तमस उपन्यास की भाषा शैली भीष्म साहनी

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तमस उपन्यास की भाषा शैली भीष्म साहनी उपन्यास की सफलता और असफलता उसमें प्रयुक्त भाषा शैली पर ही निर्भर करती है। अतः उपन्यास-रचना में लेखक को भाषा-शैली

तमस उपन्यास की भाषा शैली भीष्म साहनी


भाषा भावाभिव्यक्ति का साधन होती है तो शैली उसकी विधि। साहित्य की अन्य विधाओं के समान ही उपन्यास में भी भाषा-शैली का विशेष महत्त्व होता है। उपन्यास की सफलता और असफलता उसमें प्रयुक्त भाषा शैली पर ही निर्भर करती है।अतः उपन्यास-रचना में लेखक को भाषा-शैली का विशेष ध्यान रखना होता है । 'तमस' उपन्यास में लेखक ने युगानुरूप भाषा- शैली का ही प्रयोग किया है।

तमस उपन्यास की भाषा

तमस उपन्यास में उपन्यासकार ने सहज, सुबोध, पात्रानुकूल एवं भावानुकूल भाषा का प्रयोग किया है।सरल खड़ी बोली का प्रयोग-उपन्यासकार ने 'तमस' में सरल एवं सुबोध खड़ी बोली का प्रयोग किया है। फिर भी पात्रानुकूल, भावानुकूल एवं परिस्थिति के अनुरूप लेखक ने भाषा में विविधता ला दी है जो एक साल उपन्यासकार का गुण माना जाता है । 'तमस' में प्रयुक्त भाषा का हम निम्न शीर्षकों में विवेचन कर सकते हैं- 
  • तमस उपन्यास की भाषा शैली भीष्म साहनी
    उर्दू-फारसी-बहुल शब्दावली -
    'तमस' उपन्यास में जिस स्थान का चित्रण हुआ है वह पंजाब का वह स्थान था जहाँ मुस्लिम बहुल जनसंख्या थी और वर्तमान में वह स्थान पाकिस्तान का अंग बन चुका है। उस स्थान पर रहने वाले हिन्दू-मुसलमान सभी पात्र उर्दू-फारसी मिश्रित भाषा का ही प्रयोग करते थे। उपन्यास में उर्दू-फारसी-बहुल शब्दावली के प्रमुख शब्द ये हैं – मनहूस, तामीरी, खंजीर, मुश्क, कराड़, नमूदार, दायिशमन्द, कारकुन, इश्तआल, मोहयाल, गाहे-बगाहे, आफरीन, तसवीह, रुसवाई, इत्रफरोश, बेवाक, मनादी आदि । 
  • संस्कृत-बहुल शब्दावली - वैदिक धर्मावलम्बी पात्रों की भाषा में लेखक ने संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावली का प्रयोग करवाया है। एक उदाहरण प्रस्तुत है – “साप्ताहिक सत्संग की समाप्ति से पहले पुण्यात्मा वानप्रस्थीजी सदा की भाँति मंत्र-पाठ करने लगे। इस मंत्र पाठ को वह सत्संग रूपी यज्ञ की ' अन्तिम आहुति' कहा करते थे। गिने-चुने विशिष्ट मंत्रों तथा श्लोकों में भारतीय संस्कृति का सार पाया जाता था और वर्षों के आग्रह के बाद वानप्रस्थीजी ने सभी सभासदों को ये मन्त्र कण्ठस्थ करवा दिये थे। वेदी पर बैठे ही बैठे आँखें बन्द कर, हाथ जोड़ और सिर नवा कर वानप्रस्थीजी मंत्रोच्चारण करने लगे- "सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्त निरामयः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भाग भवेत् ॥" 
  • लोकोक्ति एवं मुहावरों का प्रयोग- भाषा में कसावट एवं अर्थवत्ता की दृष्टि से लेखक ने स्थान-स्थान पर लोकोक्तियों एवं मुहावरों का प्रयोग उपन्यास की भाषा में किया है। यथा-ले दे जाना, मुँह बनाना, ढेर हो जाना, पौ बारह होना, फूटी आँख नहीं सुहाना, आड़े हाथों लेना, काम तमाम करना, हाथ धो बैठना आदि । 
  • पात्रानुकूल भाषा - पंजाब प्रान्त के लोग जिस भाषा का प्रयोग करते थे, उसी कां लेखक ने उपन्यास में स्थान-स्थान पर प्रयोग करवाया है। दर्जी खुदाबख्श एवं सरदार हाकिम सिंह की पत्नी का वार्तालाप उसी आंचलिक भाषा में प्रस्तुत हुआ है । यथा- "वे बाख्शियां, तूं कपड़े की देखें अरसें या फेरे ही पवाँदा रहसें ?" (अर्थात् कभी हमारे कपड़े भी सीकर देगा या रोज तेरी दुकान के चक्कर ही मारती रहूँ।) "जद्द मैं कहँदा रिहा बीबी भेजो कपड़े, तुसाँ कुझ न कीता, सारियाँ सरदियाँ लँघा दित्तियाँ। हुण वकत तो लग दै । सौलह हत्थ ताँ नहीं मेरे ।" (अर्थात् जब मैं कहता था बीबी लाओ कपड़े भेजो, आपने कोई परवाह न की। सारा जाड़ा बीत गया। अब वक्त तो लगेगा ही, मेरे सोलह हाथ तो नहीं हैं ।) इसी प्रकार बाबू और लीजा के संवादों में ठेठ अँग्रेजी शब्दावली का प्रयोग हुआ है- "यू हिण्डू बाबू ।""यस मैडम ।" आई गैस्ड राइट ।" "यस मैडम।" साथ ही गुण्डे मुसलमानों की भाषा में गाली आदि का प्रयोग कर उपन्यास में अश्लीलता का समावेश अवश्य हो गया है, पर पात्रानुकूल भाषा का प्रयोग अवश्य हुआ है। यथा - " निकलो बाहर कहाँ घुस बैठे हो तुम्हारी माँ की ।" "तेरी तो में माँ ।" आदि ।
 

