नटवर | महिपाल प्रजापति की कहानी

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मैं आश्चर्यचकित रह गया। मैं यह तो जानता था कि उन्हें नटवर के देश से चले जाने की अत्यधिक खुशी होगी। पर इतनी खुशी होगी इसका अंदाजा नहीं था।

नटवर


टवर से मेरी मुलाकात कनाट प्लेस की एक लाइब्रेरी में हुई थी। नटवर सामान्य कद काठी के ही नजर आते थे। लाइब्रेरी में उनको करीब से देखने समझने का अवसर मिला। धीरे-धीरे उनकी सोलह कलाओं का भी ज्ञान होता गया। पता चला कि जो भी नटवर के संपर्क में आया उनमें से शायद ही कोई ऐसा हो जिसे उन्होंने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से चोट न पहुंचाई हो। मैंने सुना था कि किसी-किसी की छठी इद्री जाग्रत होती है तो उस व्यक्ति को आगामी खतरों का पूर्वाभास हो जाता है। परंतु मैंने कोई ऐसा देखा नहीं था जिसकी छठी इद्री जगी हुई हो और संकट को पहले से ही भांप लेता हो। लेकिन यहां मैंने नटवर के रूप में साक्षात देख लिया था।

एक बार की बात है मैं और नटवर ऑफिस के कार्य से बाहर गए हुए थे। वापस आते-आते थोड़ी देर हो गई। यही कोई साढ़े सात का समय रहा होगा। ऑफिस के मुख्य द्वार में जैसे ही प्रवेश किया उनके एक मदिरापान के साथी मिल गए। उन्हें देखते ही नटवर की बांछें खिल गई। वह ऐसे मिले कि कुंभ के मेले में बिछड़े मिल गए हों। दोनों में आपस में क्या बात हुई मुझे पता नहीं चला। नटवर ने मुझसे कहा ‘‘तू यहीं रहियो हम अभी आते हैं।’’ नटवर मधुशाला की ओर दौड़े चले गए, वापस आए तो एक खाकी लिफाफें में एक अद्धा लेकर प्रस्तुत हुए। मुझसे आकर बोले चल यार थोड़ी देर बैठते हैं, आज शर्मा जी की ओर से है। मैंने कहा कि तुम बैठो मुझे घर जाना है बाद में बस नहीं मिल पाएगी। वह बोले अरे छोड़ यार कोई बात नहीं मैं तुझे घर छोड़ आऊंगा। उसकी बातों में आकर ऑफिस में ही एक सुरक्षित जगह पर बैठकर ड्रिंक बनाए गए। मुझे भी चखने का अवसर मिला। खैर महफिल का समापन हुआ ऑफिस से बाहर निकले लिफ्ट के पास आए।

नटवर | महिपाल प्रजापति की कहानी
नीचे ग्राउंड पर जाने के लिए पास में ही सीढ़ियां भी थी। ऊपर मुंह उठाकर देखा तो लिफ्ट पांचवे तल पर थी। नटवर ने बहुत आग्रह किया कि सीढ़ियों से चलते हैं। मैंने कहा रात साढ़े आठ से ज्यादा का समय हो गया हैं अब कोई नहीं मिलेगा। विचार-विमर्श चल ही रहा था कि लिफ्ट सामने आकर खुली और हम तीनों उसमें घुस गए। लिफ्ट ग्राउंट तल की ओर सनसनाती हुई चली और एक हल्के झटके के साथ ग्राउंड पर रुक गई। जैसे ही लिफ्ट खुली अधिकारी सामने खड़ा था। हम एक दम चौंक गए। लेकिन नटवर इस खेल के माहिर खिलाड़ी थे। उनके हाव-भाव में न कोई परिवर्तन न कोई डर। अधिकारी ने बोला-‘‘मिस्टर नटवर कम विथ मी’’ और उसने नटवर का हाथ पकड़कर उसी लिफ्ट में अंदर कर लिया। मैं और शर्मा जी बाहर निकल आए। मेरा सारा नशा हिरण हो गया, माथे पर पसीने की बूंदें छलछला आईं। काटो तो खून नहीं वाली स्थिति हो गई। ऐसे-तैसे सड़क क्रॉस की तो एक बस आ गई और उसमें बैठ गया। हमारे दिमाग में अज्ञात भय मिश्रित विचारों का सिलसिला चल निकला। अब नटवर नहीं बच पाएगा। नटवर की पेंट की जेबों तो दो पउआ भी हैं। जो उसने कल ड्राइ डे होने की वजह से आज ही खरीद लिए थे। जब नटवर से अधिकारी कड़ी पूछताछ करेगा तो निश्चित रूप से सारा भांडा फूट जाएगा और नटवर बता देगा कि मैं भी उसके साथ था। आगे दो दिन शनिवार-रविवार की छुट्टी थी। हमारा वीकेंड बहुत बुरा गुजरा। न गले के नीचे पानी उतर रहा था और न खाना। दो रातों तक इसी फ्रिक्र में सो नहीं सका। मन बार-बार धिक्कार रहा था कि नटवर की बातों में आकर बड़ी गलती की। मुश्किल से जॉब हाथ लगी थी वह भी हाथ से निकल जाएगी।

