गोदान उपन्यास का सारांश कथावस्तु की समीक्षा | मुंशी प्रेमचंद

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गोदान उपन्यास का सारांश कथावस्तु की समीक्षा मुंशी प्रेमचंद उपन्यास भारतीय ग्रामीण जीवन की जटिलताओं, सामाजिक संरचना, और किसानों के शोषण को बड़ी ही मार्

गोदान उपन्यास का सारांश कथावस्तु की समीक्षा | मुंशी प्रेमचंद


मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास गोदान भारतीय किसानों के जीवन की यथार्थवादी तस्वीर प्रस्तुत करता है। यह उपन्यास भारतीय ग्रामीण जीवन की जटिलताओं, सामाजिक संरचना, और किसानों के शोषण को बड़ी ही मार्मिकता से उजागर करता है।

कथावस्तु उपन्यास का सबसे महत्वपूर्ण तत्व माना जाता है। इससे रहित किसी भी उपन्यास की कल्पना भी असम्भव है। मूलतः सम्पूर्ण उपन्यास की कल्पना कथावस्तु पर निर्भर करती है। इस सन्दर्भ में स्वयं प्रेमचन्द जी का अभिमत जान लेना इस तत्व की समीक्षा के लिये बहुत आवश्यक हो जाता है। उनका है। "उपन्यासकार अपनी कथा को घटना वैचित्र्य से रोचक बनाये, लेकिन शर्त यह है कि प्रत्येक घटना असली ढाँचे से निकट सम्बन्ध रखती हो। इतना ही नहीं वरन् उसमें इस तरह घुल-मिल गई हो कि कथा का आवश्यक अंग बन जाय, अन्यथा उपन्यास की दशा उस घर की सी हो जायेगी जिसके हर एक हिस्से अलग हों।"
 
उपन्यास में एक प्रमुख कथा तथा अन्य गौड़ या प्रासंगिक कथायें होती हैं। इस दृष्टि से उपन्यासकार की कुशलता का आंकलन करते समय यह देखना होता है कि उसने छोटी से छोटी कथाओं को आपस में कितने सुन्दर रूप में सम्बद्ध किया है। यह वे परस्पर सम्बद्ध न होकर स्वतन्त्र हो जाती है तो उपन्यास का सम्पूर्ण प्रभाव नष्ट हो जाता है और फिर उपन्यास की सफलता भी संदिग्ध हो जाती है। अतः उपन्यास की कथावस्तु रोचक होने के साथ-साथ सोद्देश्य एवं सुगठित भी होनी चाहिये।
 
पं. नन्द दुलारे वाजपेयी के मतानुसार प्रेमचन्द जी का गोदान उपन्यास कथावस्तु की दृष्टि से शिथिल और असम्बद्ध है। वे इसमें आधिकारिक और प्रासंगिक दो कथाओं को साथ-साथ चलते पाते हैं। पात्रों से सम्बन्ध रखने वाली कथा को वह आधिकारिक कथा तथा नागरिक पात्रों से सम्बन्धित कथा को प्रासंगिक कथा मानते हैं। यही नहीं वह इन दोनों कथाओं को परस्पर पूर्णरूपेण सम्बद्ध भी नहीं मानते हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में बाबू गुलाबराय जी का मत है कि गोदान की कथावस्तु सुगठित एवं सुसम्बद्ध है। आपका कथन है कि "उपन्यास की कथावस्तु गढ़ी हुई नहीं मालूम पड़ती। उसमें जीवन का-सा बहाव है। जीवन के से ही छाया लोकमय सुख-दुख भरे चित्र हैं। कहीं खन्ना और तंखा जैसे नैतिक गर्त हैं तो कहीं होरी जैसे उच्च शिखर । कथावस्तु में पूरी गति है। वर्णन सुन्दर होते हुये भी इतने बड़े नहीं हैं कि कथावस्तु की गति कुण्ठित हो जाय। वस्तु का क्षेत्र बहुत ही व्यापक है, सभी प्रकार का जीवन आ गया है। चोटी के आदमियों का भी वर्णन है निर्धन लोगों का भी। मिलों की हड़ताल, शक्कर व्यवसाय की समस्यायें, चुनाव के दाँव पेंच, गाँव के पंचों, जमींदारों और पटवारियों का दम्भ और साहूकारों की जायदाद हड़पने वाली नीति, शिकार, पिकनिक, समाज-सेवा, बालकों का मनोराज्य, जवान और बूढ़ों की रसिकता सभी का सुन्दर चित्र है।" इस प्रकार 'गोदान' का कथानक जीवन विभिन्न चित्रों को अपने में समाहित किये हुये अबाध रूप से अन्त तक अपनी सुखद यात्रा पूरी करता है। अतः इसके कथानक को शिथिल अथवा असम्बद्ध नहीं कहा जा सकता।
 
