काव्य दोष का अर्थ प्रकार महत्व और परिहार

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काव्य दोष का अर्थ प्रकार महत्व और परिहार काव्य दोष वे त्रुटियां हैं जो किसी काव्य रचना को प्रभावहीन और अरुचिकर बना देती हैं। ये त्रुटियां शब्द, अर्थ,

काव्य दोष का अर्थ प्रकार महत्व और परिहार

काव्य दोष वे त्रुटियां हैं जो किसी काव्य रचना को प्रभावहीन और अरुचिकर बना देती हैं। ये त्रुटियां शब्द, अर्थ, रस या अलंकार के स्तर पर हो सकती हैं। काव्य दोषों से मुक्त रचना ही सच्चा काव्य माना जाता है।

काव्यशास्त्रियों ने काव्य-दोषों का काव्य-गुणों की अपेक्षा अधिक विस्तृत रूप से विवेचन किया है। सम्भवतः इसलिए कि निषेध की प्रतिक्रिया स्वाभाविक और शीघ्र होती है अथवा कहा जा सकता है कि दोनों की परिगणना के द्वारा गुणों का विवेचन अभीष्ट समझा गया हो, क्योंकि दोष परिहार ही गुण की स्थिति होती है।
 

काव्य दोष का स्वरूप

जिससे काव्य में असंगति, असम्बद्धता तथा शिथिलता आ जाए ऐसी स्थितियाँ काव्य-दोष कही जाती हैं। काव्य-दोषों के विषय में विद्वानों ने अनेक प्रकार से विचार किया है, किन्तु इस विषय में दोष के स्वरूप का निरूपण करने वाला सर्वसम्मत विवेचन आचार्य वामन के ग्रन्थ 'काव्यालंकारसूत्र' में प्राप्त होता है। उनके अनुसार गुण का विपर्यय ही दोष है— गुण विपर्ययात्मनो दोषः

आचार्य भरतमुनि ने भी 'एत एव विपर्यस्ता गुणा' अर्थात् गुणों का विपर्यय दोष है अथवा दोष का विपर्यय गुण है, लिखा है, परन्तु भरतमुनि के इस कथन से यह ध्वनि भी निकलती है कि गुणों का अभाव दोष है, जबकि वास्तविकता यह है कि गुणों के रहते हुए भी काव्य में काव्य-दोषों का समावेश हो सकता है लेकिन आचार्य वामन की परिभाषा में यह भ्रान्ति नहीं है; उनके अनुसार दोष गुणभाव नहीं, अपितु सौन्दर्य के घातक हैं। वामन के मत को डॉ. नगेन्द्र ने अधिक स्पष्ट शब्दों में सामने रखा है। उनके अनुसार— “वामन के विवेचन से स्पष्ट है कि विपर्यय से उनका तात्पर्य वैपरीत्य का ही है। उनके दोष काव्य सौन्दर्य (गुण) के अभाव के ही द्योतक हैं। उनके अधिकांश गुण सौन्दर्यशास्त्र तथा लोक औचित्य आदि के निषेध अथवा उल्लंघन द्वारा काव्य-सौन्दर्य की हानि करते हैं। अतः उनकी स्थिति विलोम रूप ही है। इस प्रकार आचार्य वामन के अनुसार, दोष उन तत्त्वों को कहते हैं, जो काव्य-सौन्दर्य की हानि करते हैं।" डॉ. नगेन्द्र के इस विवेचन से स्पष्ट है कि आचार्य वामन गुणों का अभाव करके दोष आरोपित नहीं करते, अपितु दोष वे हैं जो गुणों के रहते हुए भी उनके सौन्दर्य को नष्ट करते हैं।
 
काव्य दोष का अर्थ प्रकार महत्व और परिहार
आचार्य मम्मट
के समय तक ध्वनि-सिद्धान्त की स्थापना से स्थिति बदल चुकी थी, अतः उन्होंने अर्थ के अपकर्ष के कारण को ही दोष माना है और आचार्य विश्वनाथ ने मम्मट के शब्दों को सहज रूप में प्रस्तुत कर दिया। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार- रसापकर्षका दोषाः ।

अर्थात् जो रस का अपकर्ष करें, वे दोष हैं। उनके द्वारा दिए गए दोष के इस स्वरूप के अनुसार रस का वह अपकर्ष तीन प्रकार से हो सकता है विलम्ब द्वारा, अवरोध और रस-प्रतीति के पूर्ण नष्टीकरण के द्वारा।
 
