कारीगरों की आर्थिक स्थिति पर भी गहरा असर पड़ा है

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जनजातीय समुदाय द्वारा बांस की लकड़ी से बनाये उत्पाद भी हैं. लेकिन प्लास्टिक और मशीन से बने उत्पादों ने हाथ से बने सामानों के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह ल

पारंपरिक हस्तकला को बचाने का संघर्ष करता समुदाय

भारत आज विश्व की शक्तिशाली राष्ट्रों में अपनी विशिष्ट पहचान बना रहा है. आर्थिक क्षेत्रों में नवाचार और नव आयाम स्थापित करते हुए प्रति व्यक्ति आय को सुदृढ़ बनाने की ओर अग्रसर है. युवा सोच ने स्टार्टअप के नए द्वार खोल दिए हैं. जिसने टेक्नोलॉजी के साथ मिलकर भारत को उभरती आर्थिक महाशक्ति बनने में मदद की है. इसने आजीविका कौशल को बढ़ाने और रोज़गार के अवसरों को जन्म दिया है. हालांकि हमारे देश में आजीविका से जुड़े कौशल बहुत पुराने हैं. ग्रामीण क्षेत्रों और विशेषकर जनजातीय समुदायों में आजीविका के कई साधन उपलब्ध रहे हैं. जिसमें हाथ (हस्तकला) से बनाये सामान आज भी अपनी विशिष्ट पहचान रखती है. इन्हीं में एक राजस्थान के जनजातीय समुदाय द्वारा बांस की लकड़ी से बनाये उत्पाद भी हैं. लेकिन प्लास्टिक और मशीन से बने उत्पादों ने हाथ से बने सामानों के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है. इससे इन उत्पादों को बनाने वाले कारीगरों की आर्थिक स्थिति पर भी गहरा असर पड़ा है.

राजधानी जयपुर स्थित स्लम बस्ती 'रावण की मंडी' इसका उदाहरण है. सचिवालय से करीब 12 किमी की दूरी पर स्थित इस बस्ती में 40 से 50 झुग्गियां आबाद हैं. जिनमें लगभग 300 लोग रहते हैं. इस बस्ती में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदाय के परिवार निवास करते हैं. जिनमें कालबेलिया, जोगी और मिरासी समुदाय प्रमुख रूप से शामिल है. प्रति वर्ष विजयदशमी के अवसर पर रावण दहन के लिए यहां रावण, मेघनाद और कुंभकरण के पुतले तैयार किए जाते हैं. जिसे खरीदने के लिए जयपुर के बाहर से भी लोग आते हैं. इसी कारण इस बस्ती को रावण की मंडी के रूप में पहचान मिली है. विजयदशमी के अलावा साल के अन्य दिनों में यहां के निवासी आजीविका के लिए रद्दी बेचने अथवा दिहाड़ी मज़दूरी का काम करते हैं जबकि अधिकांश परिवार बांस से बनाये गए सामान तैयार करते हैं. लेकिन बाजार की उचित व्यवस्था नहीं होने के कारण इनके उत्पाद को वह मंच नहीं मिल सका जिसके वह हकदार हैं. जिससे उन्हें अपने काम का वाजिब मूल्य प्राप्त नहीं हो पाता है. यह लोग बांस की लकड़ी से डलिया, छबड़ी, सूपा, पंखा, कुर्सी, झूला और फूलदान आदि उत्पाद तैयार करते हैं.

पारंपरिक हस्तकला को बचाने का संघर्ष करता समुदाय
इस संबंध में बस्ती 67 वर्षीय बुज़ुर्ग जगत कालबेलिया कहते हैं कि "पहले मैं अपने समुदाय के पुश्तैनी काम सांप पकड़ने का काम करता था. लेकिन युवावस्था में ही मुझे बांस से बने उत्पाद बनाने का काम अच्छा लगा तो मैंने इसे सीखने का फैसला किया. मैं पिछले 30 सालों से बांस की लकड़ी से सामान बनाने का काम करता हूं. अब इसमें मेरे दोनों बेटे और बहुएं भी हाथ बटाती हैं." वह कहते हैं कि पहले जैसा अब इसमें काम का दाम नहीं मिलता है. पहले जब प्लास्टिक से बने सामान बाजार में नहीं आये थे तो बांस के बने इन उत्पादों की काफी डिमांड थी. लोग घरों के लिए डलिया, सूपा और पंखे खरीद कर ले जाया करते थे. प्रतिदिन यह सामान बिक जाया करते थे. इससे आर्थिक रूप से हमें काफी लाभ हुआ करता था. लेकिन अब पहले जैसी डिमांड नहीं रही. वहीं पास बैठी उनकी पत्नी शारदा कहती हैं कि पहले 4 इंच मोटा व 18 फुट लंबा बांस डेढ़ रुपये में आता था, उससे छोटी बड़ी करके 4 डलिया बना लेते थे. अब उससे पतला और कम लंबाई वाला बांस कम से कम 30 से 35 रुपये में खरीदना पड़ता है. उससे भी दो डलिया या पंखा भी मुश्किल से ही बन पाती है.

