स्कन्दगुप्त नाटक में भारतीय एवं पाश्चात्य नाट्य कला का सुन्दर समावेश हुआ है

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स्कन्दगुप्त नाटक में भारतीय और पाश्चात्य नाट्य कला का एक अद्भुत सम्मिश्रण देखने को मिलता है। जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित यह नाटक, भारतीय संस्कृति और इति

स्कन्दगुप्त नाटक में भारतीय एवं पाश्चात्य नाट्य कला का सुन्दर समावेश हुआ है


स्कन्दगुप्त नाटक में भारतीय और पाश्चात्य नाट्य कला का एक अद्भुत सम्मिश्रण देखने को मिलता है। जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित यह नाटक, भारतीय संस्कृति और इतिहास को पाश्चात्य नाट्य शैली में ढालने का एक सफल प्रयास है।

प्रतिभाशाली साहित्यकार अपने युगीन प्रभावों की उपेक्षा नहीं कर पाता। युग-प्रभाव को अभिव्यंजित करना साहित्यकार का धर्म है। वह अपने आधुनिक विचारों के कारण ही समाज को एक नयी दिशा देने में समर्थ होता है। स्कन्दगुप्त नाटक की रचना-शैली में भारतीय एवं पाश्चात्य दोनों ही शैलियों का प्रभाव स्पष्ट है। 'प्रसाद' जी की यह उदात्त कल्पना और इतिहास के समन्वय दोनों से एकाकार होकर भारतीय एवं पाश्चात्य शैली से अभिहित उनका यह नाटक लालित्यपूर्ण बन गया है। पाश्चात्य नाटकों में संघर्ष, सक्रियता तथा समष्टि प्रभाव को ही नाटक-उत्कर्ष का गुण स्वीकार किया गया है। इस दृष्टि से यदि स्कन्दगुप्त की समीक्षा की जाय तो पात्रों के द्वन्द्व-मूलक चरित्र-वैचित्र्य के उद्घाटन की जो प्रवृत्ति पाश्चात्य नाटककारों में परिलक्षित होती है, वह इस नाटक में यथास्थान प्रतिष्ठित है। द्वन्द्वमयी चरित्रांकन पद्धति प्रसाद जी की अपनी विशेषता है। देवसेना तथा स्कन्दगुप्त के चरित्रों का निर्माण उन्होंने इसी शैली के आधार पर किया है। पाश्चात्य नाटकों के विभिन्न नाटककारों का जो प्रभाव स्कन्दगुप्त के पात्रों पर पड़ा है, उसका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है- 

अन्तर्द्वन्द्व का प्रभाव

महान् नाटककार शेक्सपियर के अन्तर्द्वन्द्व का स्पष्ट प्रभाव स्कन्दगुप्त पर पड़ा है। वैसे तो प्रसाद जी के सभी नाटकों में अन्तर्द्वन्द्व का पूर्ण आग्रह है, किन्तु स्कन्दगुप्त में इसका व्यापक रूप से उपयोग है। उन्होंने प्रारम्भ में ही प्रधान चरित्र स्कन्दगुप्त के एक आत्मकथन में उसके अन्तर्द्वन्द्व को प्रस्तुत किया है। यह द्वन्द्व उसे अधिकार के प्रति उदासीनता एवं कर्त्तव्य के प्रति जागृति को लेकर है। इस नाटक का नायक स्कन्दगुप्त चिन्तनशील एवं दूरदर्शी है और उसके चरित्र के द्वन्द्व की अभिव्यक्ति चिन्तन की मुद्रा में कहे गये आत्मकथनों पर है। स्कन्दगुप्त का द्वन्द्व नाटक के आदि से अन्त तक विद्यमान रहता है। देवसेना के चरित्र का द्वन्द्व उसके आदर्श और यथार्थ को लेकर है। देवसेना पूरे चरित्र में जीवन की कटु वास्तविकताओं से संघर्ष करती है और अन्तर्द्वन्द्व से ग्रसित रहती है। इसी तरह नाटक के अन्य पात्रों भटार्क में न्याय-अन्याय को लेकर, सर्वनाम में सद्-असद् प्रवृत्ति को लेकर और विजया के चरित्र का द्वन्द्व यथार्थ और आदर्श को लेकर है। इसमें विजया जीवन की कटु वास्तविकताओं के प्रति निश्चेत और स्वार्थों में लिप्त प्रतीत होती है। इन सभी पात्रों के चरित्रों का द्वन्द्व चिन्तनशील प्रवृत्ति का आलम्बन लेकर स्वकथनों में ही अभिव्यक्त है।
 

