अशोक के फूल निबंध का सारांश | आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

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अशोक के फूल निबंध का सारांश आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी भारतीय संस्कृति और इतिहास के एक अद्वितीय संगम को दर्शाता है। इस निबंध में लेखक अशोक के फूल को

अशोक के फूल निबंध का सारांश | आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी


चार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का निबंध "अशोक के फूल" भारतीय संस्कृति और इतिहास के एक अद्वितीय संगम को दर्शाता है। इस निबंध में लेखक अशोक के फूल को मात्र एक पुष्प के रूप में नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता के विकास और परिवर्तन का एक प्रतीक मानते हैं।

द्विवेदी जी ने अशोक के फूल को भारतीय संस्कृति में दिए गए महत्व को बड़े ही मार्मिक ढंग से चित्रित किया है। उन्होंने बताया है कि कैसे इस फूल को भारतीय धर्म, कला और साहित्य में एक विशेष स्थान प्राप्त है। कालिदास जैसे महान कवियों ने अपने काव्य में अशोक के फूलों को इतनी खूबसूरती से चित्रित किया है कि वे पाठकों के मन में सदैव के लिए अंकित हो गए हैं।लेखक ने अशोक के फूल के प्रतीकात्मक महत्व पर भी प्रकाश डाला है। उनके अनुसार, अशोक के फूल सौंदर्य, प्रेम और जीवन के उत्सव का प्रतीक हैं। भारतीय महिलाओं ने सदियों से इन फूलों को अपने आभूषणों में शामिल किया है और धार्मिक अनुष्ठानों में इनका उपयोग किया है।

प्रस्तुत निबन्ध में हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने 'अशोक के फूल' की सांस्कृतिक परम्परा की खोज करते हुए उसकी महत्ता प्रतिपादित की है। इस फूल के पीछे छिपे हुये विलुप्त सांस्कृतिक गौरव की याद में लेखक का मन उदास हो जाता है और वह उमड़ उमड़ कर भारतीय रस- साधना के पीछे हजारों वर्षों पर बरस जाना चाहता है। वह उस वैभवशाली युग की रंगस्थली में विचरण करने लगता है; जब कालिदास के काव्यों में नववधू के गृह प्रवेश की भाँति शोभा और गरिमा को बिखेरता हुआ ' अशोक का फूल' अवतरित हुआ था। कामदेव के पाँच वाणों में सम्मिलित आम अरविन्द, नील कमल तो उसी प्रकार से सम्मान पाते चले आ रहे हैं। हाँ, बेचारी चमेली की पूछ अवश्य कुछ कम हो गयीं है, किन्तु उसकी माँग अधिक भी थी, तब भी एकमात्र अशोक ही भुलाया गया है। ऐसा मोहक पुष्प क्या भुलाने योग्य है, क्या संसार में सहृदयता मिट गयी है? अशोक में फिर फूल आ गए हैं। इन छोटे-छोटे, लाल-लाल पुष्पों के मनोहर स्तबकों में कैसा मोहन भाव है !
 
