मैला आँचल उपन्यास का सारांश | फणीश्वरनाथ रेणु

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मैला आँचल उपन्यास का सारांश फणीश्वरनाथ रेणु उपन्यास में ग्रामीण समाज की जटिलताओं, कुरीतियों, संघर्षों और आकांक्षाओं को बड़ी ही खुलकर उजागर किया गया ह

मैला आँचल उपन्यास का सारांश | फणीश्वरनाथ रेणु


णीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास मैला आँचल हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। यह उपन्यास बिहार के ग्रामीण जीवन का एक यथार्थवादी चित्रण प्रस्तुत करता है। उपन्यास में ग्रामीण समाज की जटिलताओं, कुरीतियों, संघर्षों और आकांक्षाओं को बड़ी ही खुलकर उजागर किया गया है।

पूर्णिया बिहार राज्य का एक जिला है। इसके एक ओर है नेपाल, दूसरी ओर पाकिस्तान और पश्चिमी बंगाल । विभिन्न सीमा रेखाओं से इसकी बनावट मुकम्मल हो जाती है, जबकि दक्खिन में संथाल परगना और पश्चिम में मिथला की सीमा रेखाएँ खींच दी जाती हैं। उपन्यासकार ने इसी के एक भू-भाग के एक ही गाँव को पिछड़े गाँवों का प्रतीक मानकर, इस उपन्यास का कथा-क्षेत्र तैयार किया है। यह एक गाँव है - मेरीगंज जो रौतहट स्टेशन से सात कोस पूरब दिशा में स्थित है।
 
मेरीगंज मूलतः एक जंगल था जिसको स्थानीय लोग 'नवाबी तड़बन्ना' के नाम से जानते थे। यह नवाब कौन था ? इसे कौन नहीं जानता। इस जंगल के पास लाखों एकड़ बंजर भूमि पड़ी थी। जिसमें घास तक नहीं उगती थी। इसी बंजर भूमि के एक भाग में, किसी समय एक अंग्रेजी-डब्लू. जी. मार्टिन ने अपनी कोठी तैयार की। इलाके का नाम, अपनी नवविवाहिता पत्नी-'मेरी' के नाम पर रखा 'मेरीगंज'। मि. मार्टिन ने रौतहट स्टेशन से लेकर गाँव तक पक्की सड़क बनवाई। गाँव में पोस्ट ऑफिस खुलवाया और पत्नी मेरी के गाँव में ले आया। दुर्भाग्य कि मेरी अधिक समय तक गाँव में नहीं रह सकी। कुछ ही दिनों में उसे काडैया' ने धर दबाया और परलोक पहुँचा दिया। मार्टिन भी 'पागल' हो गया और कांके के पागलखाने में ही उसकी मृत्यु हो गयी।
 
समय के साथ-साथ मेरीगंज की आबादी निरन्तर बढ़ती गयी। वह बड़ा गाँव बन गया जिसमें बारहों वर्ण के लोग रहते थे। प्रमुख दल तीन थे कायस्थ, राजपूत और यादव। ब्राह्मण भी तीसरी शक्ति थे । कायस्थ अथवा कैथ टोली के मुखिया थे विश्वनाथ प्रसाद मल्लिक जिन्हें लोग पद के अनुसार, तहसीलदार साहब कहा करते थे। वे परम्परागत तीन पीढ़ियों से तहसीलदार थे। राजपूतों में प्रमुख थे-ठाकुर रामकिरपाल सिंह । यादवों में उभरते हुए नेता थे—लेखावत यादव जो भैंस चराते-चराते डेढ़ सौ बीघे की जीत के मालिक हो चुके थे। इनके अलावा पोली, तन्त्रिमा, गहलौत, कुर्म, आमात्य धनुकधारी, कुशवाहा और रैदास आदि अन्य गौण टोलियाँ भी थीं। इन सबमें स्वार्थ, ईर्ष्या, दलबन्दी झगड़ा और अन्य बात सामान्य रूप से चलती ही रहती । 

इसी समय गाँव में एक अन्य व्यक्ति उभरता जा रहा था। यह था—बालदेव । विचारों से गाँधीवादी, देशभक्त और समास-सुधारक था। लोग पीछे नाम रखते किन्तु सामने 'लीडरजी' कहकर सम्मान का दिखावा करते। वह स्थानीय आन्दोलन से लेकर हिंसावाद का विरोध करता और गाँधीजी का अनुयायी होने के कारण बात-बात पर 'अनशन' करता । 

इसी गाँव में एक मठ भी था। मठाधीश थे- महंत साहेब जिनके साथ उनका शिष्य रामदास रहता और कोठारिन लक्ष्मी भी । दिन भर परोपकार और धार्मिक क्रिया कलापों में लगे रहते और रात में? किसी दिन महंथ को स्वप्न में 'सतगुरू' के दर्शन होते हैं। इस कारण महंथ साहब पूरे गाँव के भण्डारे का आयोजन करते हैं। प्रारम्भ में गाँव के लोग इस आयोजन का विरोध करते हैं। कारण ? उनमें व्याप्त वर्ग-द्वेष की भावना । अन्त में, मठ पर पंचायत बैठती है और भण्डारे का आयोजन सफल होता है।
 