वैसे गोदान को शुद्ध रूप से ग्रामीण अंचल का उपन्यास मानने वाले आलोचकों का तर्क है कि यदि उसमें नागरिक पात्र आते हैं तो उनका ग्रामीण पात्रों की गतिविधियों से किसी न किसी प्रकार से घनिष्ठ सम्बन्ध होना चाहिये। परन्तु इस उपन्यास में ऐसा कुछ दिखाई नहीं देता। ऐसे आलोचकों का एक यह भी मत है कि प्रामीण वातावरण में नागरिकों का समावेश केवल दो ही उद्देश्यों को लेकर किया जा सकता है-
 
  1. दोनों जीवनों की विषमताओं का स्पष्टीकरण एवं तीव्र प्रभावी बनाना ।
  2. नागरिक पात्रों द्वारा ग्रामीण पात्रों का सुधार करना ।
परन्तु मेरी दृष्टि से यह दोनों उपरोक्त तर्क भ्रान्ति से परिपूर्ण हैं। प्रेमचन्द जी का यह उपन्यास न तो एकमात्र ग्रामीण जीवन का उपन्यास है और न वे नागरिक पात्रों द्वारा ग्रामीण पात्रों के सुधार के पक्षधर हैं। 'गोदान' की कथावस्तु संगठित एवं सुसम्बद्ध है। इसके पक्ष में निम्न तर्क प्रस्तुत किये जा सकते हैं -

वर्ग संघर्ष एवं भारतीय जीवन की विषमताओं का यथार्थ चित्रण

गोदान उपन्यास का सारांश कथावस्तु की समीक्षा | मुंशी प्रेमचंद
वास्तव में प्रेमचन्द जी सचेत कलाकार थे जो जीवन पर्यन्त संघर्षशील रहे। साथ ही वह अन्याय के प्रबल विरोधी रहे। स्थानीय साहूकार ग्रामीण किसान का शोषण प्रत्यक्ष करता रहता है दूसरी ओर नागरिक चतुर होने के कारण उसका शोषण करने का ढंग अप्रत्यक्ष होता है। 'गोदान' का झिंगुरीसिंह शहर के बड़े साहूकार का दलाल है और ग्रामीणों के शोषण में वह अग्रणीय रहता है अन्य साहूकार उसकी तुलना में निम्न स्तरीय है। दूसरी ओर जमींदार रायसाहब ग्रामीणों का शोषण अपने विलास पर व्यय करने के लिये करते हैं। इसी संग्रहीत धन से वे मुकदमे लड़ते हैं, चुनाव लड़ते हैं, बेटे-बेटियों की शादियाँ शान से करते हैं। हाकिमों को डालियाँ भेजते हैं। साथ ही अपनी स्थिति को सुरक्षित रखने के लिये नौकरों और मोटरों की पूरी जमात सी खड़ी कर लेते हैं। 'गोदान' असम्बद्ध कथानकों का सूत्र अपने में प्रगाढ़ता लिये हुये है । 

नगर के पूँजीपति अपनी मिलों के लिये किसानों की खड़ी फसल सस्ते मूल्य पर खरीदकर भुगतान के लिये साहूकारों की सांठ-गाँठ से उनके हाथों में एक भी पैसा नहीं जाने देते। शोषण का यह चक्र यहीं नहीं विराम लेता। गाँव के गोबर जैसे भोले-भाले नवयुवक नगर में जाकर मजदूरी करने को बाध्य हो जाते हैं। वहाँ जाकर उनमें विभिन्न बुराईयाँ आने लगती हैं और फिर वे इन शोषण के चक्रों के दलदल से बाहर नहीं निकल पाते हैं। खन्ना के मिल की हड़ताल और गोबर के दुर्व्यसनों में फँसकर तबाही इसके प्रमाण हैं ।