अशोक के फूल निबंध का सारांश | आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
बहुत सोच-समझकर कंदर्प देवता ने लाखों मनोहर पुष्पों को छोड़कर सिर्फ पाँच को ही अपने तूणीर में स्थान देने योग्य समझा था। एक यह अशोक ही है, लेकिन पुष्पित अशोक को देखकर मेरा मन उदास हो जाता है। इसलिए नहीं कि सुंदर वस्तुओं को हतभाग्य समझने में मुझे कोई विशेष रस मिलता है। कुछ लोगों को मिलता हैं। वे बहुत दूरदर्शी होते हैं। जो भी सामने पड़ गया उसके जीवन के अंतिम मुहूर्त तक का हिसाब वे लगा लेते हैं। मेरी दृष्टि इतनी दूर तक नहीं जाती। फिर भी इस फूल को देखकर लेखक का मन उदास हो जाता है। वास्तविक कारण तो उसके अंतर्यामी ही जानते होंगे, लेखक ने जो कुछ थोड़ा-बहुत अनुमान लगाया है वह बताता है- कालिदास के पूर्व भारतवर्ष में इस पुष्प का कोई नाम ही नहीं जानता था, परन्तु कालिदास के काव्यों में यह जिस शोभा एवं सौकुमार्य का भार लेकर प्रवेश करता है वह पहले कहाँ था ! कालिदास के काव्यों में नववधू के गृह प्रवेश की भाँति शोभा है, गरिमा है, पवित्रता और सुकुमारता है। मुसलमानी सल्तनत की प्रतिष्ठा के साथ ही साथ यह मनोहर पुष्प साहित्य के सिंहासन से चुपचाप उतार दिया गया। इस पुष्प का नाम तो लोग बाद में भी लेते थे, पर उसी प्रकार जिस प्रकार बुद्ध, विक्रमादित्य का। अशोक को जो सम्मान कालिदास से मिला वह अपूर्व था। वह महादेव के मन में क्षोभ पैदा करता था, मर्यादा पुरुषोत्तम के चित्त में सीता का भ्रम पैदा करता था और मनोजन्मा देवता के एक इशारे पर कंधे पर से ही फूट उठता था।कंदर्प देवता के अन्य बाणों की कदर तो आज भी कवियों की दुनिया में ज्यों-की-त्यों हैं। अरविंद को किसने भुलाया, आम कहाँ छोड़ा गया और नीलोत्पल की माया को कौन काट सका? नवमल्लिका की अवश्य ही अब कोई विशेष यह नहीं है; किंतु उसकी इससे अधिक कदर कभी थी भी नहीं।भुलाया गया है अशोक ।
 
लेखक का मन उमड़-घुमड़कर भारतीय रस-साधना के पिछले हजारों वर्षों पर बरस जाना चाहता है। क्या यह मनोहर पुष्प भुलाने की चीज़ थी? सहृदयता क्या लुप्त हो गई थी ? कविता क्या सो गई थी ? ना, मेरा मन यह सब मानने को तैयार नहीं है। जले पर नमक तो यह है कि एक तरंगायित पत्रवाले निफूले पेड़ को सारे उत्तर भारत में 'अशोक' कहा जाने लगा। याद भी किया तो अपमान करके। ईसवी सन् के आरंभ के आस-पास अशोक का शानदार पुष्प भारतीय धर्म, साहित्य और शिल्प में अद्भुत महिमा के साथ आया था। कंदर्प देवता ने यदि अशोक को चुना है तो यह निश्चित रूप से एक आर्येतर सभ्यता की देन है। इन आर्येतर जातियों के उपास्य वरुण थे, कुबेर थे, बज्रपाणि यक्षपति थे। कंदर्प कामदेवता का नाम हो गया है, तथापि है वह गंधर्व का ही पर्याय। शिव से भिड़ने जाकर एक बार यह पिट चुके थे, विष्णु से डरते रहते थे और बुद्धदेव से भी टक्कर लेकर लौट आए थे। लेकिन कंदर्प देवता हार मानने वाले जीव न थे। बार-बार हारने पर भी वह झुके नहीं। नए-नए अस्त्रों का प्रयोग करते रहे। अशोक शायद अंतिम अस्त्र था ।
 
