दिव्या उपन्यास की तात्विक समीक्षा | यशपाल

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दिव्या उपन्यास की तात्विक समीक्षा यशपाल उपन्यास हमें हमारे समाज की कई कमजोरियों और कुरीतियों से अवगत कराता है। यशपाल ने इस उपन्यास के माध्यम से समाज म

दिव्या उपन्यास की तात्विक समीक्षा | यशपाल


शपाल का उपन्यास 'दिव्या' हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण कृति है।यह उपन्यास सिर्फ एक रोचक कहानी नहीं है, बल्कि इसमें गहराई से समाज, धर्म, और महिलाओं की स्थिति जैसे विषयों पर विचार किया गया है। उपन्यास हिन्दी साहित्य की अत्यधिक लोकप्रिय विधा है। भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों ने उपन्यास के सात तत्व - कथानक या कथावस्तु, पात्र एवं उनका चरित्र-चित्रण, संवाद अथवा कथोपकथन, देशकाल एवं वातावरण, भाषा-शैली, उद्देश्य और शीर्षक स्वीकार किए हैं जिनके आधार पर यशपाल के उपन्यास 'दिव्या' की समीक्षा प्रस्तुत है - 

कथानक या कथावस्तु

यशपाल अपने सृजन के प्रति अत्यन्त सचेत रहे हैं। अपने रोचक कथानकों के लिए यदि वह हयूगो के आभारी हैं तो चरित्रांकन के लिए तुर्गनेव के । जहाँ तक 'दिव्या' उपन्यास का सम्बन्ध है, उसके पूर्वार्द्ध को देखकर लगता है कि यह कलाकृति कलापूर्ण रोमाण्टिक रचना बनने जा रही है किन्तु उसके बाद उसमें एक मोड़ आता है। उत्तरार्द्ध में वर्ग संघर्ष की यथार्थवादी प्रवृत्ति उभर आती है। अभिजात कुल और सामन्त वर्ग का विलास-वैभव, दासों पर अत्याचार, नारी की पीड़ा-प्रवंचना इन सबका बड़ी यथार्थवादी और प्रभावशाली शैली में वर्णन किया गया है। इस प्रकार यदि पूर्वार्द्ध प्रणय कथा का रूप लिए है, तो उत्तरार्द्ध यथार्थवादी कृति की। पूर्वार्द्ध भाव प्रधान है, तो उत्तरार्द्ध विचार प्रधान है। 

दिव्या उपन्यास की तात्विक समीक्षा | यशपाल
'दिव्या' उपन्यास का कथानक दिव्या के इर्द-गिर्द घूमता है। अपने प्रपितामह तात धर्मस्थ की छत्रछाया में रहने वाली दिव्या निश्छल, वर्गभेद से ऊपर, अल्हड़ बाला सागल की सर्वश्रेष्ठ नर्तकी घोषित किए जाने पर 'सरस्वती पुत्री' का पुष्प किरीट पाती है और परम्परा के अनुसार सर्वश्रेष्ठ खड्गधारी पृथुसेन को किसलय-मुकुट प्रदान करती है। प्रथा के अनुसार दिव्या की शिविका अभिजात वंश के युवक अपने कंधे पर रखकर उसके गृहद्वार तक ले जाते हैं। शिविका में कंधा लगाने के लिए पृथुसेन के प्रस्तुत होने पर अभिजात वंश के युवक विरोध करते हैं तो वह खड्ग निकालकर रक्तपात के लिए उद्यत हो जाता है। गुरुजनों के समझाने पर वह रुक जाता है, पर अपने हीन कुल होने की कुंठा उसके मन में बैठ जाती है। पृथुसेन का पिता प्रेस्थ महाराज मिलिन्द का विशेष कृपापात्र था। महाराज ने संसार-त्याग के समय उसे दासत्व से मुक्त कर बहुमूल्य अश्व प्रदान किए। अश्वों का व्यापार कर वह सागल का एक समृद्ध श्रेष्ठी बन गया। वह गणपरिषद् का सदस्य तो न बन सका, पर गणपति मिथोद्रस का विश्वासपात्र बन गया। उसने अपने पुत्र पृथुसेन को अभिजात वंश के कुमारों के समान पाला था, इसी कारण वह सर्वश्रेष्ठ खड्गधारी था। 

