राग दरबारी उपन्यास में वैद्य जी का चरित्र चित्रण

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राग दरबारी उपन्यास में वैद्य जी का चरित्र चित्रण श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास राग दरबारी भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं पर एक तीखा व्यंग्य है। उपन्यास में

राग दरबारी उपन्यास में वैद्य जी का चरित्र चित्रण


श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास राग दरबारी भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं पर एक तीखा व्यंग्य है। उपन्यास में अनेक पात्र हैं जो समाज के विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनमें से एक महत्वपूर्ण पात्र हैं वैद्य जी।

वैद्य जी को उपन्यासकार ने एक ऐसे व्यक्ति के रूप में चित्रित किया है जो समाज में अपनी स्थिति और धन का दुरुपयोग करता है। वे एक चालाक, धूर्त और स्वार्थी व्यक्ति हैं जो अपने स्वार्थ के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। वे गांव के लोगों को गुमराह करते हैं और अपनी बात मनवाने के लिए धोखे का सहारा लेते हैं।

रंगनाथ के मामा के रूप में शिवपालगंज के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पात्र वैद्य जी से हमारा परिचय होता है। वे वस्तुतः इस उपन्यास के नायक हैं, क्योंकि कथावस्तु में निहित त्रिकोणात्मक संघर्ष में तीनों कोणों पर वैद्य जी की विजय होती है, जो उपन्यासकार के शब्दों के अनुसार धर्म के ऊपर अधर्म की विजय है । वैद्य जी का चरित्र वस्तुत: स्वयं प्रकट है कि वे निर्मम राजनीतिज्ञ हैं। 

राग दरबारी उपन्यास में वैद्य जी का चरित्र चित्रण
'राग दरबारी' के शीर्षक पर विचार करते हुए डॉ. रामप्रसाद मिश्र ने जो कुछ लिखा है, उसके द्वारा शीर्षक की उपयुक्तता पर कम और वैद्य जी के चरित्र पर अधिक प्रकाश पड़ता है- “अत: शीर्षक का अर्थ हुआ-उपन्यास कला (राग) द्वारा हमारे विभिन्न लोकतांत्रिक समाज एवं सत्तालोक (दरबारी) का चित्रण । उपन्यास के लगभग अन्त में सर्वाधिक सशक्त एवं प्रभावी पात्र वैद्य जी के दरबार में जो शक्ति-प्रभाव से ऊभ-चूभ राग गूँजता है, उसका भी उल्लेख किया जा सकता है। वैद्य जी वस्तुतः उपन्यास का उद्देश्य सार्थक करते हैं- दरबार ही प्रधान है अथवा जिसकी लाठी उसकी भैंस सनातन राग है।"
 
उपन्यास की कथावस्तु का विकास कॉलेज, सहकारी समिति तथा ग्राम सभा के त्रिकोणात्मक संघर्ष को लेकर होता है। उक्त तीनों कोणों पर अथवा कथा की तीनों धाराओं के प्रत्येक मोड़ पर वैद्य जी खड़े हुए दिखाई देते हैं और अन्ततः उनकी तिकड़ियों के सामने उनके समस्त विरोधी मुँह की खाते हैं। तीनों मोर्चों पर जंग चलता है, राजनीति रंग लाती है। के दांव-पेंच चलते हैं, किन्तु अन्ततोगत्वा तीनों में ही वैद्य जी सफल होते हैं। कहीं युद्ध-शक्ति के बल पर, कहीं दाँव-पेंच के बल पर, कहीं त्यागपत्र - कूटकला के बल पर ।
 
काव्यशास्त्र के अनुसार, अधिकार प्राप्त करने वाला पात्र ही कथानक का नायक माना जाता है- “अधिकारफलस्वायपम् अधिकारी च तत्प्रभुः" - की उक्ति को सार्थक करते हुए वैद्य जी 'राग दरबारी' उपन्यास के नायक सिद्ध होते हैं।
 
वैद्य जी और शिवपालगंज को पर्यायवाची माना जाना चाहिए। शिवपालगंज की समस्त राजनीति का संचालन वैद्य जी ही करते थे। राजनीति के दोषों को वैद्य जी खूब पहचानते थे। शिवपालगंज का परिचय देते समय लेखक ने प्रकारान्तर से वैद्य जी का ही परिचय दे दिया है- "घूरों और प्रेम-भवन के बीच पड़ने वाले सड़क के इस हिस्से को शिवपालगंज का किनारा भर मिलता था। ठेठ शिवपालगंज दूसरी ओर सड़क छोड़कर था । असली शिवपालगंज वैद्य जी की बैठक में था।"
 

