेमचन्दोत्तर काल के उपन्यासों में प्रवृत्तियों के अनुरूप कथा कहने के ढंग भी बदले हैं। इस युग के उपन्यासों में कथा प्रस्तुत करने के लिए आत्मकथात्मक अथवा आत्मविश्लेषणात्मक शैली का प्रयोग अधिक हुआ है। आत्मविश्लेषण के माध्यम से आधुनिक पात्रों का मनोविज्ञान अधिक. सूक्ष्मता से उद्घाटित किया जा सकता है। सम्भवत: इसी कारण यह पद्धति उपन्यासकारों ने कई नवीन रूपों में अपनाई है, जिनमें जैनेन्द्र कुमार प्रमुख हैं। डॉ० विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने लिखा है कि प्रेमचन्दोत्तर काल के उपन्यासों में भी कथोपकथन का महत्त्व स्वीकार करते ने उत्तमें कलात्मकता लाने का प्रयास किया है। संक्षिप्त, सोद्देश्य, स्वाभाविक और रोचक हुए लेखको कथोपकथनों की कमी इस युग के उपन्यासों में नहीं है। यद्यपि कहीं-कहीं अत्यन्त लम्बे और नीरस व्याख्यान भी प्रस्तुत हुए हैं, किन्तु ऐसे स्थल बहुत नहीं आये हैं। इस दृष्टि से जैनेन्द्र, अज्ञेय, इलाचन्द्र जोशी, यशपाल, अश्क, भगवतीचरण वर्मा, वृन्दावनलाल वर्मा आदि प्रमुख उपन्यासकारों के अनेक उदाहरण उद्धृत किये जा सकते हैं।
 

देशकाल या वातावरण

वातावरण के अन्तर्गत देश-काल और परिस्थिति आती है। लेखक घटना और पात्रों से सम्बन्धित परिस्थितियों का चित्रण सजीव रूप में करता है। जैनेन्द्र ने अपने उपन्यास 'जयवर्धन' में राजनीतिक परिस्थितियों को आधार प्रदान किया है। जैनेन्द्र के प्रायः, सभी उपन्यासों में अहं (Ego) और इड (Id) का संघर्ष तथा दमन (Repression) का विस्फोट दिखायी पड़ता है। उनके पात्र अधिकांशतः मनोविकारग्रस्त एवं कुंठित हैं । किन्तु उनके पात्रों का मनोविश्लेषण सहज ढंग से हुआ है। जैनेन्द्र ने मनोवैज्ञानिक- विश्लेषण का इतना आग्रह नहीं किया है कि वह लेखक द्वारा सप्रयास आरोपित-सा लगे । 'विवर्त' में जब नायक जितेन की प्रेमिका मोहिनी का दूसरे पुरुष से विवाह हो जाता है, तब जितेन के मन में ग्रन्थि बन जाती है। इसी ग्रन्थि से संचालित होकर उसे अपराधों की राह पर चलना पड़ता है। 'आधुनिक हिन्दी कथा-साहित्य और मनोविज्ञान' में डॉ० देवराज उपाध्याय ने लिखा है कि, " आधुनिक मनोवैज्ञानिक सम्प्रदायों में जर्मनी के गेस्टाल्ट-सम्प्रदाय का भी अत्यन्त प्रमुख स्थान है। गेस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों ने संसार को पूर्णता में देखने का प्रयास किया है, उसके खण्डांश रूप में नहीं। इनके अनुसार पूर्णता ही सत्य है। गेस्टाल्टवादी आकार और वस्तु को भिन्न नहीं देखते। चार बिन्दुओं (::) को देखते ही हमारे मन में एक चतुर्भुज बन जाता है, यद्यपि यहाँ ऐसी मिलाने वाली रेखा नहीं है। इस प्रकार चतुर्भुज का अस्तित्व इन चार बिन्दुओं के अस्तित्व से पूर्व ही मन में उपस्थित होकर उसको रूप भी प्रदान करता है और सार्थकता भी। हिन्दी के उपन्यासकारों में जैनेन्द्र में इस गेस्टाल्टवादी मान्यता के उदाहरण प्राप्त होते हैं। यद्यपि उन्होंने जानबूझकर ऐसा नहीं किया है, फिर भी उनके उपन्यासों और कहानियों में यत्र-तत्र उनका सम्पूर्णतावादी दृष्टिकोण दिखाई पड़ता है। आलोचकों ने उनके उपन्यासों में गेस्टाल्ट मनोविज्ञान का प्रभाव लक्षित किया है।
 