दिव्या को पृथुसेन के प्रति सहानुभूति थी पर शिविका में कंधा लगाने वाली घटना से उसके प्रति प्रणयभाव उत्पन्न हो गया और एक दिन वह अपना सब कुछ पृथुसेन को दे बैठी। इसके बाद पृथुसेन युद्ध में व्यस्त हो गया। जब वह दार्व को विजित कर वापस आया तो घायल अवस्था में महाराज मिथोद्रस की पुत्री सीरो ने उसकी सेवा की। दिव्या ने जब पृथुसेन से मिलना चाहा तो सीरो ने बहाना बनाकर भगा दिया। दिव्या गर्भ का कलंक लेकर पितृगृह नहीं जाना चाहती थी इसलिए वह वसुमित्र के प्रासाद से भटकते-भटकते दास व्यवसायी प्रतूल के हाथ पड़ गयी । यहाँ से कई अवरोध पार कर वह रत्नप्रभा की चतुश्शाला में पहुँच गयी। दिव्या का नृत्यज्ञान देखकर रत्नप्रभा बहुत प्रसन्न हुई और उसने दिव्या का नाम बदलकर अंशुमाला रख दिया। अंशुमाला की प्रसिद्धि चारों ओर फैल गयी और रत्नप्रभा की आय दोगुनी हो गयी। यहीं से देवी मल्लिका उसे अपने साथ सागल ले आई। उन्होंने दिव्या को अपनी उत्तराधिकारिणी घोषित करना चाहा पर विरोध होने के कारण दिव्या वहाँ से एक सराय में चली गयी जहाँ रुद्रधीर, पृथुसेन ने उसे अपने मार्ग पर ले जाना चाहा पर दिव्या अन्ततः मारिश की बाँहों में समा जाती है और यहीं कथानक समाप्त हो जाता है।
 
इस प्रकार 'दिव्या' उपन्यास का कथानक अपने आप में पूर्ण, रोचक और शुरू से अंत तक जिज्ञासा को बढ़ाने वाला कथानक है जिसमें कथा के प्रत्येक बिन्दु पर विशेष ध्यान दिया गया है।
 

पात्र एवं उनका चरित्र चित्रण

दिव्या उपन्यास के पात्र इतिहास विश्रुत न होकर लेखक की कल्पना-सृष्टि हैं। मारिश, दिव्या, सीरो और पृथुसेन काल्पनिक पात्र हैं। 'दिव्या' की रचना के पीछे ऐतिहासिक वातावरण के आधार पर यथार्थ का रंग देने के अलावा एक सिद्धान्त-विशेष का प्रचार करना भी लक्ष्य था और इस उद्देश्य की पूर्ति ऐतिहासिक पात्रों की अपेक्षा काल्पनिक पात्र अधिक कर सकते थे। यही कारण है कि 'दिव्या' के पात्रों को दो कोटियों में विभक्त किया जा सकता है- पहले लेखक की विचारधारा के प्रतिनिधि पात्र यथा मारिश, दिव्या और दूसरे वे पात्र जो इतर पक्ष की ओर से लेखक की विचारधारा को स्फुरित करते हैं यथा प्रेस्थ, चीबुक, रुद्रधीर। मारिश और दिव्या के संदर्भ में लेखक ने स्वय कहा है-“दिव्या में मारिश और दिव्या द्वारा मैंने अपना ही दृष्टिकोण देना चाहा है।"
 
जहाँ तक चरित्र-चित्रण की शैली का प्रश्न है, लेखक ने चरित्रांकन की प्रत्यक्ष शैली अपनायी है। उनका चरित्रांकन सतही है, वह घटनाओं और पात्रों को स्वयं चलाते हैं, उनके विषय में अपना मत प्रकट करते चलते हैं। पात्र के अन्तस में झाँकने की चेष्टा कम की गयी है। यदि पात्र की कुण्ठा या उसके अन्तःसंघर्ष की झाँकी दी भी है तो वह चेतन मन तक ही सीमित है। उदाहरण के लिए पृथुसेन और दिव्या की प्रथम भेंट के बाद दोनों का अन्तःसंघर्ष मनोवैज्ञानिक तो है पर उसका चित्रण और विश्लेषण प्रेमचन्द के उपन्यासों के समान ही सतही है। सीरो को लेकर पृथुसेन के मन में जो द्वन्द्व उठता है, उसका चरित्र भी अत्यन्त स्थूल है। यशपाल पात्र का प्रथम परिचय देने के साथ ही उसके स्वभाव एवं व्यक्तित्व के विषय में बता देते हैं और ऐसा करते समय आकृति-विज्ञान से भी सहायता लेते हैं। पात्र की आकृति और वेशभूषा के चित्रण द्वारा वह पात्र को पाठक के कल्पना-चक्षुओं के सम्मुख साकार कर देते हैं। 'दिव्या' में सीरो और पृथुसेन का परिचय इसी विधि से दिया गया है।
 