बौद्ध धर्म को इस नए अस्त्र से उन्होंने घायल कर दिया, शैवमार्ग को अभिभूत कर दिया और शक्ति साधना को झुका दिया। वज्रयान इसका सबूत है, कौल साधना इसका प्रमाण है और कापालिक मत इसका गवाह है। रवींद्रनाथ ने इस भारतवर्ष को 'महामानवसमुद्र' कहा है। विचित्र देश है यह। असुर आए, आर्य आए, शक आए, हूण आए, नाग आए, यक्ष आए, गंधर्व आए न जाने कितनी मानव जातियाँ यहाँ आईं और आज के भारतवर्ष के बनाने में अपना हाथ लगा गई। जिसे हम हिंदू रीति-नीति कहते हैं, वह अनेक आर्य और आर्येतर उपादानों का मिश्रण है। न जाने किस बुरे मुहूर्त में मनोजन्मा देवता ने शिव पर बाण फेंका था। अद्भुत शरीर जलकर राख हो गया और 'वामन-पुराण' (षष्ठ अध्याय) की गवाही पर हमें मालूम है कि उनका रत्नमय धनुष टूटकर खंड-खंड हो धरती पर गिर गया। जहाँ मूठ थी, वह स्थान रुक्म-मणि से बना था, वह टूटकर धरती पर गिरा और चंपे का फूल बन गया। हीरे का बना हुआ जो नाह-स्थान था, वह टूटकर गिरा और मौलसरी के मनोहर पुष्पों में बदल गया।
 
इंद्रनील मणियों का बना हुआ कोटि देश भी टूट गया और सुंदर पाटल पुष्पों में परिवर्तित हो गया। चंद्रकांत मणियों का बना हुआ मध्य देश टूटकर चमेली बन गया और विद्रुम की बनी निम्नतर कोटि बेला बन गई, स्वर्ग को जीतने वाला कठोर धनुष जो धरती पर गिरा तो कोमल फूलों में बदल गया। स्वर्गीय वस्तुएँ धरती से मिले बिना मनोहर नहीं होतीं । यक्ष और यक्षिणी साधारणतः बिलासी और उर्वरता जनक देवता समझे जाते थे। कुबेर तो अक्षय निधि के अधीश्वर भी है। 'यक्ष्मा' नामक रोग के साथ भी इन लोगों का सम्बन्ध जोड़ा जाता है। भरहुत, बोध गया, साँची आदि में उत्कीर्ण मूर्तियों में संतानार्थिनी स्त्रियों का यक्षों के सान्निध्य के लिए वृक्षों के पास जाना अंकित है। इन वृक्षों के पास अंकित मूर्तियों की स्त्रियाँ प्रायः नग्न हैं, केवल कटिदेश में एक चौड़ी मेखला पहने हैं। अशोक इन वृक्षों में सर्वाधिक रहस्यमय है। चैत्रशुक्ला अष्टमी को व्रत करने और अशोक की आठ पत्तियों के भक्षण से स्त्री की संतान-कामना फलवती होती है। 'अशोक- कल्प' में बताया गया है कि अशोक के फूल दो प्रकार के होते हैं-सफेद और लाल। सफेद तो तांत्रिक क्रियाओं में सिद्धिप्रद समझकर व्यवहृत होता है और लाल स्मरवर्धक होता है।
 
आर्य का पहला संघर्ष शायद असुरों से हुआ। यह बड़ी गर्वीली जाति थी। आर्यों का प्रभुत्व इसने कभी नहीं माना। फिर दानवों, दैत्यों और राक्षसों से संघर्ष हुआ। गंधर्वों और यक्षों से कोई संघर्ष नहीं हुआ। वे शायद शांतिप्रिय जातियाँ थीं। भरहुत, साँची, मथुरा आदि में प्राप्त यक्षिणी-मूर्तियों की गठन और बनावट देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ये जातियाँ पहाड़ी थीं। हिमालय का प्रदेश ही गंधर्व, यक्ष और अप्सराओं की निवास भूमि है। आजकल के पंडित पुनालुअन सोसाइटी कहते हैं। वे लोग वानरों और भालुओं की भाँति कृषिपूर्व स्थिति में भी नहीं थे और राक्षसों और असुरों की भाँति व्यापार वाणिज्यवाली स्थिति में भी नहीं। वे मणियों और रत्नों का संधान जानते थे, पृथ्वी के नीचे गड़ी हुई निधियों की जानकारी रखते थे और अनायास धनी हो जाते थे। जो गर्वीली थीं, हार मानने को प्रस्तुत नहीं थी, परवर्ती साहित्य में उनका स्मरण घृणा के साथ किया गया और जो सहज ही मित्र बन गईं, उनके प्रति अवज्ञा और उपेक्षा का भाव नहीं रहा। असुर, राक्षस, दानव और दैत्य पहली श्रेणी में, तथा यक्ष, गंधर्व, किन्नर, सिद्ध, विद्याधर, वानर, भालू आदि दूसरी श्रेणी में आते हैं। अशोक वृक्ष की पूजा इन्हीं गंधर्वों और यक्षों की देन है।
 
