पद्मावत का महाकाव्यत्व | मलिक मोहम्मद जायसी

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पद्मावत का महाकाव्यत्व | मलिक मोहम्मद जायसी पद्मावत हिंदी साहित्य के अमूल्य रत्नों में से एक माना जाता है महाकाव्यत्व की स्वीकृति सदैव विद्वानों के

पद्मावत का महाकाव्यत्व | मलिक मोहम्मद जायसी


लिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित "पद्मावत" हिंदी साहित्य के अमूल्य रत्नों में से एक माना जाता है। इसकी महाकाव्यत्व की स्वीकृति सदैव विद्वानों के बीच चर्चा का विषय रहा है।यह रचना  कल्पना, भावना, भाषा, दर्शन  और सामाजिक संदेशों  से परिपूर्ण  है।  हालाँकि,  ऐतिहासिकता  और नैतिकता  के  मामलों  में  कुछ  आशंकाएं  भी  रही  हैं।अंततः,  पद्मावत  का  महाकाव्य  है  या  नहीं,  यह  पाठक  की  दृष्टि  और  विश्लेषण  पर  निर्भर  करता  है।

महाकाव्य तो प्रबन्ध का ही विशिष्ट रूप है और पदमावत को एक श्रेष्ठ प्रबन्ध की कसौटी पर खरा पाया गया है। भारतीय आचार्यों और पाश्चात्य आचार्यों ने महाकाव्य के लक्षणों को गिनाया है, किन्तु ये लक्षण पदमावत की रचना के आदर्श नहीं हैं। इनमें से बहुत से लक्षणों को हम प्रबन्ध-रूढ़ि के विवेचन में पदमावत में दिखा चुके हैं। अपने गंभीर उद्देश्य, सुसंगठित लोकख्यात कथानक और विविध प्रकार के रसात्मक व इतिवृत्तात्मक वर्णन विस्तार के कारण यह विशालकाय प्रबन्ध एक महाकाव्य की प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुका है। शास्त्रीय लक्षणों के विशेष आग्रही विद्वान उसे यह गौरव नहीं देना चाहते। इस प्रबन्ध में महाकाव्योचित गौरव और प्रभाव है, इसका अनुभव कोई भी विज्ञ सहृदय आसानी से कर सकता है। डॉ० नगेन्द्र ने यद्यपि महाकाव्यत्व के प्रति अपनी अहसमति व्यक्त की है तथापि वे इसे महाकाव्योचित महत्त्व देते हैं, जो इन शब्दों से स्पष्ट है- 'पदमावत मूलतः रोमांचक शैली का कथाकाव्य है किन्तु आलोचकों ने इसे आदर्शपरक महाकाव्यों की कसौटी पर कसने का प्रयत्न किया, फलस्वरूप उन्हें निराशा ही हाथ लगी। कुछ विद्वानों ने कथाकाव्य और महाकाव्य की मूल चेतना एवं पद्धति के सूक्ष्म अन्तर को समझे बिना ही इसे महाकाव्य सिद्ध करने का प्रयास किया है।'
पद्मावत का महाकाव्यत्व | मलिक मोहम्मद जायसी
 