यशपाल अपने पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं का उद्घाटन करने के लिए उन्हें परिस्थितियों में डालते हैं, इन परिस्थितियों में पड़कर ये पात्र अपने गुण-दोष व्यक्त करते हैं। दिव्या को जीवन-मार्ग की अनेक कठिनाइयों में डालकर उसके चरित्र की दृढ़ता, सम्मान-भावना, कर्मठता, मातृत्व-भाव आदि गुणों को उद्घाटित किया गया है। संवादों के माध्यम से भी यशपाल ने अपने पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डाला है । कथोपकथन की इस नाटकीय चरित्रांकन शैली द्वारा पात्र का स्वरूप पाठक के मन पर कुशलतापूर्वक उकेरा गया है। उदाहरण के लिए धर्मस्थ- प्रासाद में विष्णु शर्मा और प्रबुद्ध शर्मा के मध्य होने वाला वार्तालाप यदि इन दोनों के स्वभाव, विचारधारा और जीवन-दृष्टि पर प्रकाश डालता है तो मारिश और अंशुमाला के मध्य होने वाला तर्क-वितर्क मारिश की चारित्रिक विशेषताओं को उद्घाटित करता है।
 
यद्यपि लेखक ने अपने पात्रों का चरित्रांकन करने में पूर्ण सावधानी बरती है तथापि उनका चरित्रांकन पूर्णतः निर्दोष नहीं कहा जा सकता। उनके पात्र स्वतन्त्र न होकर या तो लेखक की विचारधारा के प्रवक्ता प्रतीत होते हैं या उन परिस्थितियों के दास जो लेखक ने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए आयोजित की हैं। मारिश यदि लेखक के विचारों को प्रस्तुत करता है तो अन्य पात्र परिस्थितियों के दास हैं। दिव्या, पृथुसेन, रुद्रधीर, मल्लिका सभी परिस्थितियों के समक्ष नतमस्तक हैं, परिस्थितियों के संकेत पर नाचने वाली कठपुतली हैं, निःसत्व पात्र हैं। 'दिव्या' में पात्रों का आकस्मिक परिवर्तन भी खटकता है। सत्ताकांक्षी पृथुसेन का सहसा भिक्षुक बन जाना और दिव्या का मारिश के प्रति आत्मसमर्पण सहज नहीं लगता। पृथुसेन में यह परिवर्तन संभवतः इसलिए दिखाया गया है कि लेखक नहीं जानता अब उस पात्र का क्या किया जाए। जहाँ तक दिव्या का सम्बन्ध है, उसे मारिश की शरण में जाते दिखाने के लिए उसका पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण उत्तरदायी है। अपनी विचारधारा के प्रवक्ता की विजय व्यक्त कतिपय करने के लिए ही उसने दिव्या को मारिश की भुजाओं में ला पटका है।
 
इन त्रुटियों के होते हुए भी 'दिव्या' के पात्र नावदान के कीड़े नहीं हैं जैसा कि श्री भगवतशरण उपाध्याय ने कहा है- "उपन्यास के अनेक पात्र सशक्त और सजीव हैं, दो हजार वर्ष पूर्व के भारतीय इतिहास के जीवन्त व्यक्ति हैं।" 

संवाद अथवा कथोपकथन

'दिव्या' यद्यपि वर्णन-प्रधान उपन्यास है, तथापि कथोपकथन की नाटकीय शैली का उपयोग इसमें पर्याप्त मात्रा में किया गया है। यह कथोपकथन बड़े स्वाभाविक, सशक्त और लेखक के भाषा पर अधिकार के परिचायक हैं। सफल कथोपकथन के लिए आवश्यक गुण-सम्प्रेषणीयता, स्वाभाविकता, एवं विषय के अनुरूप भाषा का प्रयोग, सांकेतिकता, व्यंजना आदि तो 'दिव्या' की संवाद-योजना में पाए ही जाते हैं, उनका उपयोग भी किसी न किसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु किया गया है। इन कथोपकथनों की एक विशेषता यह है कि वार्तालाप सीधा-साधा न होकर व्यंजनापूर्ण है। मारिश और दिव्या के मध्य होने वाले वार्तालाप की यही विशेषता है। मारिश की कटु और स्पष्ट उक्तियाँ पाठक को प्रभावित किए बिना नहीं रहतीं। रत्नप्रभा और मारिश के मध्य जन्म और मृत्यु को लेकर होने वाला संवाद भी अत्यन्त स्वाभाविक और संक्षिप्त प्रश्नोत्तर का रूप धारण किए है। तर्क-वितर्क की पद्धति तथा छोटे-छोटे वाक्यों ने उसे और भी सजीव एवं नाटकीय बना दिया है। त्रिशरण में जाने से पूर्व चीबुक और पृथुसेन के मध्य होने वाली बातचीत भी इसी प्रकार संक्षिप्त, स्वाभाविक और भिक्षुओं के बीच होने वाले वार्तालाप की शैली में है।
 