भाषा शैली

भावों को अभिव्यक्ति प्रदान करने का माध्यम भाषा है और अभिव्यक्ति का ढंग शैली है। शैली उपन्यास का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। साधारण से साधारण कथानक में भी कुशल लेखक अपनी सुन्दर शैली से प्राण-प्रतिष्ठा कर देता है। डॉ० रणवीर रांग्रा ने लिखा है – “जैनेन्द्रजी की उपन्यास-कला की पहली विशेषता है-चरित्रोद्घाटन की नई- नई प्रणालियों के प्रति उनका मोह । 'परख' से लेकर 'जयवर्धन' तक उन्होंने बदल-बदलकर चरित्र-चित्रण की कई प्रणालियों को अपनाया है। 'परख', 'सुनीता' और 'विवर्त' में उन्होंने प्रेमचन्द की तरह परम्परागत वर्णनात्मक शैली (उपन्यासकार द्वारा प्रथम पुरुष में वर्णन) अपनाई है। 'त्यागपत्र' और 'कल्याणी' की शैली जीवनी की रही है। उपन्यास का एक पात्र प्रथम पुरुष में धीरे-धीरे नायिका के जीवन-वृत्त और उसके चरित्र-विकास पर प्रकाश डालता रहता है। 'जयवर्द्धन' की शैली देखने को तो डायरी की है, पर वास्तव में, वह 'त्यागपत्र' और 'कल्याणी' वाली शैली का ही एक रूपान्तर है, क्योंकि उसमें नायक-नायिका का वृत्त एक ही पात्र की डायरी में लिखा मिलता है, भिन्न-भिन्न पात्रों की डायरियों में नहीं। 'सुखदा' और 'व्यतीत' में आत्मकथा शैली का प्रयोग हुआ है। नायक अथवा नायिका उत्तम पुरुष में आपबीती सुनाते हुए स्वयं ही अपने को खोलते चलते हैं। संक्षेप में कह सकते हैं कि जैनेन्द्र की शैली के विविध रूप हैं, जिनमें दृष्टान्त, वार्ता तथा कथा- शैलियाँ मुख्य हैं। नाटकीय एवं स्वगत- भाषण शैलियों का प्रयोग भी अनेक स्थालों पर हुआ है। भाषा भावपूर्ण, चित्रात्मक एवं सशक्त है। यथोचित शब्द-रचना तथा भावानुकूल शब्द-चयन आपकी भाषा-शैली की उल्लेखनीय विशेषताएँ हैं।
 

उद्देश्य

उपन्यास का केन्द्रीय भाव ही वह हेतु या उद्देश्य है, जिसके लिए उपन्यास की रचना की जाती है। सम्वेदना की विशिष्ट इकाई के मूल में लेखक का एक विशिष्ट लक्ष्य होता है। जैनेन्द्रजी की उपन्यास कला की एक और विशिष्टता है, उसकी व्यंजकता। हिन्दी में वह पहले उपन्यासकार हैं जो अपने पात्रों के चरित्र-विकास के लिए घटनाओं पर निर्भर नहीं करते, प्रत्युत उसके लिए जीवन की सूक्ष्मातिसूक्ष्म गतियों का सहारा लेते हैं। जैनेन्द्रजी की उपन्यास-कला में एक और उलझन है—उनकी दार्शनिकता । इस प्रकार जैनेन्द्र के उपन्यासों में एक ओर जहाँ मनोविज्ञान बोलता है, वहीं दूसरी ओर गाँधीवाद प्रकट होने लगता है। मनोविज्ञान के क्षेत्र में जैनेन्द्र फ्रायड के कम गेस्टाल्ट के अधिक समीप हैं। व्यक्ति में सक्रिय रहने वाली परस्पर विरोधी शक्तियों के अस्तित्व तथा संघर्ष को जितना उजागर जैनेन्द्र ने किया है, उतना किसी अन्य उपन्यासकार ने नहीं। यह उनकी हिन्दी उपन्यास को अनूठी देन है। संघर्ष को आवश्यक रूप में पेश न करके उन्नयन (आत्मपीड़न) के रूप में प्रस्तुत करना उन्हें गाँधीवाद के समीप ले आता है।
 
डॉ० बच्चनसिंह का मत है कि इनकी लिरिकल संरचना और इनमें प्रेम की पीड़ा-वेदना भी छायावादी बोध की गवाही देती है। यह पीडा महादेवी के गीतिकाव्य के अधिक निकट है। प्रेम मुखर न होकर मौन है, मुखर से मौन होने जा रहा है। इन उपन्यासों में अगर छायावाद की खालिस पीड़ा नहीं है तो यह विधाओं के अन्तर का परिणाम है-कविता और उपन्यास की। उपन्यास में जो जमीर की धारा बहती है, नैतिकता की जो कशमकश होती है, वह कविता में कम आ पाती है, खासकर लिरिकल कविता में। संक्षेप में कह सकते हैं कि जैनेन्द्र के उपन्यास के रूप का बन्ध उसी तरह टूटा है, जिस तरह छायावादी काव्य में छन्द का बन्ध टूटा है। 

उपसंहार

जैनेन्द्रजी के विषय में आलोचकों के कई मत हैं। यही कारण है कि जहाँ एक ओर आलोचक उनकी महत्ता के सम्बन्ध में एकमत हैं और उन्हें शरद और प्रेमचन्द्र के समकक्ष मानते हैं, वहाँ दूसरी ओर वे उनकी कृतियों की कमियों के विषय में भी अधिक मतभेद नहीं रखते तथा उनकी कृतियों को अतृप्त और विकृत मस्तिष्क का परिणाम बताते हैं। उनके अधिकांश उपन्यासों के विषय में आलोचकों को यह शिकायत है कि वे एकमात्र कार्बन कॉपी हैं अथवा उनमें पुरानी अनुभूतियों को ही दोहराया गया है। इनके उपन्यासों में आदि, विकास और अन्त नहीं होता और न ही उपन्यास का वास्तव बाहर के वास्तव से मेल खाता है। इनमें स्थितियाँ एक विशेष बिन्दु से शुरू होकर दूसरे विशेष बिन्दु पर नहीं होतीं, वे इनके योजनाबद्ध तिकोन के भीतर अपना पथ खोजती हैं। इसलिए इनके उपन्यासों में प्रेमचन्दीय कथानक रचना और चरित्र-चित्रण का अभाव है। इसलिए इनकी उपन्यास-कला में जहाँ आधुनिकता का स्वीकार है, वहाँ अस्वीकार भी है, संवेदना के स्तर पर स्वीकार और चिन्तन के स्तर पर अस्वीकार ।

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