हेमलेट एवं स्कन्दगुप्त

शेक्सपियर के प्रसिद्ध नाटक 'हेमलेट' में अन्तर्द्वन्द्व की अभिव्यक्ति सबसे अधिक सशक्त रूप में हुई है। हेमलेट के चरित्र का द्वन्द्व पितृहन्ता से प्रतिशोध लेने और अपनी अकर्मण्यता के मध्य है। उसके चरित्र का यह द्वन्द्व अपने कर्त्तव्य के प्रति जागरूकता और चिन्तनशील प्रवृत्ति के मानसिक संघर्ष के रूप में प्रकट हुआ है। हेमलेट के चरित्र का यही द्वन्द्व स्कन्दगुप्त में देखने को मिलता है। हेमलेट के चरित्र की तुलना में 'स्कन्दगुप्त' का चरित्र उदात्त एवं श्रेष्ठ है। भटार्क के चरित्र में जीवन मे सद-असद पक्ष को लेकर जिस द्वन्द्व का निर्माण किया गया है। वह मैकबेथ के चरित्र के अन्तद्वंद्व से बहुत साम्य रखता है। अन्य चरित्रों में अंतद्वंद्र की अवधारणा प्रसाद जी ने मूल रूप से शेक्सपियर के इन्हीं दोनों चरित्रों से ग्रहण की है। 

बाह्यद्वन्द्व का प्रभाव

शेक्सपियर के नाटकों में अन्तर्द्वन्द्व और बाह्यद्वन्द्व के साथ किसी चरि विशेष की किसी विशिष्ट आन्तरिक वृत्ति के साथ बाह्य परिस्थितियों के द्वन्द्व को दर्शाया गया है हेमलेट का द्वन्द्व प्रतिशोध की भावना में निहित है और क्वाडियस द्वारा उसकी इस प्रवृत्ति को रोकन के बाह्य प्रयास का आविर्भाव हुआ है। इन चरित्रों से ऊपर उठकर प्रसाद का स्कन्दगुप्त अधिकार प्रति उदासीन होते हुए भी अपने कर्त्तव्य से विमुख नहीं होता है। अन्त में ब्रह्मचर्य पालन करने व प्रण करके वह राजभक्ति का परिचय देता है। इसके विपरीत मैकबेथ भीषण रक्तपात के उपरान अन्तरात्मा के प्रबल आग्रह के फलस्वरूप सद्मार्ग पर आना चहता है, किन्तु बाह्य परिस्थितियाँ उ ऐसा नहीं करने देती ।
 

भारतीय एवं पाश्चात्य कथा योजना का समन्वय 

स्कन्दगुप्त नाटक में भारतीय एवं पाश्चात्य नाट्य कला का सुन्दर समावेश हुआ है
प्रसाद जी ने स्कन्दगुप्त में पाश्चात्य के अन्तर्द्वन्द्व को ग्रहण नहीं किया, अपितु वहाँ की व्याप कथावस्तु को भारतीय कथावस्तु में समाहित किया है। शेक्सपियर ने मूलकथा के साथ प्रासंगि कथाओं का संयोग, नाटक के मूल तत्त्व संघर्ष की ओर उत्कृष्ट बनाने के लिए किया है। इसी कारण स्कन्दगुप्त के द्वारा विदेशी आक्रान्ता और गृह युद्धों के समाप्तोपरान्त अधिकारिक कथा से विजया के प्रति आकर्षण और देवसेना के प्रति अनुरक्ता के प्रसंगों को जोड़ दिया गया है स्कन्दगुप्त के वीरोचित कृत्यों के कारण विजया और देवसेना से प्रणय के प्रसंग, जीवन की व्यापकत को चित्रित करने के उद्देश्य से समाहित किये गये हैं। विजया और देवसेना के प्रेम दो विरोध स्वरूप हैं, जो पूर्ण रूप से पाश्चात्य कथावस्तु से गृहीत हैं। मातृगुप्त का प्रेम एक ओर अति भावु और दूसरी और लिप्सा से युक्त है। बौद्ध धर्म के दो परस्पर विपरीत स्वरूपों को प्रपंच बुद्धि, प्रख्य बुद्धि के माध्यम से चित्रित किया है। जयमाला अपने पिता को उसके कर्त्तव्य के प्रति जागृत करती है इसके विपरीत अनन्त देवी अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अपने पति की हत्या तक कर देती है। इस तरह प्रत्येक पात्र के साथ उसके मानवेतर गुणों को दो विपरीत स्वरूपों में प्रकट किय गया है ।
 
इस प्रकार, यह कहना उचित है कि प्रसाद जी ने अपने नाटक के अधिकाधिक और प्रासंगि कथाओं के सम्मिश्रण में भी शेक्सपियर की तरह नाटक के मूल तत्त्व संघर्ष को अवतरित किया है ।