लेखक ने इस बात की सावधानी रखी है कि वार्तालाप उसमें भाग लेने वालों के व्यवसाय, स्वभाव, रुचि, शिक्षा-स्तर आदि के अनुरूप हो । दास-व्यवसायियों भूधर और प्रतूल के मध्य होने वाला वार्तालाप व्यापारियों के अनुरूप उनके स्वार्थपूर्ण स्वभाव और व्यापार में प्रायः पायी जाने वाली लीक-पोल के अनुरूप है। संघ की शरण चाहने वाली दिव्या और स्थविर के बीच के वार्तालाप में तत्कालीन बौद्ध भिक्षुओं की रूढ़िवादिता, दुराग्रह और घिसे-पिटे प्रश्नों की पुनरावृत्ति पायी जाती है। महाउपरिक रविशर्मा, रत्नप्रभा तथा पुरोहित चक्रधर का वार्तालाप न्यायप्रार्थी तथा न्यायाधीश के मध्य होने वाले वार्तालाप के अनुरूप तो है ही, महाउपरिक की तीक्ष्ण न्यायदृष्टि और विलक्षण बुद्धि का भी परिचायक है। 'दिव्या' के कुछ संवाद कथा को गति प्रदान करते हैं तो कुछ अन्य पात्रों के चरित्रोद्घाटन में सहायक हैं। रुद्रधीर को मद्र से निष्कासन का दण्ड मिलने पर उसके सम्बन्धियों, मित्रों एवं शुभचिन्तकों के मध्य होने वाला वार्तालाप आगामी घटनाओं की ओर इंगित करता है तो प्रेस्थ और पृथुसेन की बातचीत श्रेष्ठी पिता की चतुराई, अवसरवादिता, महत्वाकांक्षा, संयम, धैर्य, योजनाबद्ध कार्य करने की निपुणता आदि गुणों पर प्रकाश डालती है। सीरो और पृथुसेन के बीच का वार्तालाप सीरो के स्वच्छंद, उद्दण्ड, गर्वपूर्ण और आत्मनिर्भर व्यक्तित्व को उजागर करता है।
 
'दिव्या' के कथोपकथन युग के वातावरण निर्माण में भी सहायक हैं। उपन्यास के आरम्भ में ही निर्णय के प्रतिवाद को लेकर पृथुसेन तथा गणपति के मध्य होने वाला वार्तालाप उस समय के गणों में व्याप्त न्याय-व्यवस्था पर प्रकाश डालता है। मार्ग में माताल सैनिकों का वार्तालाप उस समय के सैनिकों में व्याप्त उच्छृंखलता, उद्दंडता, अनुशासनहीनता, लूट के धन के कारण उत्पन्न हुई अहं-भावना, भोग-वृत्ति आदि की ओर संकेत करता है। इसमें संवादों की योजना करते समय लेखक ने पात्रों की भाषा में प्रसंग, परिस्थिति तथा पात्रों के सामाजिक स्तर को ध्यान में रखा है। यही कारण है कि उनमें सर्वत्र ताजगी व्याप्त है। प्रेस्थ प्रासाद की दासी वापा का आगमन सुनकर दिव्या और दासी माला के मध्य होने वाला वार्तालाप दिव्या की उद्विग्न, चिन्ताकुल, निराश और अधीर मनःस्थिति के अनुरूप है, तो धर्मस्थ-प्रासाद छोड़ने पर विपत्ति में फँसी छाया और दिव्या की बातचीत उनकी उस समय की मनोदशा के अनुकूल है। उस बातचीत से एक की दृढ़ता टपकती है तो दूसरी का वात्सल्य भाव । कुछ संवादों का प्रयोग विगत घटनाओं की सूचना देने के लिए किया गया है, यथा धर्मस्थ और दिव्या की बातचीत से प्रेस्थ की दासत्वमुक्ति और समाज में प्रतिष्ठा पाने की सूचना मिलती है। 'दिव्या' के संवादों की एक विशेषता यह है कि लेखक बीच-बीच में अपनी ओर से टीका-टिप्पणी करता चलता है जो विवेचनात्मक शैली का बहुत बड़ा अनुबंध है। इससे विभिन्न वार्ता-सूत्र विशृंखलित होने से बच गये हैं और उनमें एक लोच आ गया है और वे प्रबुद्ध-पाठक को क्षण-भर सोचने के लिए अवसर प्रदान करते हैं ।