मंडे को सुबह जल्दी से तैयार होकर समय से काफी पहले ही ऑफिस के लिए निकल गया। सीधे नटवर की टेबल पर पहुंचा। नटवर सामान्य दिनों की भांति अंग्रेजी का हिन्दुस्तान टाइम्स खोलकर अखबार की किसी सुर्खी में खोए हुए थे। हालांकि नटवर का अंग्रेजी में हाथ तंग था और खबर की विस्तृत व्याख्या पढ़ने के लिए हिन्दी अखबार की तलाश में हमारे पास अवश्य आते थे। पहुंचते ही मैंने पूछा, ‘‘नटवर क्या हुआ?’’ वह बोले, ‘‘क्या हुआ?’’ मैंने कहा, ‘‘उस दिन तुम्हें अधिकारी पकड़कर ले गया था, तुमसे क्या पूछताछ हुई?’’ उसने कहा ‘‘कुछ नहीं’’। लेकिन तेरी जेबों में तो दो पउआ थे! क्या वह अधिकारी ने नहीं देखे? वह बोला, ‘‘देखता कैसे मैं उसके पास जाने से पहले ही अपनी डेस्क की दराज में रखकर उसके पास गया था।’’ मैंने कहा, ‘‘फिर उसने तुझे बुलाया क्यों था?’’ वह बोला ‘‘कुछ नहीं वो ट्रांसक्राइबिंग मशीन के तार लगाने उसे नहीं आते थे इसलिए!’’ मैंने तार लगाए और अपनी टेबल से पउआ निकाले और सीधा घर चला गया। थोड़ी देर रुककर नटवर बोले ‘‘लेकिन मैं तेरे से बहुत नाराज हूं’’, मैंने पूछा भाई मुझसे क्यों नाराज है? वह बोला, ‘‘मैंने तुझे पहले कहा था न कि सीढ़ियों से चल, लेकिन तू नहीं माना। अगर मैं हिकमत न जानता होता तो मेरी जान पर बन आती और तू भी चक्कर में फंसता।’’ मेरे पास नटवर की इस बात का कोई जवाब नहीं था। थोड़ी देर के लिए कमरे में सन्नाटा छा गया और मैं निरुत्तर होकर उसके चेहरे को देखता रह गया। सन्नाटे को तोड़ते हुए नटवर बोला- ‘‘यार ऐसे डरा नहीं करते, ऐसी संकट की घड़ी में दिमाग लगाकर हिम्मत से काम लेते हैं।’’

नटवर में ऐसे बहुत से गुण थे। उनकी चतुरता से पीडित व्यक्ति विवशता में कसमसा के रह जाते थे। हर लाभ के अवसर पर मैंने उन्हें हर सूरत में उपस्थित देखा और हर काम के मौके पर नदारद। वह इस फन के बड़े ही माहिर प्लेयर थे। कभी कोई भी उनकी उस्तादी को नहीं पकड़ सका और वह हमेशा अधिकारियों की आंख का तारा बने रहे।

शुरू के दिनों में उन्होंने एक वितरण विभाग में काफी अर्से तक कार्य किया था। वहां पर 15-20 उनके ही स्तर के अन्य कर्मचारी भी थे। उनमें कोई ऐसा नहीं था जिसको उन्होंने सीधे तौर पर या अप्रत्यक्ष रूप से चोट न पहुंचाई हो और वे कसमसा के न रह गए हों। वे अपनी पीड़ा व्यक्त भी न कर सके थे। वह बेबश पीड़ित मन ही मन क्या कहते होंगे यह लिखने योग्य नहीं है। मैं भी नटवर की इन शरारतों का भुक्त भोगी रहा। हर काम जो उन्हें करना चाहिए उससे बचने के लिए उन्होंने ऐसी परिस्थिति पैदा की कि मुझे करना पड़ा। और पुरस्कार या लाभ पाने वालों की पंक्ति में सदैव आगे दिखाई दिए। मेरे मन में सदैव रहता कि नटवर किसी न किसी दिन आंकड़े में जरूर आएंगे तब कहीं जाकर लोगों के दिलों में ठंडक पहुंचेगी। इस तरह के अप्रत्यक्ष कर्मों का क्या फल है इस विषय में भी विभिन्न लोगों से चर्चा भी की।