चतुराई भरी बैठक

वैद्य जी सहकारी समिति के मैनेजिंग डायरेक्टर हैं। यह बात न भूलनी चाहिए कि वैद्य जी इतने प्रसिद्ध सार्वजनिक अवश्य थे, परन्तु वे मूलत: वैद्य की करते थे और जोगियों को दवा देते थे। वैद्य जी का धंधा भी वह बहुत चतुराई के साथ करते थे। "गरीबों को दवा मुफ्त और फायदा न हो तो वैद्य के दाम वापस" - इन दो नारों के सहारे वे मरीजों को अपनी ओर आकर्षित करते थे और इन दो नुस्खों से दूसरों को जो आराम मिला हो, वह तो दूसरी बात है, खुद वैद्य जी को भी आराम की कमी नहीं थी। उनको कोई भी बूढ़ा नहीं कह सकता था। लेखक व्यंग्य करते हुए लिखता है - "राजधानियों में रहकर देश-सेवा करने वाले सैकड़ों महापुरुषों की तरह वे भी उमर के बावजूद बूढ़े नहीं हुए थे।"
 

कुटिल राजनीतिज्ञ

वैद्य जी एक कुटिल राजनीतिज्ञ के रूप में हमारे सामने आते हैं। उनकी कथनी और करनी में आकाश-पाताल का अन्तर है। वे उन साधुओं की तरह धूर्त थे, जो अपने हाथ से धन न छूने का ढोंग करके धन बटोरने में लगे रहते हैं। उनकी कुटिलता को लेखक ने इन शब्दों में उजागर किया है- "हर बड़े राजनीतिज्ञ की तरह उन्होंने राजनीतिक पार्टी में कोई पद नहीं लिया था, क्योंकि वे नए खून को प्रोत्साहित करना चाहते थे।कोऑपरेटिव से कॉलेज के मामलों में लोगों ने उन्हें विवश कर दिया था और उन्होंने विवश होकर स्वीकार कर लिया था।"
 

ब्रह्मचर्य के प्रतिपादक

वैद्य जी ने समस्त रोगों का कारण और इलाज एकमात्र ब्रह्मचर्य को मान रखा था। किसी प्रकार का रोगी हो, वह केवल इसी कारण बीमार था, क्योंकि उसने ब्रह्मचर्य का पालन नहीं किया होगा। यदि कोई रोगी यह कहता कि उसकी सेहत गरीबी और अच्छी खुराक न मिलने के कारण खराब हो गई है तो वैद्य जी की राय में वह व्यक्ति घुमा-फिराकर ब्रह्मचर्य के महत्व को अस्वीकार कर रहा था। वैद्य जी ने एक दिन पाचन-क्रिया का वैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए रंगनाथ को बताया कि एक बूँद वीर्य बनने मैं कितना व्यय होता है। इस बात को लेखक इस रूप में लिखता है-“वीर्य की एक बूँद बनने में जितना खर्च होता है, उतना एक ऐटम बम्ब बनाने में भी नहीं होता।"
 

चतुर नेता

जाति-प्रथा की लड़ाई वाले लंगड़ को वे केवल आशीर्वाद देते हैं, जाओ भाई! तुम धर्म की लड़ाई लड़ रहे हो, लड़ते जाओ, उसमें मैं क्या सहायता कर सकता हूँ?इसके उत्तरस्वरूप लंगड़ अपना क्षोभ व्यक्त करते हुए कहता है-"ठीक ही है बाबू ! ऐसी लड़ाई में तुम क्या करोगे, जब कोई सिफारिश- विफारिश की बात होगी, तब आकर तुम्हारी चौखट पर सिर रगड़ेंगा।"
 

प्रभावशाली व्यक्तित्व

प्रिंसीपल अपनी बात पर अड़ने वाले व्यक्ति हैं, परन्तु वैद्य जी के मारे घबराते हैं, क्योंकि हर बात पर जिद करना, वैद्य जी को छोड़कर सब किसी के आगे अपनी टेक पर अड़े रहना और कोई परवाह नहीं, मौका आने पर समझ लेंगे-का बराबर प्रयोग करना उनके जीवन-दर्शन का एक अनिवार्य अंग बन गया था। छोटे पहलवान भी इस तथ्य को स्वीकार करता है-“वैद्य जी इतने से थोड़े ही मान जायेंगे।" 

उपसंहार

वैद्य जी बहुत ही घुटे-मँजे राजनीतिज्ञ हैं । त्यागपत्र तब देना चाहते हैं, अन्यत्र किसी श्रेष्ठ पद की सम्भावना हो। राजनेताओं की तरह चारों कोने घूम सकते हैं-मित्रता की यात्रा में वैद्य जी की वीर्यपुष्टि की गोलियाँ, ज्योतिषियों के विषय में सूचना - प्रसारण और बाबाओं के साथ मध्यस्थता; चौथी बात इस तुरुप चाल के रूप में चली- “आप को जानकर प्रसन्नता होगी कि मैं अपने लड़के का विवाह अन्तर्जातीय रूप में करने की सोच रहा हूँ।"

इस प्रकार राग दरबारी में वैद्य जी का चरित्र एक महत्वपूर्ण और जटिल चरित्र है। वे उपन्यास के माध्यम से समाज के उन लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो सत्ता और धन का दुरुपयोग करते हैं। वैद्य जी का चरित्र उपन्यास को अधिक यथार्थवादी और प्रभावशाली बनाता है।

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