उपर्युक्त गुण होते हुए भी 'दिव्या' के कथोपकथन पूर्ण रूप से निर्दोष नहीं कहे जा सकते। 'दिव्या' उपन्यास के ऐसे कथोपकथन बोझिल हो गये हैं जहाँ लेखक अपने विचारों के प्रतिपादन के लिए मारिश को माध्यम बनाता है। ऐसे कथोपकथनों से कथा-प्रवाह शिथिल हो गया है। एक-एक पृष्ठ से भी अधिक लम्बे होने के कारण मारिश के ये वक्तव्य शुद्ध सिद्धांत-चर्चा बन गये हैं और जो बात जयशंकर प्रसाद के नाटकों के दार्शनिक संवादों के विषय में कही जाती है, वही 'दिव्या' के इन कथोपकथनों के सम्बन्ध में सत्य है ।

देशकाल एवं वातावरण

कथा साहित्य में देशकाल और वातावरण का अत्यधिक महत्व होता है। इसके द्वारा कथा जीवंत प्रतीत होती है। उपन्यास साहित्य भी इसका अपवाद नहीं है। ऐतिहासिक उपन्यास में देशकाल और वातावरण और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। इसमें आवश्यक हो जाता है कि लेखक जिस काल को अपने उपन्यास का विषय बनाए उस काल की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और सांकृतिक स्थिति के ऐसे जीवंत चित्र प्रस्तुत करे कि पाठक मानसिक रूप से उस काल में विचरण करने लगे और तदाकार हो उठे। 'दिव्या' इस दृष्टि से सफल ऐतिहासिक उपन्यास है। इसे पढ़ते समय बौद्धकालीन उत्तर भारत साकार हो उठता है। बौद्धकाल के प्रारम्भ में धार्मिक मतभेद बहुत बढ़ गये थे और नित्य ही अशोभन घटनाएँ होती रहती थीं। ब्राह्मण और क्षत्रिय स्वयं को कुलीन मानते थे तथा अन्य जातियों को हर पल अपमानित करते रहते थे। उस समय ये दोनों जातियाँ अपने वैभव के चरम पर थीं। समय बीतने पर कुलीन जातियाँ अपने कर्मों से ह्रास की ओर बढ़ने लगीं जिससे अन्य जातियों को सिर उठाने का अवसर मिल गया। हीन जाति के पृथुसेन ने भी यही किया और सत्ता हस्तगत कर ली। प्रतिक्रियास्वरूप कुलीन जातियाँ वर्णाश्रम धर्म का पालन कठोरता से करने लगीं और निम्न जातियों के शासन को कुचलने के लिए तत्पर हो गयीं।
 
बौद्ध धर्म के प्रभाव से तत्कालीन नारी की मर्यादा लुप्त हो चली थी। उसका स्थान वेश्या से भी गया-बीता हो गया था। उस समय यौन पवित्रता को अधिक महत्व नहीं दिया जाता था और कामिनी तथा कादम्य का व्यापक प्रयोग होता था। इस उपन्यास में राजनीतिक वातावरण चित्रित करने के लिए लेखक ने मद्र के गणराज्य को केन्द्र में रखा है। महाराज मिलिन्द के काषाय ग्रहण करके के उपरांत उत्तराधिकारी के अभाव में कुलों ने एक को राजा न मानकर मिथोद्रस को गणपति स्वीकार कर मद्र में गणराज्य की स्थापना की। उस समय सेनापति समाज द्वारा चुना जाता था। मिथोद्रस के सत्तारूढ़ होने से अब गण द्विजकुलों का न होकर मिश्रित था जो वर्ण-व्यवस्था के प्रतिकूल था। उस समय यहाँ बौद्ध धर्म विकसित हो रहा था और राज्यकोष बौद्ध विहारों की सेवा में रिक्त होता जा रहा था। बौद्ध मठों पर शासन का कोई नियंत्रण न था। बौद्ध भिक्षुओं और श्रवणों का समाज में पर्याप्त आदर किया जाता था। इस प्रकार लेखक ने इस उपन्यास में तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक वातावरण का निर्माण कर देशकाल एवं वातावरण तत्व का सफल निर्वाह किया है।
 