काव्य-दोषों के लक्षणों पर संस्कृत के आचार्यों ने ही नहीं, रीतिकालीन हिन्दी आचार्यों ने भी विस्तार से वर्णन किया है। इनके पर्यवेक्षण से यह स्पष्ट होता है कि दोष शब्द-गत और अर्थ-गत माना गया है, अतः जो तत्त्व इस में शिथिलता, उपेक्षा आदि लाते हैं और शब्द तथा अर्थ को विकृत कर देते हैं, वे दोष कहलाते हैं काव्य-दोषों के अन्तर 
काव्य के कौन-कौन से दोष हैं, इस प्रकार प्रत्येक आचार्य ने अपने-अपने दृष्टिकोण के अनुसार विचार किया है। हम आचार्यगत काव्य-दोषों के भेद-परिगणन की अपेक्षा सामूहिक रूप से यहाँ पर विचार करेंगे, जिससे उनका स्वरूप भली प्रकार स्पष्ट हो सके।
 
वैसे तो प्रत्येक आचार्य ने काव्य-दोषों के अनेक भेद किए हैं, किन्तु मुख्य रूप से इसके दो भेद किए जा सकते हैं-
  1. नित्य काव्य-दोष ।
  2. अनित्य काव्य-दोष ।
'नित्य' से यहाँ आशय ऐसे दोषों से है जो काव्य में हमेशा विद्यमान रहते हैं। इन दोषों का राजशेखर ने विस्तार से वर्णन किया है और 'अनित्य' दोष वे हैं, जो काव्य में कभी-कभी ही आ जाते हैं, उनका सप्रयत्न परिहार किया जा सकता है।
 

नित्य काव्य दोष 

नित्य काव्य-दोषों में असत्यार्थभिधायक काव्य, असदुपदेशक काव्य तथा असभ्यार्थक काव्य को गिना जा सकता है, क्योंकि इनकी किसी-न-किसी रूप में काव्य में स्थित रहती है। अब यहाँ पर प्रत्येक पर संक्षेप में विचार करके उनका परिहार किस प्रकार हो सकता है, इस पर विचार करेंगे ।
 
असत्यार्थभिधायक काव्य-कवि की कल्पना से सम्बद्ध होने के कारण काव्य वास्तविक जगत् से अलग हो जाता है, लेकिन साहित्य को जीवन की अभिव्यक्ति मानने वाले इसे दोष मानते हैं- असत्यार्थभिधायित्वात् नोपदेष्टव्यं काव्यम् । 
यदि काव्य वास्तविक जगत् की वस्तु-स्थिति से अलग है तो वह समाज का प्रतिबिम्ब कैसे बनेगा और बिना यथार्थता के प्राणियों को कल्याण-मार्ग कैसे दिखाएगा, अतः असत्य अर्थ को पोषित करना काव्य का एक नित्य दोष है। 

परिहार-काव्य में वर्णित वस्तुओं की अपनी एक विशेष सत्ता होती है। यद्यपि कवि किसी स्थान अथवा घटना-विशेष के सत्य को अपने काव्य में प्रस्तुत नहीं करता, अपितु अपनी अनुभूति से अनुस्यूत भी तथ्य देता है, वे सार्वभौम होते हैं और वास्तविक जगत् के ज्ञाता होते हैं। वास्तविक जगत् के व्यापारों में जो व्यक्ति-विशेषों के स्वार्थ-निहित होने के कारण वे पाठकों पर तटस्थ प्रभाव नहीं डाल पाते हैं, लेकिन वही 'कार्य-व्यापार कवि कल्पना से उद्भावित होकर अपने अध्येताओं को प्रभावित कर लेते हैं, अतः इसे दोष मानना उचित नहीं है। हाँ, वह प्रभाव उत्पन्न करने के लिए शब्दों में अतिशयोक्ति लाकर अर्थ में बहुलता उत्पन्न कर देता है, जिससे व्यक्ति सत्य की तह तक जा सके।
 
असदुपदेशक काव्य-काव्य मनोरंजनार्थ अथवा कवि की अनुभूति की अभिव्यक्ति होने के कारण भी अशोभन, विलासिता, कामुकता एवं उच्छृंखलता का भी वर्णन करता है। अनेक सुधी आलोचकू इसे दोष मानते हैं और वे इसे पाठकों पर कुप्रभाव डालने वाला मानते हैं। उनका कहना है कि कवि सदा नैतिक बातों की ही चर्चा नहीं करता, वरन् अशोभन और नैतिक दृष्टि से, सामाजिक दृष्टि से निन्दनीय आदर्शों का भी द्योतन करता है- असदुपदेशकत्वात् तर्हि नोपदेष्टव्यं काव्यम् ।
 