जब भी खाली समय होता मि. नटवर मुझसे चुहलबाजी करने के लिए हमारी टेबल के सामने की कुर्सी पर आकर बैठ जाते थे। मैंने कई बार उनसे हंसी ठिठोली में ही प्रश्न किया, ‘‘नटवर तुम जब एकांत में विचार करते होगे, मेरा मतलब कि अपनी अंतर आत्मा में झांकते होगे कि मैंने भोले-भाले लोगों को किस तरह से ठेस पहुंचाई तो तुम्हारा मन तुम्हें धिक्कारता तो होगा! आत्मग्लानि तो होती होगी! मैंने कहा, यह तो सोचो कि एक दिन न्याय तो अवश्य होगा! सोचो तब क्या होगा, वहां पर तुम्हारी सारी होशियारी काम नहीं आएगी। मैंने अपने इस विश्वास की पुष्टि एक मौलवी से भी कराने की कोशिश की। उन्होंने भी कहा- ‘‘आखिरात में इंसाफ तो जरूर होगा।’’ इस बात पर मि. नटवर कुछ सहम तो गए पर उन्होंने इस बात को स्वीकार नहीं किया। प्रतिवाद करते हुए कहने लगे- ‘‘पुलिस की निगाह में चोर गलत होता है लेकिन चोर की नजर में पुलिस। बस अपने-अपने नजरिए की बात है।’’ मैं उनके दार्शिनिकतापूर्ण इस चिंतन से एक बार फिर अवाक् रह गया।

इस न्याय-अन्याय का चैप्टर क्लोज करते हुए नटवर ने 20 वर्ष की सेवा के पश्चात भारत छोड़कर अमेरिका में जाने का फैसला किया। कुछ विचारमग्न मुद्रा में हमारी टेबल के सामने आकर बैठे गए, मैंने पूछा कि क्या बात है आज चुपचाप कैसे हो? कहने लगे यार मैंने देश से बाहर जाने की सोच ली है। मैंने कहा, क्या बात है यहां पर लोगों की आंखों में मिर्चें झोकने-झोंकते थक चुके हो या लोगों की आंखों पर मिर्च का वह प्रभाव नहीं रहा। अब इस काम के लिए पाताल देश के लिए जा रहे हो। वे बोले ‘‘यार तू मुझे हमेशा गलत ही सोचता रहता है। आदमी को क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं, यह बात तू नहीं जानता है।’’ मैं उनके इस तथ्य से इनकार नहीं कर पाया। फिर भी मैंने कहा चलो अच्छा हुआ। मैंने खुशी व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘जिस दिन तुम्हारा जहाज पाताल लोक की ओर उड़ान भरेगा और अपने पंजे समेटकर इस देश की सीमा पार कर जाएगा तब मैं ‘‘घी के दिए जलाऊंगा।’’ इस शुभ कार्य में मैं ऑफिस के अन्य इच्छुक लोगों को भी शामिल करूंगा।

मैंने सबसे पहले उनके पूर्व ऑफिस में फोन करके बताया कि नटवर ने देश छोड़ने का फैसला कर लिया है। इस खबर से उनके सभी पूर्व साथियों में खुशी की लहर दौड़ गई। मैंने उन्हें आगे बताया कि इस खुशी के अवसर पर मैंने ‘‘घी के दिए जलाने’’ का प्रोग्राम बनाया है। तो आप लोगों में से कोई भी कंट्रीब्यूशन करना चाहता है तो उसका भी स्वागत किया जाएगा। थोड़ी देर के बाद वितरण विभाग के प्रमुख का फोन आया कि वितरण विभाग इस खबर से फूला नहीं समा रहा है। इन सभी कर्मचारियों के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे हैं। और यह सभी लोग ‘‘घी के दिए जलाने के प्रोग्राम’’ में भरपूर योगदान करना चाहते हैं। मैं आश्चर्यचकित रह गया। मैं यह तो जानता था कि उन्हें नटवर के देश से चले जाने की अत्यधिक खुशी होगी। पर इतनी खुशी होगी इसका अंदाजा नहीं था।


- महिपाल प्रजापति

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