भाषा शैली

यशपाल के अधिकांश उपन्यासों की भाषा प्रसाद गुण सम्पन्न, सरल एवं स्पष्ट है। उसमें काव्यात्मकता का न कोई प्रयोजन है और न प्रयास। कला के प्रति कामकाजी दृष्टिकोण के कारण ही अभिधा और स्पष्टता यशपाल की भाषा-शैली की विशेषताएँ हैं। परन्तु 'दिव्या' के प्रणयन के पीछे लेखक का उद्देश्य केवल सामाजिक सम्बन्धों का चित्रण और मार्क्सवादी सिद्धान्तों का प्रतिपादन ही नहीं था, अतीत के रूप-रंग की रक्षा भी उनका मंतव्य था। वे बौद्धकालीन वातावरण को हृदयंगम कराना चाहते थे इसलिए 'दिव्या' की भाषा उनके अन्य उपन्यासों से अलग है। इसमें तत्सम शब्दों और असाधारण भाषा का प्रयोग हुआ है जो कहीं-कहीं ऊब पैदा करने लगता है। पांडित्य प्रदर्शन की झोंक में अनेक शब्द प्रयोग तथा अर्थ की दृष्टि से विवादास्पद हो उठे हैं। जहाँ साधारण शब्दावली और अभिधात्मक शैली से काम नहीं चला है वहाँ व्यंजना और अलंकृत शैली से काम लिया गया है। गद्य में अलंकारों का इतना सुन्दर प्रयोग हिन्दी उपन्यासकारों में से बहुत कम ने किया है। इस प्रकार की काव्यमयी भाषा-शैली का प्रयोग 'दिव्या' को रोमाण्टिक रचना बना देता है। चाहे किसी दृश्य का चित्र हो या किसी स्थिति का अंकन अथवा किसी पात्र की मनोदशा का विश्लेषण, सर्वत्र अलंकारों के प्रयोग द्वारा कथ्य को अधिक कलापूर्ण, प्रभविष्णु और संक्षिप्त बना देने का सफल प्रयत्न किया गया है।
 
नृत्य, संगीत आदि कला-समारोहों के चित्र उतारते समय लेखक ने सरस, सुखद एवं सुमधुर शब्दावली से युक्त शैली का प्रयोग किया है जिस कारण ये चित्र पाठक के कल्पना-चक्षुओं के सम्मुख साकार हो उठते हैं। इसी प्रकार पात्र की मनःस्थिति का चित्रांकन करते समय लेखक कहीं-कहीं अलंकृत भाषा का प्रयोग करता है।
 
लेखक की भाषा सर्वत्र कथ्य के अनुरूप है। तरुण युवक पृथुसेन और कला एवं सौन्दर्य की प्रतिमा दिव्या की प्रेमातुर मनःस्थिति और उनके मिलन का वर्णन इतनी मनोवैज्ञानिकता से हुआ है कि स्पष्ट हो जाता है लेखक मानव मन के सूक्ष्मातिसूक्ष्म रहस्यों को सशक्त भाषा में अभिव्यक्त कर सकता है। इसमें प्रणयी-युगल के मिलन- चित्रों में पर्याप्त स्थूलता है। परन्तु भाषा के साहित्यिक रूप और कलात्मक सौष्ठव ने प्रसंगों की अश्लीलता को कुछ सीमा तक वितृष्णापूर्ण होने से बचा लिया है।
 
यशपाल की शैली 'दिव्या' में वर्णनात्मक और कहीं-कहीं विवेचनात्मक है। विश्लेषण उनके विवेचन का अंग बनकर आता है, अंगी बनकर नहीं। वह विचारों और भावों का कथा-बद्ध विवेचन करते चलते हैं। मनोविश्लेषण के स्थल बहुत कम हैं। यही कारण है कि 'दिव्या' में मनोविश्लेषणात्मक उपन्यासों के समान आत्म-केन्द्रित, उच्छ्वासद्योतक चिह्न-पद्धति नहीं मिलती। न यहाँ आत्मोद्घाटन की मूर्च्छना में वाक्य टूटते दिखाई पड़ते हैं और न आवेगयुक्त विस्मयादिबोधक चिह्नों का प्रयोग ही बहुलता से हुआ है। भावोद्रेक के लिए वर्णों का अविरल पुनर्लेखन भी इस उपन्यास में नहीं पाया जाता। लेखक पूरे वाक्यों का प्रयोग करता है। जैनेन्द्र की भाँति वह पाठक से अपेक्षा नहीं करता कि वह लेखक द्वारा कही गयी अधूरी बात को स्वयं समझने का प्रयास करे। चाहे लेखक अपनी ओर से बात कहे या पात्रों के माध्यम से, बात पूरी निकलती है। वाक्य विन्यास की यह पूर्णता सिद्ध करती है कि लेखक के विचार स्पष्ट हैं। उनमें किसी प्रकार की अस्पष्टता नहीं है। यह स्पष्टता लेखक के आत्म- विश्वास और अभिव्यक्ति के प्रति उसकी ईमानदारी का प्रत्यक्ष प्रमाण है। शैली सर्वत्र कथ्य के अनुरूप है। उसने इस उपन्यास में साहित्यिक सौष्ठव से पूर्ण प्रौढ़, प्रांजल, परिष्कृत तथा भावमय काव्यात्मक भाषा-शैली का प्रयोग किया है। चुने हुए शब्दों द्वारा वांछित बात को कम से कम शब्दों में कह देना उनकी शैली का वैशिष्ट्य है। 'दिव्या' की भाषा इस बात का प्रमाण है कि यशपाल कुशल चित्रकार और शब्द-शिल्पी हैं।
 