काव्य दोष का परिहार

राजशेखर ने इसका परिहार करते हुए लिखा है कि 'कवि वचनायता लोक-यात्रा' - लोकयात्रा — कवि वचन का आश्रय लेकर स्थिर रही है। अतः संसार में जबकि शोभन और अशोभन दोनों ही हैं, तो एक ही उपदेश क्या काव्य को एकांगी नहीं बना देगा ? यदि कवि शोभन का ही उपदेश दे तो अशोभन का परिचय कैसे प्राप्त होगा ? कवि अशोभन का वर्णन करता है पर निषेध्य रूप से, विधेयरूप से नहीं 'अस्त्ययममुपदेशः किन्तु निषेध्यत्वेन न विधेयत्वेन इति यायावरीयः ।' असभ्यार्थक काव्य-काव्य में प्रायः अशिष्ट एवं उच्छृंखल कथन भी दिखाई देते हैं, समीक्षक इन्हें भी एक दोष मानते हैं- असभ्यार्थाभिधायित्वान्नोपदेष्टव्यं काव्यम् ! उनके अनुसार असभ्यता तथा शिष्टता के विरुद्ध कथन अथवा वर्णन काव्य के दोष हैं।
 
परिहार- राजशेखर ने इस दोष का परिहार करते हुए लिखा है-'प्रक्रमपापन्नो निबन्धनीय एवायमर्थः ' अर्थात् असभ्य भी वर्णन क्रम में आने पर उपेक्षणीय नहीं होता है। काव्य में जब सार्वदेशीय और सार्वभौमीय वर्णन है तो रीति-रिवाजों की गणना और दिग्दर्शन की दृष्टि से इनका प्रयोग दोषपूर्ण क्यों ? तथ्य तो यह है कि काव्य से चतुर्वर्ग-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है, अतः इसे दोष नहीं कहा जा सकता है। 

अनित्य काव्य दोष 

अनित्य काव्य-दोष, वे दोष हैं, जो कवि की लापरवाही अथवा अज्ञानता के कारण काव्य में आ जाते हैं। इन दोषों से काव्य की गरिमा समाप्त होने लगती है। ये दोष वैसे तो प्रत्येक आचार्य ने अपनी-अपनी दृष्टि से गिनाए हैं, लेकिन उनमें विभिन्नता होते हुए भी एकता है। इन दोषों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है; यथा— 1. शब्द-दोष, 2. अर्थ-दोष, 3. रस-दोष ।
 
आचार्य मम्मट ने 16 शब्द-दोष, 23 अर्थ-दोष और 10 रस-दोष माने हैं। वामनकृत पद-दोष शब्द-दोषों में और पदार्थ-दोष अर्थ-दोषों के अन्तर्गत आ जाते हैं। इस प्रकार वामन के मात्र दो प्रकार के दोष रह जाते हैं- वाक्यदोष और वाक्यार्थ दोष। इनके दोष-वर्णन में अनेकानेक पुनरुक्तियाँ हैं । अतः संक्षेप में इन दोषों को निम्नानुसार देखा जा सकता है- 

शब्द दोष -  जहाँ शब्द मुख्य अर्थ को समझाने में बाधा उत्पन्न करता है, वहीं शब्द-दोष होता है। शब्द-दोषों के दो भेद होते हैं-पद-गत दोष और समासगत दोष । श्रुतिकटु, च्युतसंस्कृति, अप्रयुक्त, असमर्थ निहितार्थ, निरर्थक ग्राम्य और नैयार्थ आदि को पद-गत दोष कहा गया है और क्लिष्ट, अविभृष्ट विधेयांश और विरुद्धमति कृति को समासगत दोष माना गया है ।
 
अर्थ-दोष- जहाँ अर्थ मुख्यार्थ का बाधक होता है, वहाँ अर्थ-दोष होता है। आचार्य मम्मट ने 22 अर्थ-दोष माने हैं, उनमें से अनेक तो शब्द-दोषों में ही आ गए हैं, यथा- ग्राम्यत्व, पुनरुक्ति, निर्हे तुक कष्टत्व (क्लिष्टत्व) आदि। शेष में से अनेक स्वयं में एक-दूसरे के पयार्यवाची हैं। अतः मुख्य अर्थदोष दुष्क्रमत्व, व्याहत्व, अपुष्टार्थत्व, निर्हेतुक संदिग्धत्व और अश्लीतत्व माने जा सकते हैं।
 
