विनय पत्रिका भक्त तुलसीदास के हृदय का प्रत्यक्ष दर्शन है

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विनय पत्रिका भक्त तुलसीदास के हृदय का प्रत्यक्ष दर्शन है विनय पत्रिका तुलसीदास जी की एक अद्वितीय रचना है। यह न केवल एक साहित्यिक कृति है बल्कि एक आध्

विनय पत्रिका भक्त तुलसीदास के हृदय का प्रत्यक्ष दर्शन है


विनय पत्रिका तुलसीदास जी की एक अद्वितीय रचना है। यह न केवल एक साहित्यिक कृति है बल्कि एक आध्यात्मिक ग्रंथ भी है। इस ग्रंथ के माध्यम से तुलसीदास जी ने न केवल अपनी आत्मा को व्यक्त किया है बल्कि लाखों लोगों को भी भक्ति का मार्ग दिखाया है।

तुलसीदास भगवान् के सगुण रूप के उपासक और राम के परम भक्त थे। 'विनय-पत्रिका' में उन्होंने अपनी भक्ति-भावना का सांगोपांग वर्णन किया है। विनय और दैन्य-भक्ति के सबसे बड़े सहचर माने गये हैं। उन्होंने इन दोनों का बड़ा विशद चित्रण किया है। दैन्य-भाव की तो उनकी 'विनय-पत्रिका' में प्रधानता ही है।
 
विनय पत्रिका भक्त तुलसीदास के हृदय का प्रत्यक्ष दर्शन है
जब भक्त भगवान् के महत्त्व का साक्षात्कार कर लेता है, तब उसे अपने लघुत्व की अनुभूति होने लगती है और इस अनुभूति के होने पर भक्त में दैन्य-भाव का आविर्भाव होने लगता है। जब भक्त भगवान् के शील की अनुभूति करता है तो वह अपने कर्मों के लिए पश्चात्ताप करता है, जब उनकी अनन्त शक्ति की झलक पा लेता है तो आश्चर्यचकित होता हुआ उत्साह से भर जाता है और प्रभु की अनन्त सौन्दर्य-राशि का सन्धान पा लेता है तो पुलकित हो उठता है। इस प्रकार भगवान् की इन तीनों शक्तियों - शील, शक्ति और सौन्दर्य -का दर्शन करके उनके महत्त्व के सम्मुख नतमस्तक हो जाता है। तुलसीदास ने इस महत्त्व की अनुभूति की थी। इस (अनुभूति) की अभिव्यक्ति उनकी 'विनय-पत्रिका' में हुई ।
 
अपने आराध्यदेव राम के महत्त्व का अनुभव कर लेने पर गोस्वामीजी की दैन्य, अनुताप एवं आत्म-ग्लानि की भावना उत्तरोत्तर बढ़ने लगती है। कहीं राम की शक्ति के आगे उन्हें अपनी निर्बलता, कहीं उनकी सुशीलता के आगे अपनी अनुदारता एवं कहीं उनके सौन्दर्य के सम्मुख अपनी लघुता का अनुभव होता है। वे कहते हैं-
 
तू दयालु, दीन हौं, तू दानि, हौं भिखारी । 
हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप-पुँजहारी ॥
 
इस प्रकार लघुता प्रकट करते हुए तुलसी अपनी दीनता प्रदर्शित करके राम के चरणों में स्वयं को डालकर गिड़गिड़ाते हुए अपने उद्धार की उनसे प्रार्थना करते हैं। वे पूर्णतया अपने को राम के भरोसे छोड़ देते हैं; क्योंकि राम के अतिरिक्त उनका अन्य कोई आश्रय ही नहीं है-
 
कहाँ जाऊँ कासो कहूँ को सुने दीन की । 
त्रिभुवन तुही गति मो सम अँगहीन की ॥
 
भक्त जब सुनता है कि व्याध, गणिका, अजामिल जैसे बड़े-बड़े पापियों का भी उद्धार प्रभु राम ने कर दिया, तो उसे यह विश्वास हो जाता है कि उसका भी उद्धार हो जायेगा।
 
निष्कर्ष
यद्यपि गोस्वामीजी ने 'विनय-पत्रिका' में अपनी दीनता और लघुता प्रदर्शित की है और अपने भ्रमित मन को उपदेश दिया है, तथापि वे स्वयं को उपदेश देते हुए भी समस्त संसार को उपदेश देते हैं। इस रचना में उनका मूल उद्देश्य उस समाज में चेतना का संचार करना था जो विदेशी शासन की परवशता में अपनी संस्कृति को भूलकर, धर्ममार्ग से च्युत् होकर विलासी और अकर्मण्य बन गया था।

विनय पत्रिका तुलसीदास जी की एक अमर कृति है जो सदैव प्रासंगिक रहेगी। यह ग्रंथ हमें भक्ति, प्रेम, और आत्म-समर्पण का सच्चा अर्थ समझने में मदद करता है।

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