प्रेमगाथा की भारतीय परम्परा

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प्रेमगाथा की भारतीय परम्परा प्रेमगाथाएं, जिन्हें प्रेम कहानियां भी कहा जाता है, प्रेम और उसके विभिन्न पहलुओं को दर्शाने वाली रचनाएं हैं। वे सदियों से

प्रेमगाथा की भारतीय परम्परा


प्रेमगाथाएं, जिन्हें प्रेम कहानियां भी कहा जाता है, प्रेम और उसके विभिन्न पहलुओं को दर्शाने वाली रचनाएं हैं। वे सदियों से भारतीय साहित्य और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रही हैं।

भारतीय प्रेमगाथा परंपरा अत्यंत समृद्ध और विविधतापूर्ण है। इसमें विभिन्न भाषाओं, क्षेत्रों और कालखंडों से रचनाएं शामिल हैं। इनमें लोक कथाएं, महाकाव्य, नाटक, गीत और काव्य शामिल हैं।

हिन्दी साहित्य में प्रेमाख्यान की परम्परा

प्रेमगाथा की भारतीय परम्परा
हिन्दी साहित्य में प्रेमाख्यान की परम्परा प्रारम्भिक काल से ही प्राप्त होती है, पर इसकी विशेष प्रसिद्धि साहित्येतिहास की काव्यधाराओं के परिचय के प्रसंग में भक्तिकाल की निर्गुण धारा में ही मिलती है। हिन्दी के जो प्रेमकाव्य विशुद्ध भारतीय पद्धति पर लिखे गये हैं, उन पर संस्कृत-वाङ्मय के उर्वशी-पुरुरवा प्रेमाख्यान, नल-दमयन्ती प्रेमाख्यान, प्रभावती-प्रद्युम्न प्रेमाख्यान, उषा-अनिरुद्ध प्रेमाख्यान तथा श्रीकृष्ण-राधा और श्रीकृष्ण-रुक्मिणी प्रेमाख्यान का गहरा प्रभाव परिलक्षित होता है। 'कादम्बरी' और 'स्वप्नवासवदत्तम' आदि ग्रन्थ प्रेमकथा की गहरी छाप लिए हुए हैं। कई अन्य ग्रन्थों में भी बड़ी कथा के स्तर तक विकसित होने वाले प्रेम-प्रसंग प्राप्त होते हैं। ये सभी गाथाएँ निश्चित रूप में हिन्दी के उन प्रेमाख्यानों की उपजीव्य और प्रेरक हैं, जो भारतीय पद्धति पर लिखी गयी हैं। शकुन्तला और दुष्यन्त की कथा, अगस्त्य और लोपामुद्रा की प्रेमकथा भी संस्कृत के प्रसिद्ध प्रेमाख्यानों में हैं। प्रसिद्ध ग्रन्थों के अतिरिक्त लोक-जीवन में भी प्रेमगाथाओं की परम्परा थी, जिनमें कुछ तो इन ग्रन्थों से जुड़ी कथाओं का प्रतिरूप ही लगती हैं और कुछ का एकदम स्वतन्त्र अस्तित्व भी है। लोक-जीवन के प्रेमाख्यानों में हीर राँझा, मालती-माधव, माधवानल कामकंदला, सारंगा-सदाब्रज, लोरिक चंदा तथा ढोला-मारवाणी की कहानी बहुत प्रसिद्ध है।

संस्कृत साहित्य में प्रेम कथा

संस्कृत साहित्य की प्रेमकथाओं तथा लोक-जीवन की प्राचीन प्रेमगाथाओं के सम्मिलित प्रभाव में हिन्दी में भारतीय पद्धति की प्रेमाख्यान प्रणाली पहले से विद्यमान थी। हिन्दी साहित्येतिहास के प्रारम्भिक काल में 'बेलिक्रिसन रुक्मिणीरी' तथा 'ढोला मारू रा दूहा' इसके प्रमाण हैं। इन पर प्रेमगाथाओं के पीछे कोई बहुत गहरा धार्मिक और प्रचारात्मक उद्देश्य रहा हो, ऐसी बात नहीं है। ये भारतीय प्रेमकथाएँ कुछ गिनी-चुनी कथा रूढ़ियों के सहारे कुछ खास साँचे-ढाँचे में बंधी हुई चलती हों, ऐसी बात भी नहीं है। भक्तिकाल की निर्गुणधारा में प्रेमाख्यानों की जो सघन और समृद्ध परम्परा देखी जाती है, वह वस्तुतः उक्त भारतीय प्रेमकथाओं का विकास नहीं है, अपितु फारसी प्रभाव से हिन्दी में आयी हुई प्रेमकाव्य-परम्परा है, जिसकी पहचान इतिहास-ग्रन्थों में सूफी काव्यधारा के नाम से स्थापित की गयी है। इस धारा की रचनाओं में प्रेम और वियोग में जो तीव्रता देखी जाती है, वह लैला-मजनू, शीरी-फरहाद तथा यूसुफ - जुलेखा जैसी फारसी प्रेमगाथाओं - के प्रभाव के कारण है।

भारतीय प्रेमगाथा परंपरा एक समृद्ध और विविधतापूर्ण विरासत है जो सदियों से भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रही है। यह प्रेम, नैतिकता और सामाजिक मूल्यों के बारे में महत्वपूर्ण संदेश देती है। आज भी, प्रेमगाथाएं लोकप्रिय हैं और लोगों को प्रेरित और मनोरंजन प्रदान करती रहती हैं।

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