इसी पंचायत में एक अन्य प्रश्न भी उठता है- गाँव में सरकारी अस्पताल खुलने का। सरकार की ओर से गाँव में अस्पताल खोलने में सहायता की अपीर निकलती है। बालादेव जैसे लोग इसका स्वागत करते हैं, किन्तु जन-साधारण इससे डरता है। कारण ? वे समझते हैं कि डाक्टर कुओं में दवा डालकर गाँव में हैजा फैलाते हैं। खैर, गाँव में अस्पताल खुलता है और इसके चिकित्सक के रूप में नियुक्त होते हैं- डॉ. प्रशान्त कुमार ।
 
मैला आँचल उपन्यास का सारांश | फणीश्वरनाथ रेणु
प्रशान्त अज्ञात कुलशील है। स्नेहमयी नामक स्त्री की छत्रछाया में पालपोस कर पढ़-लिख पाया। सन् 1942 के स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय पटना मेडिकल कॉलेज में हाउस सर्जन बनकर काम कर रहा था। विदेश में जाकर अध्ययन करने के लिए उसे स्कॉलरशिप तक मिल रही थी किन्तु उसने एक गाँव में ही आना सही माना। इसका उद्देश्य था-मलेरिया और काला आजार विषयक अनुसंधान करना तथा इन रोगों से पीड़ित ग्रामीणों की सेवा करना। अस्पताल में रहकर उसने विभिन्न रोगियों का उपचार किया, किन्तु सबसे अधिक इलाज किया कमला का कमला विश्वनाथ प्रसाद की इकलौती क्वारी कन्या थी, किशोरी सोलह वर्षीय । उसको यौनग्रन्थि से उत्पन्न दौरे पढ़ते थे ।
 
गाँव में समस्या एक नहीं, अनेक प्रकार की थीं। अनेक प्रकार की समस्यायें और अनेक प्रकार के लोग। इनमें चार पलियों को रखने वाले ज्योतिषी महाराज थे, फुलिया थी, मठ का नवागुंतक लरसिंघदास था, शिवशंकर सिंह थे, देशभक्त बावनदास थे, सुमरितदास था ।
 
डॉक्टर कमला का इलाज करता रहा और कमला उसकी ओर बढ़ती रही। 'दिल' नाम के भाव को न मानने वाला डॉक्टर प्रशान्त उसके प्रेम-पाश में फंस गया। इधर लक्ष्मी बालादेव के प्रति आकर्षित थी और रामदास महन्त लक्ष्मी पर दृष्टि डाले था। कालीचरण से सेन्टर में मास्टरनी रुचि लेने लगी थी ।

गाँव में राजनीति की लहर उठने लगी थीं। बालादेव और बावनदास तो कांग्रेसी थे ही, कालीचरण समाजवादी, वासुदेव कम्युनिस्ट और जनसंघ के संचालक महोदय भी अपनी-अपनी पार्टी का राग अलापने लगे थे। जमींदारी उन्मूलन के कारण भूमि के प्रश्न को लेकर सभी नीचे-ऊँचे लोग चौकन्ने होने लगे थे। इस बात को लेकर आपस में झगड़े भी हुए जिसका भयंकरतम हिंसात्मक रूप विस्फोटित हुआ-संथाल विद्रोह । गाँव वाले सोचते थे कि एक पार्टी से काम नहीं होता। अधिक पार्टियों में मुकाबला और प्रतियोगिता में होती है तो फायदा पब्लिक का ही होता है। फिर भी संथाल विद्रोह में लगभग सारा गाँव एक हो जाता है। विद्रोह की हिंसा में संथाल भी मारे जाते हैं और शिवशंकर सिंह का तहसीलदार पुत्र हरगौरी भी। मामला अदालत तक पहुँचता है। शिवशंकर आदि छूट तो जाते हैं किन्तु जमीन और धन की कुर्बानी देकर जिसे विश्वनाथ प्रसाद अपने बनकर ग्रहण कर लेते हैं।
 
परिवर्तन मठ में भी होते हैं। कालीचरण के प्रयत्नों से महन्त का पद रामदास को प्राप्त होता है। मगर वह मठ की लक्ष्मी को भी पाना चाहता है, क्योंकि 'मठ में नदी बहते हुए भी वह प्यासा रहना नहीं चाहता।' लक्ष्मी उसको अवसर नहीं देती। यहाँ तक कि वह बालादेव के साथ ही रहने लगती है।
 