वह बताती हैं कि अच्छी क्वालिटी का बांस असम से मंगवानी पड़ती है, जो 150 रुपये का एक मिलता है. जबकि मेहनत और समय लगाने के बावजूद एक पंखा 15 से 20 रुपए में बिक पाता है. उनके अनुसार पहले प्लास्टिक के सामान नहीं होते थे इसलिए बांस से बने हमारे सामान खूब बिकते थे. वह एक महीने में 50 से 100 डलिया बेच देती थी. वह कहती हैं कि आज से दस वर्ष पहले तक वह लोग बांस से बने उत्पाद बेचकर 700 से 1000 रुपये प्रतिदिन कमा लेते थे, लेकिन वर्तमान में प्लास्टिक के सामानों की मांग के कारण उनके बांस के बने सामान एक दिन में मुश्किल से 150 रुपये तक के बिक पाते हैं. इससे खर्च भी निकालना मुश्किल हो रहा है. शारदा कहती हैं कि पहले की बात ही कुछ और थी, अब तो दिन भर में पांच ग्राहक भी आ जाए तो बहुत है. यही कारण है कि अब उनके बेटे अक्सर इस काम को छोड़कर मज़दूरी करने निकल जाते हैं.

वहीं जोगी समुदाय के देशराज कहते हैं कि "रावण की मंडी में रहने वाले सभी परिवार सालों भर काम करते हैं. दशहरा के दिनों में रावण, मेघनाद और कुंभकरण के पुतले तैयार करते हैं तो बाकी दिनों में बांस के बने उत्पाद तैयार करते हैं. इनमें टोकरी और डलिया के अतिरिक्त लैंप पोस्ट, टेबल और सोफा सेट भी शामिल है. इन्हें बनाने में काफी मेहनत लगती है. यह हस्तकला के बेजोड़ नमूने हुआ करते हैं. जिसे खरीदने के लिए दूर दूर से लोग यहां आया करते थे. लेकिन अब परिश्रम के अनुसार दाम नहीं मिलते हैं." वह कहते हैं कि पहले ऐसे सामान घर में प्रतिदिन उपयोग में लाये जाते थे लेकिन अब यह केवल घर की शोभा बढ़ाने वाली वस्तु मात्र है. इसलिए अब इसे मध्यमवर्गीय परिवार नहीं खरीदता है. जबकि उच्च वर्ग के लिए घरों में सजावट मात्र के अतिरिक्त कुछ नहीं है. देशराज के अनुसार पहले बांस से बने सामान को तैयार करने में पूरा परिवार साथ बैठता था. लेकिन अब इसमें पहले जैसा काम नहीं रहा इसलिए अब महिलाएं घर चलाने के लिए रद्दी बीनने अथवा स्थानीय घरों में सहायिका के रूप में काम करती हैं. वह कहते हैं कि यदि रावण की मंडी में बांस से बने उत्पाद को तैयार करने वाले परिवारों को बाजार उपलब्ध हो जाए तो न केवल इस कला को बढ़ावा मिलेगा बल्कि उनकी आर्थिक स्थिति भी बेहतर होगी.

बहरहाल, समाज में अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज कराने के बावजूद बांस से बने उत्पाद तैयार करने वाला परिवार सुविधाओं से वंचित अपनी आजीविका चलाने के लिए भी संघर्ष कर रहा है. विभिन्न सामाजिक बाधाओं के कारण इन परिवारों में शिक्षा और जागरूकता का अभाव देखा जाता है. जो इनकी आजीविका संवर्धन के रास्ते में एक बड़ी रुकावट बन रहा है. जिसकी वजह से यह ऑनलाइन उपलब्ध विक्रय पोर्टल और अन्य प्लेटफॉर्म का उपयोग कर अपने उत्पाद को बेच नहीं पा रहे हैं. जिससे इस हस्तकला उत्पाद को विश्व बाज़ार में पहचान भी नहीं मिल पा रही है और इसके कारीगर इस परंपरागत अस्तित्व को बचाये रखने के लिए संघर्ष करने पर मजबूर हैं. (चरखा फीचर्स)


- भंवर सिंह राजपूत
जयपुर, राजस्थान

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