यदि उपरोक्त दोनों तथ्यों को स्वीकार कर लिया जाय तो इनकी आंशिकता 'गोदान' में मिल जाती है। उच्चवर्ग जो नगरों में विलास करता है वह गरीबों को घृणा की दृष्टि से देखता है। 'गोदान' की मालती गरीब रोगियों को उपेक्षा की दृष्टि से देखती है और उनकी ओर ध्यान नहीं देती। उपन्यास के नागरिक पात्र शोषण में लिप्त रहते हैं यहाँ तक कि वे एक दूसरे को भी आपस में फँसाने से बाज नहीं आते। सम्पादक जी रायसाहब को गोटी बना उन पर हाथ साफ कर देते हैं। रायसाहब और राजासाहब चुनाव लड़कर गरीब जनता की गाड़ी कमाई पानी की तरह बहा देते हैं। अतः इस दृष्टिकोण से ग्रामीण पात्र उत्तम है यद्यपि डॉ. मेहता और मालती ग्रामीणों की सेवा तथा सुधार का कार्य करते हैं परन्तु यह गौण ही रहता है। परन्तु प्रेमचन्द जी का तो उद्देश्य ग्रामीण समाज के शोषण का समग्र चित्र जन सामान्य के समक्ष उभरकर लाना था। उनकी धारणा थी कि ग्रामीणों का शोषक जितना साहूकार होता है उतना ही नागरिक उच्च वर्ग भी। अतः इन दोनों कथानकों को परस्पर असम्बद्ध मानना उचित नहीं है।
 

भारतीय जीवन का यथार्थ चित्रण

प्रेमचन्द जी ने ग्रामीण समाज के साथ-साथ नागरिक समाज का भी विस्तृत चित्र अंकित किया है। उनके हृदय में दोनों के प्रति समान सहानुभूति है। गोबर शहर में जाता है और वहाँ पर वह बुराईयों में फँसता है साथ ही उसकी राजनीतिक एवं सामाजिक चेतना भी जागरुक हो उठती है। प्रेमचन्द जी यह नहीं चाहते थे कि किसान नगर में जाकर वहाँ के विषैले वातावरण में पहुँचकर अपनी पवित्रता को खोवें। वह मानते थे कि औद्योगीकरण से किसान का दुहरा शोषण होता है। नगर विलास और पाप के केन्द्र हैं। यह सब प्रदर्शित करने के लिये उन्होंने 'गोदान' में नागरिक कथा का समावेश किया है। होरी की कथा भारतीय किसान की सच्ची गाथा है। वह जीवन पर्यन्त जमींदार, पटवारी, साहूकार, पंच और पुलिस के अत्याचारों से आहत हो छटपटाता रहता है। इतने पर भी वह कर्मठ ही बना रहता है और जीवन के अन्तिम क्षण में उसे 'गोदान' के लिये एक गाय भी नसीब नहीं हो पाती। प्रेमचन्द की यह स्वाभाविकता हमारे मन में गहरे पैठ जाती है, और बस यही अनुभव होने लगता है कि यह सब तो हम पहले से ही जानते हैं।
 

पात्रों का स्वाभाविक विकास

'गोदान' के कथानक में पात्रों का बड़ा ही स्वाभाविक विकास हुआ है। सभी पात्र स्वतन्त्र हैं। उनकी अपनी-अपनी समस्यायें हैं और उनके निराकरण के अपने अलग-अलग ढंग हैं। गाँव के साहूकार भी पृथक व्यक्तित्व लिये हमारे सामने आते हैं। कोई भी पात्र लेखक की कठपुतली मात्र नहीं है। सभी पात्रों को अपने में समेटे हुये 'गोदान' का कथानक सहज गति से आगे की ओर बढ़ता जाता है और अन्त में भारतीय किसान की करुण वेदना की परिणति दर्शाकर समाप्त हो जाता है।

स्वाभाविक रोचक संवाद योजना

प्रेमचन्द के 'गोदान' उपन्यास के संवाद बड़े ही स्वाभाविक एवं रोचक हैं। कहीं-कहीं संवाद लम्बे भी हो गये हैं परन्तु फिर भी पाठक उनसे कबता नहीं हैं। डॉ. मेहता का भाषण महिलाओं की सभा में इसी के अन्तर्गत आता है परन्तु प्रेमचन्द जी यहाँ पर पूर्णतः सजग हैं। डॉ. मेहता का यह भाषण निरन्तर एक ही गति से अबाध रूप से चलता रहता है परन्तु इसके साथ ही खन्ना, सम्पादक ओंकारनाथ, रायसाहब, मिर्जा साहब आदि इस भाषण पर आपस में मनोरंजक टिप्पणियाँ भी कर रहे हैं। उपन्यासकार यहीं अपने कौशल की इतिश्री नहीं कर देता वह अन्य श्रोताओं पर भाषण की प्रतिक्रिया भी प्रदर्शित करता जाता है। यही कारण है कि डॉ. मेहता का भाषण लम्बा होते हुये भी नीरसता एवं ऊबाऊपन से सर्वथा दूर है। उपन्यासकार की यही सजगता कथा में किसी भी प्रकार की असम्बद्धता को नहीं आने देती। 'गोदान' में उपन्यासकार की इस सजगता के दर्शन हमें कई स्थलों पर होते हैं।
 