हिन्दी महाकाव्य के स्वरूप-विकास का अनुशीलन करते हुए शम्भूनाथ सिंह ने पदमावत को रोमांचक महाकाव्य घोषित किया है। सूफी काव्य के ख्यातिलब्ध अध्येता डॉ० शिवसहाय पाठक ने भारतीय एवं पाश्चात्य दोनों मान्यताओं के आलोक में पदमावत के महाकव्यत्व को सिद्ध करने का प्रयास किया है। डॉ० गोविन्द त्रिगुणायत ने लिखा है कि 'पदमावत मसनवी शैली पर लिखा गया एक सफल भारतीय महाकाव्य है।' महाकाव्य की शास्त्रीय शैली और मसनवी शैली की जो विशेषताएँ पदमावत में चरितार्थ होकर उसे महाकाव्योचित प्रतिष्ठा प्रदान करती हैं, वे यहाँ सूत्र रूप में प्रस्तुत हैं
  1. महाकाव्य का कथानक इतिहास-प्रसिद्ध या लोक-विश्रुत होना चाहिए। इसमें इतिहास का अंश भी है और लोकगाथा प्रेरित होने के कारण यह कथा लोकविश्रुत भी है। जायसी ने इस कथा में इतिहास का अंश भी रखा है और कल्पना तथा लोकगाथा का अंश भी। 
  2. इसमें नायक-नायिका के सम्पूर्ण जीवन का विस्तार दिखाया गया है। नायक उच्चकुलोत्पन्न, वीर एवं साहसी है तथा नायिका असाधारण, रूपवती, गुणमयी और आदर्श प्रेम की प्रतिमूर्ति है । 
  3. ग्रन्थ के आरम्भ में स्तुति है, जिसमें संसार के कर्त्ता और नियन्ता की सामर्थ्य की विस्तृत चर्चा है। यह स्तुतिखण्ड मंगलाचरण की सम्यक् पूर्ति करता है । 
  4. कथा का विभाजन खण्डों में है। पदमावत कुल 58 खण्डों में है। यह विभाजन सर्गों के अनुरूप नहीं, अपितु अध्यायों के अनुरूप लगता है। फिर भी सर्गबद्धता वाली कथा विभाजन की मान्यता का निर्वाह इससे भी भली-भाँति हो जाता है। 
  5. पाँच सन्धियों की अवधारणा पदमावत के कथा-विकास में की जा सकती है किन्तु इसका स्वरूप सुसंगत नहीं है, फिर भी कथा-संगठन पर इसका दुष्प्रभाव नहीं पड़ता ।
  6. जहाँ तक चतुरंग फलप्राप्ति का प्रश्न है, पदमावत में रत्नसेन को मुख्यतः काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है। पदमावती लौकिक दृष्टि से परम सुन्दरी नारी है और : आध्यात्मिक दृष्टि से ईश्वर रूपा है। इन दोनों दृष्टियों से रत्नसेन काम और मोक्ष की सिद्धि प्राप्त करता है। साधना पक्ष में धर्म भी शामिल है। राजकुलोचित गौरव के कारण उसका अर्थपक्ष स्वयं सुदृढ़ है। अनमोल रत्नों की प्राप्ति में उसे और भी फलित दिखाया गया है। यह विशेषता भी पदमावत में पूर्णतः चरितार्थ है । 
  7. पदमावत का अंगीरस शृंगार है। इसके दोनों पक्षों का यहाँ अपूर्व उत्कर्ष हुआ है। मसनवी शैली की प्रेम-पद्धति ने इस मुख्य रस को प्राणवन्त बनाया है। अन्य रसों का भी यथावसर प्रयोग है। वीर, करुण, रौद्र, भयानक आदि रसों की सम्यक् उद्भावना है। कथा का पर्यवसान शान्त रस में हुआ है। लौकिक पृष्ठभूमि से अलौकिक स्तर तक प्रेम का उन्मुक्त विकास ही काव्य की प्रबन्ध-ध्वनि है। 
  8. पदमावत में प्रकृति वर्णन के विभिन्न रूप जैसे षड्ऋतु वर्णन, बारहमासा आदि मिलते हैं। वस्तु-वर्णन में गढ़ का वर्णन, सेना का वर्णन, विवाह का वर्णन, भोज का वर्णन आदि को सम्मिलित किया जा सकता है। यह वर्णन-वैविध्य महाकाव्यों में मानव जीवन की विस्तृत अवधारणा कराने के लिए वांछित माने जाते हैं।
  9. प्रेम की तीव्रता इस काव्य के कथ्य की केन्द्रीय भावना है। सूफी सिद्धान्तों का प्रतिपादन इसका गम्भीर लक्ष्य है। ये बातें भी महाकाव्य के लिए आदर्श होती हैं। 
  10. दूत, सन्देश, वक्ता-श्रोता, संक्षिप्त कथासूत्र का संकेत आदि ऐसी विशिष्ट प्रबन्ध रूढ़ियाँ हैं, जो प्राचीन शैली के महाकाव्यों में होती हैं। पदमावत में ये हैं। 
  11. महाकाव्य के अन्य लक्षण भी किसी न किसी रूप में इस रचना में हैं। फारसी के मसनवी प्रेमाख्यानों की सारी विशेषताएँ भी इसमें हैं, जो महाकाव्यत्व को किसी न किसी कोण से परिपुष्ट ही करती हैं, उसमें व्याघात नहीं डालतीं।
  12. प्रेम की गौरवमयी परिणति और संसार की अनित्यता का सन्देश ही इस काव्य का मुख्य अभिप्रेत है। 

पदमावत के कुछ अध्येताओं ने इसकी कुछ ऐसी कमियों की ओर इंगित किया है जो महाकाव्यत्व पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाले हैं। इसमें सबसे पहली बात यह है कि रत्नसेन धीरोदात्त नायक पद के निकष पर खरा नहीं उतरता। वास्तव में वह अपने निजी प्रेमपथ पर चलते हुए प्रकट रूप में लोक-धर्म निर्वाह से कहीं जुड़ता ही नहीं। राजधर्म के निर्वाह में भी वह बहुत सजग नहीं प्रतीत होता। उसे धीर ललित भी मानने का सम्पूर्ण आधार नहीं प्राप्त होता । ये कमियाँ खटकती अवश्य हैं, पर यदि उसकी शैली को ध्यान में रखें तो हम पाते हैं कि वह मसनवी प्रेमाख्यानों के नायक पद के पूर्णतः अनुरूप है और प्रेममार्ग के आदर्श का पूरा निर्वाह करता है। आचार्य शुक्ल ने इसमें आदर्श परिणाम पर पहुँचने की कमी की ओर इंगित किया है, पर साथ ही वे ये भी कहते हैं कि इसके चलते जो खतरे प्रबन्धकार के लिए होते हैं, उनमें जायसी ने पदमावत को एकदम बचा लिया है। वस्तुतः पदमावत का सम्पूर्ण प्रभाव उसे महाकाव्य मानने की प्रेरणा देता है। कुछ सैद्धान्तिक शर्तों का अभाव इस धारणा को दबा नहीं पाता। 

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