इसी समय भारत स्वतन्त्र हो गया। भारत की स्वतन्त्रता इस छोटे से गाँव में भी नयी हलचल उत्पन्न कर देती है। गाँव के साधारण व्यक्तियों के लिए स्वतन्त्रता से आशय है-तहसीलदार के यहाँ भोज पाना, मठ पर भण्डार होना, गाँव में कीर्तन और नौटंकी का होना, पूरनिया से अंग्रेजी बाजा (लाउडस्पीकर) आना सबसे अधिक गाँव में अधिकार किसके बढ़ेंगे की चिन्ता करना। स्वतन्त्रता मुकदमें में भी मिल गयी। गरीब विद्रोही संथालों को आजीवन कारावास मिला और रामकिरपाल सिंह, खोलावनसिंह और शिवशंकर सिंह सभी बेदाग छूट गए। अतएव निश्चय किया गया कि दोनों प्रकार की स्वतन्त्रता का उत्सव एक साथ और धूमधाम से मनाएँ और भी कई परिवर्तन हुए यथा रामदास महन्त, लक्ष्मी को छोड़, रामपियरिया को दासी बना बैठे, बालादेव लक्ष्मी के पीछे वैरागी-सा हो गया, चर्खा सेन्टर पर अकेली मंगलादेवी मास्टरनी का आधिपत्य स्थापित हो गया ।
 
गाँव वालों की दृष्टि से लम्बे-चौड़े पैमाने पर स्वतन्त्रता का उत्सव मनाया गया। कीर्तन, नृत्य, भगत, नाटक-नौटंकी भोज सभी कुछ सम्पन्न हुआ। हाथी पर भारतमाता की सवारी निकाली गयी। सब कुछ हुआ और रातों रात कांग्रेस दल का प्राधान्य स्थापित हो गया। सच्चे कांग्रेसी बावनदास और बालदेव जी तो दुखी होकर रह गये किन्तु कालीचरण और वासुदेव जैसा नेता कहीं पार्टी के नाम पर घर भरने लगे। उच्च स्तर के नेताओं के कारण कांग्रेस में भी हेराफेरी बढ़ने लगी। यहाँ तक कि बावनदास को सत्य पालन करने के कारण सीमा पर तस्करों ने मौत के घाट उतार दिया। डॉक्टर प्रशान्त कम्युनिस्ट होने के सन्देह मात्र पर गिरफ्तार करके जेल भेज दिए गये। कोठारिन लक्ष्मी ने बालदेव को गृहस्थी में घसीट लिया। शीघ्र ही कारीचरण और वासुदेव भी डकैतों का साथ देने के जुर्म में बड़े घर की हवा खाने पहुँचा दिये गये ।
 
इधर कमला ? वह भी अपने आँचल को मैला कर बैठी थी। डॉ. प्रशान्त तो जेल चले गये किन्तु कमला के लिए तो घर ही जेल बन गया था। वह गर्भवती थी-क्वारी माँ बनने का भय परिवार में सभी को आशंकित तथा आतंकित किए था। एक आतंक सारे गाँव में व्याप्त हो गया था। क्योंकि कालीचरण का जेल से भागना और उससे भी अधिक महात्मा गाँधी की असामयिक नृशंस हत्याकाण्ड के समाचार ने सबको थर्रा दिया।
 
गाँव में पुनः परिवर्तन हुए। हलचल मची। विश्वनाथ की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती गयी। रामकिरपाल सिंह सब कुछ बेचकर तीर्थयात्रा पर चले गये। खेलावन यादव फिर से हल चलाने लगे और असाधारण कर्जे से दबता गया। युवक वर्ग तो कटिहार के जूट मिल में काम करने को भागने लगा जहाँ कम से कम दो रुपये मजदूरी तो प्राप्त होती थी। मठ पर भी झगड़े होने लगे। रामदास मेहता दिन भर गांजा पिये पड़े रहते और रामपियरिया ने मठ को लालबाग मेला का मीना बाजार बना दिया जहाँ लुच्चे लफंगे रहते थे । 

इधर ममता के प्रयासों और भागदौड़ से डॉक्टर प्रशान्त को जेल से मुक्ति मिली। वह सीधा मेरीगंज आता है। जहाँ कमला और उनका नवजात शिशु उसकी प्रतीक्षा में है। वह सभी बातें विश्वनाथ से स्पष्ट करता है और कमला से विवाह करके वहीं गाँव में रहने का निश्चय करता है। स्वयं उसके शब्दों में मैं प्यार की खेती करना चाहता हूँ आँसू से भीगी हुई धरती पर प्यार के पौधे लहलहायेंगे। मैं साधना करूँगा, ग्रामवासिनी भारत माता के मैले आंचल तले। 'कम से कम एक ही गाँव के कुछ प्राणियों के मुरझाए होठों पर मुस्कराहट लौटा सकूँ। उनके हृदय में आशा और विश्वास को प्रतिष्ठित कर सकूँ।' और यहीं कथा का अन्त होता है।

COMMENTS

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  1. उपन्यास में कई पात्रों के माध्यम से स्थानीय संस्कृति, लोकगीत और ग्रामीण जीवन की जटिलताओं को खूबसूरती से उकेरा गया है, जो इसे ग्रामीण भारत का एक जीवंत दस्तावेज़ बनाते हैं.

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