तमस उपन्यास की शैली 

'तमस' उपन्यास में लेखक ने विविध शैलियों का प्रयोग किया है। इस उपन्यास में वर्णनात्मक, भावात्मक, नाटकीय एवं रेखाचित्र वाली शैली का स्थान-स्थान पर प्रयोग हुआ है। अब हम प्रत्येक के कतिपा उदाहरण प्रस्तुत करेंगे- 
  1. वर्णनात्मक शैली- उपन्यास में वर्णनात्मक शैली का बहुलता से प्रयोग किया जाता है। इस शैली में लेखक तटस्थ द्रष्टा की भाँति वर्णन करता चलता है। यथा-"शिवाले का बाजार किसी दुल्हन के चेहरे की तरह खिला हुआ था। वहाँ रोज जैसी ही रौनक थी, कोई नहीं कह सकता था कि कहीं कोई तनाव पाया जाता है। सुनारों की दुकानों पर अनेक बुर्के वाली गाँव की औरतें चाँदी के जेवर खरीदने-बनवाने के लिये जगह-जगह बैठी थीं। हकीम लाभराम की दुकान के सामने दवाइयाँ कूटने वाले दो काश्मीरी मुसलमान नाक-मुँह लपेटे दौरी में दवाइयाँ कूट रहे थे । कूबड़े हलवाई की दुकान पर लगभग रोज जैसी ही भीड़ थी। खोमचे वाला सन्तराम आज भी ठीक एक बजे अपनी हथगाड़ी धीरे-धीरे चलाता हुआ सर्राफों का बाजार लाँघकर शिवाले के बाजार में आ गया था और रोज के ही मुताबिक दर्जी खुदाबख्श और उसके दो भाइयों के लिये आधी छटाँक हलवे के तीन पत्ते बनाकर भेज रहा था ।"
  2. भावात्मक शैली - 'तमस' उपन्यास में ऐसे अनेक स्थल हैं जहाँ लेखक ने भावात्मक शैली का प्रयोग किया है । रघुनाथ की पत्नी और शहनबाज के वार्तालाप में उपन्यासकार ने इसी शैली का प्रयोग किया है- "यहाँ कैसा है भाभी ? कोई तकलीफ तो नहीं ? अच्छा किया वहाँ से निकल आये।" "अच्छा है, पर अपना घर तो अपना घर ही होता है। अब न जाने कभी उसमें जाना होगा या नहीं ।" कहते-कहते उसकी आँखें भर आयीं ।शहनबाज भी भावुक हो उठा - "रो नहीं भाभी, अगर मैं जिन्दा रही तो तुम लोग जरूर फिर अपने घर जाओगे । तू बेफिक्र रह ।"
  3. नाटकीय शैली - उपन्यास में यथास्थान लेखक ने नाटकीय शैली का भी प्रयोग किया है। नांटकीय शैली का एक उदाहरण प्रस्तुत है। नशे की हालत में रिचर्ड लीजा को उठाकर बैडरूम की ओर ले जाने लगता है तो उस समय के वर्णन में लेखक ने नाटकीय शैली का प्रयोग किया है- "क्या है रिचर्ड, मुझे कहाँ ले जा रहे हो ?" "तुम्हारा गाउन नीचे से गीला हो रहा है, लीजा, मैं तुम्हें तुम्हारे कमरे में ले जा रहा हूँ।" "खाना खाओगी लीजा ?" "खाना, कैसा खाना ?. 
  4. रेखाचित्र शैली - 'तमस' उपन्यास में लेखक ने अनेक स्थलों पर रेखाचित्र शैली का भी सुन्दर प्रयोग किया है। एक उदाहरण प्रस्तुत है- 'पतली बेंत की छड़ी झुलाता हुआ ठिगना, काला मुराद अली जगह-जगह घूमता था। शहर की किसी गली में, किसी सड़क पर वह किसी वक्त भी नमूदार हो जाता था। साँप की सी छोटी- छोटी पैनी आँखें और कँटीली मूँछें और घुटनों तक लम्बा कोट और सलवार और सिर पर पगड़ी उसे सब फबते थे। इन सबको मिलाकर ही मुराद अली की तस्वीर फबती थी।"
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि 'तमस' उपन्यास भाषा-शैली की दृष्टि से एक सफल उपन्यास कहा जा सकता है। पात्रानुकूल, भावानुकूल, सहज, सरल एवं सुबोध भाषा ने उसमें चार चाँद लगा दिये हैं। मुहावरों एवं लोकोक्तियों के प्रयोग से इसमें एक विशेष प्रकार की अर्थवत्ता एवं भाव प्रवणता आ गयी है। उर्दू-फारसी के शब्दों तथा संस्कृतनिष्ठ एवं अँग्रेजी के शब्दों के प्रयोग से भाषा में सहज स्वाभाविकता आ गयी है। आंचलिक भाषा ने उसमें और भी स्वाभाविकता तथा प्रवाहमयता ला दी है। वर्णनात्मक, भावात्मक, नाटकीय एवं रेखाचित्र शैली के प्रयोग से उपन्यास बहुत ही रोचक एवं सफल बन गया है । 

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