उद्देश्य

यशपाल ने अपने उपन्यासों की रचना अपने सिद्धान्तों और अपनी जीवन-दृष्टि प्रस्तुत करने के लिए की है। 'दिव्या' उपन्यास के द्वारा भी लेखक यह प्रतिपादित करना चाहता है कि समाज और व्यक्ति की नैतिकता भौतिक तथा आर्थिक परिस्थितियों का परिणाम होती है। उसने इस रचना में भारतीय अतीत जीवन का मार्क्सवादी अन्वेषण करना चाहा है। वह अतीत के प्रसंग में वर्तमान का विश्लेषण खोजते हुए वर्ग, व्यक्ति और विधान सम्बन्धी अपनी मान्यताओं को प्रस्तुत करना चाहता है। प्रबुद्ध शर्मा और विष्णु शर्मा का विवाद, विधान-विषयक देवशर्मा के उद्गार, प्रेस्थ की पृथुसेन के प्रति कही गयी स्वार्थ-साधक सम्मति, मारिश के लोकायतवारी तर्क, वेश्याओं की हाट में मदोन्मत्त नागरिकों की शासन-समाज विषयक उक्तियाँ लेखक की वर्ग और व्यक्ति सम्बन्धी मान्यताओं को उजागर करती हैं। उदारपंथी, प्रगतिवादी प्रबुद्ध शर्मा के विचार लेखक की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं कि व्यक्ति कर्म से महान् बन सकता है, देवता का विधान केवल विश्वास और अनुमान की वस्तु है। देवशर्मा के धर्म-स्थान सम्बन्धी उद्गार भी आधुनिक प्रगतिशील विचार- धारा का अनुमोदन करते हैं-"धर्म-स्थान कोई स्वयंभू और स्वतन्त्र वस्तु नहीं है। वह केवल समाज की भावना और व्यवस्था की जिह्वा है। 

प्रेस्थ द्वारा पृथुसेन को दिया गया परामर्श भी भौतिकवादी विचारधारा के अनुरूप है - "अवसर को पहचानना कठिन होता है, परन्तु उसे वश में किया जा सकता है तो केवल अग्र-केशों से पकड़कर पुत्र साहस करो।" उपन्यास का पात्र मारिश तो लेखक का ही प्रतिनिधि है। वह भगवान्, भाग्य और कर्मफल को नहीं मानता। उसके विचार में भाग्य का अर्थ है मनुष्य की विवशता और कर्मफल का अर्थ है कष्ट और विवशता के कारण का अज्ञान । वह मनुष्य को निरन्तर प्रयत्न करते रहने की सलाह देता है क्योंकि एक बार प्रयत्न की असफलता मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन नहीं है। शोषक पूँजीपति और सत्ताधारी वर्ग की कूटनीति एवं सर्वहारा के शोषण के विषय में लेखक का मत वेश्याओं की हाट में मदोन्मत नागरिकों की शासन-समाज विषयक उक्तियों से व्यक्त होता है-"कुत्ता कुत्ते को काटता है और मालिक के अन्न की रक्षा करता है। वैसे ही हम-तुम राजपुरुषों की प्रसन्नता के लिए एक-दूसरे का हनन करते हैं।" मारिश द्वारा जनसामान्य को दिये गये उद्बोधन में हमें मार्क्सवादी क्रान्ति का स्वर सुनाई देता है- "अपने लिए लड़ो... अपने अन्न के लिए, अपने वस्त्र के लिए, अपने मेरय के लिए.... मरना तो है ही, अपने मनुष्यत्व और अधिकार के लिए मरो। जो बिना विरोध किए दूसरे के उपयोग में आता है, वह जड़ और निर्जीव है, पशु से हीन भी है।"
 