चरित्रों और चरित्र चित्रणों का प्रभाव

प्रसाद के कतिपय पात्र शेक्सपियर के पात्रों बिलकुल मिलते हैं। उनके चरित्रों में पूर्ण साम्य है। स्कन्दगुप्त शेक्सपियर के हेमलेट जैसा चिन्तनशील और धैर्यवान् है। भटार्क में मैकवेथ के घृणित कृत्य एवं अपनी महत्त्वाकांक्षा के लिए असद् पथ प चलना चित्रित है, किन्तु भारतीय प्रवृत्ति के अनुसार भटार्क अन्त में सदवृत्ति पर आकर पश्चाता करता है। अनन्तदेवी का भटार्क के साथ जो सम्बन्ध है, वह शेक्सपियर के इसी नाटक के द्विती अंक के एक चरित्र ड्यूक ऑफ स्फॉक के इंगलैण्ड की साम्राज्ञी मार्गरेट से सम्बन्धित प्रसंग से बहुत कुछ साम्यता है। भटार्क और अनन्त देवी के चरित्रों में शेक्सपियर के नाटकों के खलनायक औ खलनायिका की भी विशेषताएँ प्रकट हुई हैं, प्रपंचबुद्धि का चरित्र शेक्सपियर के खलचरित्र वीट् एन्ड्रानिक्स के अयन की भाँति अपने अन्तिम क्षणों तक कुत्सित वृत्तियों का त्याग नहीं करता है। इस प्रकार विजया खलनायिका की प्रवृत्तियों में किंगलियर की गानेरिल के चरित्र से साम्य करती है गानेरिल के चरित्र के वासना का उद्दाम वेग और प्रणय में अपनी प्रतिद्वन्द्वी की क्रूरतापूर्वक हत्य करने की क्षमता विजया में देखी जा सकती है। इस प्रकार, प्रसाद जी के पुरुष और स्त्री दोनों है चरित्रों पर शेक्सपियर के चरित्रों की स्पष्ट झलक मिलती है।
 

शेक्सपियर के चरित्र चित्रण की प्रमुख विशेषता मानव

चरित्र की अनेकरूपता अथव व्यक्ति-वैचित्र्य का उद्घाटन है। पाश्चात्य नाटक के मूल तत्त्व संघर्ष को दृष्टि में रखते हुए उन्होंने चरित्र-चित्रण में भी तुलनात्मक विरोधी भाव को परस्पर विरोधी पात्रों का सृजन करके प्रकट किया है। किसी विशेष व्यक्ति के चरित्र को निखारने के लिए पूरक पात्रों का समावेश शेक्सपियर ने किया है। इस तरह प्रसाद जी ने स्कन्दगुप्त में शेक्सपियर के चरित्र चित्रण की इन सभी प्रवृत्तियों का अनुशीलन किया है।
 
शेक्सपियर ने राजन्य वर्ग के चरित्रों की अपनी रचनाओं में प्रधान स्थान देते हुए अरस्तू की भाँति मात्र उन्हीं लोगों तक सज्जनता नहीं स्वीकार की, अपितु निम्न वर्ग के पात्रों में भी उच्चकोटि की सद्वृत्ति की स्थापना की है। 'रामा' का चरित्र 'स्कन्दगुप्त' में इन्हीं सद्वृत्तियों से मण्डित है।
 
इस प्रकार, हम देखते हैं कि स्कन्दगुप्त में महाकवि शेक्सपियर के नाटकों का स्पष्ट प्रभाव है, किन्तु शेक्सपियर के अतिरिक्त इस नाटक पर मिल्टन के 'कोमस' और टालस्टाय के 'दि लाइट साइन्स इन डार्कनेस' का कुछ प्रभाव परिलक्षित है। विजया का कामग्रसित होकर स्कन्दगुप्त से प्रणय-याचना का प्रसंग 'कोमस' के यक्ष द्वारा अपनी अपहरित कुमार से प्रणय निवेदन से साम्य रखता है। जयमाला में टालस्टाय के एक इसी प्रकार के नारी चरित्र 'मेरी सरयान्तसब' की स्पष्ट छाया झलकती हैं। प्रसाद जी देवसेना और विजया जैसी भावुक वृत्ति की नारियों के साथ जयमाला जैसी उत्कृष्ट एवं सजग व्यक्तित्व को बुद्धिवादी नाटकों की प्रेरणा स्वीकार की जा सकती है।
 
इस प्रकार, स्पष्ट है कि प्रसाद के प्रसिद्ध नाटक 'स्कन्दगुप्त' में भारतीय एवं पाश्चात्य नाट्य कला का पूर्ण सामंजस्य है। डॉ० जगन्नाथप्रसाद शर्मा ने अपनी शोधकृति 'प्रसाद के नाटकों का शास्त्रीय अध्ययन' में लिखा है- “रचना-पद्धति और नाटकीय गुण के विचार से प्रसाद का सर्वोत्तम नाटक स्कन्दगुप्त है। इसमें पाश्चात्य एवं भारतीय नाट्यशास्त्र के विदित सिद्धान्तों का व्यावहारिक प्रयोग बड़ा सुन्दर हुआ है।”

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