रस-दोष - जहाँ रस मुख्यार्थ में बाधक होता है, वहाँ रस-दोष होता है। आचार्य मम्मट ने रस के 10 दोष माने हैं, जो निम्न हैं- 
1. व्यभिचारियों, रसों और स्थायी भावों की स्वशब्दवाच्यता। 
2. अनुभावों और विभावों की अभिव्यक्ति में कष्ट- कल्पना । 
3. प्रकृति रस के विरुद्ध विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों का वर्णन । 
4. अंगभूत रस की बार-बार दीप्ति । 
5. अवसर न होने पर भी रस-वर्णन । 
6. अनवसर में रस-विच्छेद । 
7. अप्रधान का अत्यन्त विस्तृत वर्णन । 
8. प्रधान का विस्मरण । 
9. प्रकृतिगत औचित्य के प्रतिकूल वर्णन । 
10. रस के अनुपकारक का वर्णन ।
 
दोष परिहार – जिस स्थान पर दोष, दोष न होकर गुणवत् हो जाता है ऐसी स्थिति दोष परिहार कहलाती है। अनित्य दोषों की एक विशेषता यह है कि वे दोष सर्वत्र नहीं रहते हैं उनमें से अनेक वर्णन-वैचित्र्य अथवा भाव-वैचित्र्य से गुंण बन जाते हैं, जैसे- 

शब्द-दोष परिहार — शब्द-दोषों में ग्राम्यत्व दोष का उल्लेख मिलता है। यदि पात्र नीच हैं अथवा अनपढ़ और गन्दे लोगों के वातावरण में पालित-पोषित हैं, तो उसके कथन दोष न रहकर गुण बन जाते हैं। इसी प्रकार जहाँ श्रोता और वक्ता, दोनों ही शास्त्र विषय के ज्ञाता होते हैं। वहाँ प्रतीत्त्व दोष नहीं रहता है, ब्याज-स्मृति अलंकार में संदिग्धत्व दोष नहीं रहता, दो विभिन्न रसों का एक साथ वर्णन करने में श्रुतिकटुत्व दोष नहीं रहता, शब्द चमत्कार की साधना में क्लिष्टत्व दोष नहीं रहता, श्लेष में निहितार्थ दोष नहीं रहता, अनुप्रास और यमक में पुनरुक्ति दोष नहीं रहता और ऐतिहासिक वातावरण के चित्रण में प्रयुक्त प्रचलित शब्द का प्रयोग करने से अप्रतीत्व दोष नहीं रहता है।
 
अर्थ दोष परिहार - अर्थ-दोष अनेक स्थलों पर दोष न रहकर गुण बन जाते हैं, जैसे—जहाँ अध्याहार के कारण शीघ्र अर्थ समझ में आ जाता है, जहाँ न्यूनपदत्व दोष वाग्वैदग्ध्य में बदल जाता है, लाटानुप्रसा और करणमाला अलंकारों में कथित अर्थ-दोष नहीं रहता, लोक-प्रसिद्धि के अर्थ में निर्हेतुक दोष नहीं रहता और कहीं-कहीं बात की सूक्ष्मता सिद्ध करने के लिए दुष्क्रमत्व दोष भी दोष नहीं रहता है।
 
रस दोष परिहार - इसी प्रकार रस-दोषों का भी परिहार हो जाता है। कहीं-कहीं दो विरोधी रस का एक साथ प्रयोग दोष न रहकर गुण हो जाता है। इसी प्रकार दो विरोधी रसों के मध्य में किसी तीसरे तटस्थ रस के समावेश से विरोध का परिहार हो जाता है। कारण विशेष से अप्रधान रस का वर्णन भी कभी-कभी काव्य के सौन्दर्य का कारण बनता है।
 
निष्कर्ष - प्रस्तुत विवेचन से स्पष्ट है कि दोष सर्वत्र दोष नहीं रहते, उनका थोड़े-से घुमाव से परिहार ही नहीं होता, अपितु गुणों का रूप धारण कर लेते हैं और इस आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि गुणों का अभाव ही दोष है अथवा गुणों का बाधक दोष है। दोषों का वास्तव में गुणों से अभिन्न सम्बन्ध नहीं है। इनकी अपनी स्वतन्त्र एवं पृथक् सत्ता है जो काव्य में कवि की अज्ञानता अथवा शिथिलता से उत्पन्न हो जाते हैं, किन्तु यदि थोड़ी-सी भी सावधानी से काम लिया जाए तो ये दोष ही काव्य की शोभा के कारक हो जाते हैं और कवि की वाणी का चमत्कार बन जाते हैं। एतदर्थ दोष काव्य में अनित्य ही हैं। इनका यथासम्भव परिहार हो जाता है।

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