दिव्या भी लेखक के विचारों की प्रतिनिधि है। दिव्या क्रान्ति तथा विद्रोह का प्रारम्भ है तो मारिश उसकी पूर्णाहुति है। दिव्या की वैयक्तिक क्रान्ति का समाधान मारिश के भौतिकवाद में है। यद्यपि प्रतिपाद्य की दृष्टि से 'दिव्या' पर्याप्त मात्रा में सफल है, पाठक पर यशपाल की विचारधारा का प्रभाव आवश्यक रूप से पड़ता है और कई स्थलों पर वह लेखक से सहमत होता है फिर भी अपने जीवन-दर्शन के प्रतिपादन में 'दिव्या' का लेखक पूर्ण रूप से सफल नहीं कहा जा सकता । स्थूल दृष्टि से देखने पर प्रतीत होता है कि वह नारी-स्वातन्त्र्य का पक्षधर है और दिव्या के विद्रोह के माध्यम से वह नारी जाति को विद्रोह करने के लिए प्रेरित कर रहा है, पर दिव्या का मारिश के आह्वान पर उसकी भुजाओं में आश्रय लेना मनु के विधान की सत्यता को ही सिद्ध करता जान पड़ता है। पृथुसेन का हृदय-परिवर्तन और रुद्रधीर द्वारा पृथुसेन को क्षमा-दान गाँधीवादी प्रयोग की सफलता है, गाँधीवाद की शव परीक्षा नहीं। इस प्रकार उन्होंने उदारवादी जीवन-दर्शन के महत्व को स्वीकार करते हुए मारिश द्वारा सम्पुष्ट भौतिकवादी दर्शन का हल्का-सा ही क्यों न सही पर विरोध किया है। यह अन्तर्विरोध सुबुद्ध पाठक को अवश्य ही खटकेगा। अंशुमाला की निराश मनःस्थिति में मारिश का आश्वासन, आशा का संदेश तथा कर्म की प्रेरणा मात्र अंशु के लिए ही नहीं सारी मानव जाति के लिए है। इस प्रकार लेखक ने 'दिव्या' में जिजीविषा की नैसर्गिक व्यक्ति-चेतना का तर्कसंगत विवेचन करते हुए आशा का संदेश दिया है। वह अतीत के सन्दर्भ में वर्तमान का विश्लेषण करने में पूर्ण रूप से सफल रहा है। उसने अतीत का मनन और मन्थन कर भविष्य के लिए संकेत दिए हैं और यह वास्तव में उसकी महान् देन है।
 

शीर्षक

किसी भी रचना में शीर्षक का अत्यधिक महत्व होता है। जिस प्रकार शरीर की पहचान सिर से होती है, उसी प्रकार रचना की पहचान उसके शीर्षक से होती है। संक्षिप्त, सरल और कुतूहलवर्द्धक शीर्षक श्रेष्ठ माना जाता है। 'दिव्या' शीर्षक इस कसौटी पर खरा उतरता है। इस उपन्यास की पूरी कथा दिव्या के चारों ओर घूमती है। वह उपन्यास की केन्द्रीय पात्र है। शीर्षक पढ़कर पाठक के हृदय में जिज्ञासा उठती है कि दिव्या कौन है, कैसी है और उसके साथ क्या-क्या घटनाएँ घटती हैं। इस उपन्यास का पाठक जब पढ़ना आरम्भ करता है तब वह अंत करके ही उपन्यास को छोड़ता है क्योंकि प्रत्येक पृष्ठ उसकी जिज्ञासाओं को बढ़ाता जाता है और धीरे-धीरे उनका समाधान भी करता जाता है। इस प्रकार इस उपन्यास का शीर्षक 'दिव्या' पूर्ण रूप से सफल शीर्षक है।
 
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि यशपाल ने अपने उपन्यास 'दिव्या' में उपन्यास के सभी तत्वों का सफलतापूर्वक निर्वाह किया है और उपन्यास के तत्वों की दृष्टि से यह एक सफल और महान रचना है। इस प्रकार दिव्या उपन्यास समाज, धर्म और महिलाओं की स्थिति पर एक गंभीर चिंतन कराता है। यह उपन्यास हमें हमारे समाज की कई कमजोरियों और कुरीतियों से अवगत कराता है। यशपाल ने इस उपन्यास के माध्यम से समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई है और महिलाओं को सशक्त बनने का संदेश दिया है।

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