असल पूजा अशोक की नहीं, बल्कि उसके अधिष्ठाता कंदर्प देवता की होती थी। इसे 'मदनोत्सव' कहते थे। महाराजा भोज के 'सरस्वती-कंठाभरण' से जान पड़ता है कि यह उत्सव त्रयोदशी के दिन होता था। 'मालविकाग्निमित्र' और 'रत्नावली' में इस उत्सव का बड़ा सरस मनोहर वर्णन मिलता है। किसलयों और कुसुम स्तबकों की मनोहर छाया के नीचे स्फटिक के आसन पर अपने प्रिय को बैठाकर सुंदरियाँ अबीर, कुंकुम, चंदन और पुष्प संभार से पहले कंदर्प देवता की पूजा करती थीं और बाद में सुकुमार भंगिमा से पति के चरणों पर वसंत पुष्पों की अंजलि बिखेर देती थीं। मैं सचमुच इस उत्सव को मादक मानता हूँ। अशोक का वृक्ष उस विशाल सामंत-सभ्यता की परिष्कृत रुचि का ही प्रतीक, जो साधारण प्रजा के परिश्रमों पर पली थी, उसके रक्त से स-सार कणों को खाकर बड़ी हुई थी और लाखों-करोड़ों की उपेक्षा से समृद्ध हुई थी। संतान कामिनियों को गंधर्वों से अधिक शक्तिशाली देवताओं का वरदान मिलने लगा। पीरों ने, भूत-भैरवों ने, काली दुर्गा ने यक्षों की इज्जत घटा दी। धन्य हो महाकाल, तुमने कितनी बार मदनदेवता का गर्व-खंडन किया है, धर्मराज के कारागार में क्रांति मचाई है, यमराज के निर्दय तारल्य को पी लिया है, विधाता के सर्वकर्तृत्व के अभिमान को चूर्ण किया है। 

कालिदास जैसे कल्प कवि ने अशोक के पुष्प को ही नहीं, किसलयों को भी मदमत्त करने वाला बताया था। अवश्य ही शर्त यह थी कि वह दयिता (प्रिया) के कानों में झूम रहा हो। ‘किसलयप्रसवो पि विलासिनां मदयिता दयिता श्रवणार्पितः।' भगवान बुद्ध ने मार,(मदन का ही नामांतर) - विजय के बाद वैरागियों की पलटन खड़ी की थी । यक्षों के वज्रपाणि नामक देवता इस वैराग्यप्रवण धर्म में घुसे और बोधिसत्वों के शिरोमणि बन गए। फिर वज्रयान का अपूर्व धर्म-मार्ग प्रचलित हुआ । त्रिरत्नों में मदन देवता ने आसन पाया। अशोक आज भी उसी मौज में है, जिसमें आज से दो हजार वर्ष पहले था। पंडिताई भी एक बोझ है, जितनी ही भारी होती है, उतनी ही तेजी से डुबाती है। जब वह जीवन का अंग बन जाती है, तो सहज हो जाती है। तब वह बोझ नहीं रहती। अशोक का कुछ भी तो नहीं बिगड़ा है। कितनी मस्ती में झूम रहा है। कालिदास इसका रस ले सके थे। अपने ढंग से। मैं भी ले सकता हूँ, अपने ढंग से। उदास होना बेकार है।

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