ग्राम्य एवं नागरिक जीवन कथाओं की एक सूत्रता

प्रेमचन्द जी 'गोदान' की कथा को होरी के ग्रामीण जीवन से प्रारम्भ करते हैं। यही कथा रायसाहब द्वारा आयोजित धनुष-यज्ञ में आकर वहाँ के नागरिक पात्रों से सम्बद्ध हो जाती है। होरी अपने जमींदार रायसाहब से जुड़ा हुआ है तो दूसरी ओर रायसाहब अपनी सम्पन्नता के कारण नगर के ओंकारनाथ, खन्ना, तंखा, डॉ. मेहता, मिर्जा और मालती आदि से जुड़े हुये हैं। उपन्यास में इस प्रकार रायसाहब ग्रामीण और नागरिक जीवन को आपस में एक संयोजक कड़ी का कार्य करते हैं। यही नहीं गोबर नगर में जाकर डॉ. मेहता, मिर्जा, मालती आदि के सम्पर्क में आकर उपरोक्त दोनों क्षेत्रों को और भी घनिष्ठ बना देता है । खन्ना की मिल भी इस क्षेत्र में अपना सराहनीय योगदान प्रदान करती है। बाद में डॉ. मेहता और मालती का शिकार पर जाना, साथ ही होरी के घर पर पहुँचना भी दोनों क्षेत्रों को मिलाने में सहायक होता है। इसी क्रम में 'बिजली' पत्र के सम्पादक ओंकारनाथ ग्रामीणों के द्वारा भेजे गये पत्रों को अपने पत्र में छापने की सहमति देकर इस कथा से स्वतः ही जुड़ जाते हैं।
 

प्रासंगिक कथाओं का मुख्य कथा के साथ सुसंगठन

इस उपन्यास में ग्रामीण जीवन की विभिन्न कथायें हैं। जिनमें गोबर और झुनियाँ की कथा, मातादीन और सिलिया की कथा, भोला, नोहरी एवं नोखेराम की कथायें उपन्यास के नायक होरी तथा नायिका धनियाँ की कथा से आकर सम्बद्ध हो जाती हैं। यह सभी भिन्न प्रतीत होने वाली कथायें समाज का वास्तविक चित्रण तो करती ही हैं साथ ही होरी और धनियाँ की मानवता को उभारने में पर्याप्त सहयोग प्रदान करती हैं। सम्पूर्ण कथानक किसानों की मूल समस्याओं को अपने सम्पूर्ण कलेवर में समाहित किये हुये है। नागरिक और ग्रामीण क्षेत्रों की विभिन्न कथायें जीवन के लिये आवश्यक सद्गुणों-सेवा, त्याग, मानवता आदि के प्रदर्शन के लिये कथानक की मूल समस्या को और भी अधिक महत्वपूर्ण, गहन और आकर्षक बना देती हैं। कहने का आशय यह है कि 'गोदान' में न तो कोई उपकथा गौड़ है और न वह मूल विषय से अलग हटकर चलती है।उपन्यास की यही विशेषता इसके कथानक की एकता एवं घनत्व की सच्ची वास्तविकता है।
 

कौतूहल एवं चमत्कार का समावेश

सम्पूर्णतः उपन्यास का कथानक पाठकों के मन में कौतूहल बनाये रखता है। उपन्यासकार जहाँ एक कौतूहल को छोड़ता है वहीं दूसरे की उद्भावना भी कर देता है। 'गोदान' के कथानक का कौतूहल स्वाभाविक एवं नाटकीय है। उपन्यास का नामकरण भी सार्थक है । जहाँ होरी में गाय के प्रति लालसा है वहीं गाय आ जाने पर हीरा का कथन कि 'भगवान चाहेंगे तो गाय बहुत दिन घर में न रहेगी' पाठकों के मनों में शंका उत्पन्न कर देता है। होरी के घर में झुनियाँ का प्रवेश होने पर उपन्यासकार उसकी नाटकीय परिस्थिति को बड़े कौशल से निवाह ले जाते हैं। होरी गोबर के विषय में चिन्तित है यही कारण है कि पाठक सहज ही उसकी चिन्ता से प्रसित हो जाता है। परन्तु प्रेमचन्द जी गोबर को शहर पहुँचाकर इसका निराकरण कर देते हैं। धनुष यज्ञ के प्रसंग में भी नाटकीयता का समावेश है। कहने का आशय यह है कि प्रेमचन्द जी पाठक की जिज्ञासा को बनाये रखने के लिये एक-न-एक समस्या की उद्भावना करते ही रहते हैं।

'गोदान' में चमत्कार पूर्ण स्थल भी दर्शनीय है। मालती का डॉ. मेहता के प्रति आकर्षण और फिर डॉ. मेहता द्वारा ही प्रेम में मालती का उत्साह भंग करना एक अनोखी सूझ है। इसी के पश्चात् उपन्यासकार मेहता को मालती के प्रति व्याकुल दर्शित करके चमत्कार की उद्भावना करता है। मालती यद्यपि मेहता को अपने बंगले में रखती है उनका हिसाब-किताब देखती है परन्तु मिलने का अवसर कम देती है। दोनों में एक दूसरे के प्रति चाह है परन्तु वे उसका उद्घाटन नहीं होने देते। मालती झुनियाँ के बच्चे की सेवा में लीन है, डॉ. मेहता वहाँ जाकर याचनामयी दृष्टि से उसे देखते हैं। मालती भी उनसे लिपट जाना चाहती है। उपन्यासकार ने यहाँ उत्सुकता की चरमावस्था उपस्थित करते हुये भी अनायास ही रस में भंग उत्पन्न कर दिया है। यहाँ अचानक ही झुनियाँ को जगाकर प्रेमचन्द जी चमत्कार उत्पन्न कर देतें हैं। इस प्रकार 'गोदान' उपन्यास के कथानक में कौतूहल एवं चमत्कार के अनेकों स्थल भरे पड़े हैं। 

स्वाभाविक अर्न्तद्वन्द्व योजना

'गोदान' में सर्वत्र स्वाभाविकता का निर्वाह किया गया है। इसमें प्रेमचन्द जी की अद्भुत कल्पना शक्ति एवं कलात्मक सृजना शक्ति के हमें दर्शन होते हैं। काल्पनिक चित्र भी हमें स्वाभाविक दिखाई पड़ते हैं। जन-जीवन का सजीव चित्रण तो मानो प्रेमचन्द जी की अद्भुत क्षमता है। गोबर और झुनियाँ, मातादीन और सिलिया, भोला और नोखेराम, मेहता और मालती आदि के चित्र अपने वर्गों अनुरूप ही नहीं वरन् साकार भी हैं। 'गोदान' में पात्रों के विकास में अर्न्तद्वन्द्व पर्याप्त सहायक है। इससे कथा को सर्वथा गति प्राप्त होती है। मालती बाहर से तितली है तो भीतर से मधुमक्खी है। मातादीन इसी अर्न्तद्वन्द्व का शिकार बनकर अन्त में ठीक रास्ते पर आ जाता है। रायसाहब अपनी वास्तविकता को जानते हुये भी अपनी मर्यादा को बनाये रखते हैं। डॉ. मेहता एवं खन्ना पश्चाताप के भागीदार होते हैं। मिर्जा खुर्शीद अनावश्यक पात्र न होकर उपन्यास में मनोरंजकता की उद्भावना करता है । वयोवृद्धों की कबड्डी, वीरांगनाओं के उद्धार की योजना आदि स्वाभाविक घटनायें हैं। शिकार के समय काली लड़की के प्रति मालती का सौतिया डाह सर्वथा चमत्कार उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार 'गोदान' कथानक सकुशल अपनी यात्रा पूर्ण करता है। 

यद्यपि 'गोदान' का कथानक सर्वथा उत्तम है फिर भी उसमें कथा शैथिल्य का दोष लगाया जाता है परन्तु देश का सम्पूर्ण वातावरण प्रस्तुत करने वाले पेनोरमा रूपी उपन्यास की दृष्टि से असम्बद्ध घटनाओं में भी एक सार्थकता है । उपन्यासकार भारतीय समाज का सम्पूर्ण वातावरण उपस्थित करना चाहता था और इस हेतु ग्रामीण और नागरिक जीवन का समावेश प्रेमचन्द जी के लिये अनिवार्य हो गया था। सारांशतः यही कहा जा सकता है कि भारतीय जीवन को पूर्णता के साथ अंकित करने वाला 'गोदान' उपन्यास ही प्रथम उपन्यास है जो अपने कदाचित् दोषों को भी अपनी महानता से ढक देता है।

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