धूमिल की कविता की भाषा और शिल्प

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धूमिल की कविता की भाषा और शिल्प धूमिल, हिंदी साहित्य के एक प्रमुख प्रगतिवादी कवि थे। उनकी काव्य भाषा को लेकर कई तरह के विश्लेषण हुए हैं। उनकी भाषा को

धूमिल की कविता की भाषा और शिल्प


धूमिल, हिंदी साहित्य के एक प्रमुख प्रगतिवादी कवि थे। उनकी काव्य भाषा को लेकर कई तरह के विश्लेषण हुए हैं। उनकी भाषा को सरल, सहज, और आम आदमी की भाषा कहा जाता है। लेकिन यह कहना कि उनकी भाषा केवल सरल है, पूरी तरह सच नहीं है। धूमिल की भाषा में एक गहराई और बहुआयामीपन है।

धूमिल की कविता की भाषा और शिल्प
धूमिल द्वारा प्रयुक्त, कविताओं में ऐसी भाषा के चित्र यत्र-तत्र सर्वत्र देखे जा सकते हैं। स्पष्ट ही यह भाषा लड़ाई की भाषा है। उनकी भाषा में आक्रामकता है, जबान का तीखापन है। किन्तु, यह तीखापन वहाँ नहीं, जहाँ दन्तहीन शिशु की किलकारी है, जहाँ गाँव-घर-माँ-घरनी-बच्चों से लगाव है, जहाँ गरीबी और वैवसी का मार्मिक चित्रण है, जहाँ जीवन की मुस्कान है, लोकमंगल की कामना और भविष्य के प्रति आस्था है। वहाँ भाषा साफ-सुथरी - सरल और संवेदना जगानेवाली है । वहाँ तो उनकी भाषा बड़ी आत्मीय हो जाती है। वास्तव में, 'गरीबी को भाषिक सम्पन्नता में जीनेवाले एकमात्र कवि धूमिल ही हैं।'
 
दो-एक उदाहरण द्रष्टव्य हैं -
 
करछुल
बटलोही से बतियाती है और चिमटा 
तवे से मचलता है
चूल्हा कुछ नहीं बोलता 
चुपचाप जलता है और जलता रहता है। 

'कल सुनना मुझे
जब दूध के पौधे झर रहे हो सफेद फूल 
निःशब्द पीते हुए बच्चे की जुबान पर 
और रोटी खायी जा रही हो चौके में गोश्त के साथ। 
जब खटकर (कमाकर) खाने की खुशी परिवार और भाई-चारे में 
बदल रही हो- कल सुनना मुझे।'
 
स्पष्ट है कि धूमिल की भाषा में तीखापन, आक्रामकता या भदेसपन वहाँ है, जहाँ कही जाने वाली बात तीखी है और इतनी तीखी है कि बिना भाषा के आक्रामक रुख के इस तीखेपन को सुरक्षित रख पाना असंभव था । 

जहाँ तक धूमिल की भाषा में अश्लीलता एवं भदेसपन का प्रश्न है, तो भाषा में वे ऐसे प्रथम प्रयोक्ता नहीं हैं। “भाषा में भदेसपन की शुरुआत हिन्दी में धूमिल के पूर्ववर्ती काव्य में ही शुरू हो चुकी थी और इसका चरमोत्कर्ष राजकमल चौधरी की कविता में भदेसपन का काव्यगत यह आयाम आकस्मिक ही नहीं प्रकट हुआ, बल्कि इसके पीछे ठोस परिवेशगत कारण मौजूद थे। यह सही है कि वे बहुत-से कवि इसी भदेसपन के कारण असमय ही चुक गये, किन्तु भाषा में भदेसपन को तार्किक परिणति तक पहुँचाने में धूमिल को सफलता मिली और उनकी भाषा-शक्ति के रूप में यह मान्य हुआ। आज भदेसपन भाषा का दूषण नहीं, भूषण बन सकता है, तो इसलिए कि धूमिल -जैसे कवियों ने उसे तराश कर सम्प्रेषण की समकालीन प्रक्रिया में अत्यन्त सार्थक एवं प्रासंगिक बना दिया है। आज भदेसपन का त्याग करके क्या परिवेशगत सच्चाई का साक्षात्कार किया या कराया जा सकता है ? यदि इसका उत्तर कोई 'हाँ' कहता है, तो यही मानना होगा कि वह आज भी किसी-न-किसी स्तर पर रोमानी आदर्श से जुड़ा हुआ है और यथार्थ से उसका कोई दूर का भी नाता नहीं है।” 

इस प्रकार , धूमिल की भाषा का गठन उनके सामाजिक संदर्भ से अविभाज्य है। वे एक ऐसे युग में लिखते थे जब देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा था। उनकी कविताएँ देशभक्ति, क्रांति और सामाजिक परिवर्तन के भावों से ओत-प्रोत हैं। उनकी भाषा इसी संदर्भ में विकसित हुई।धूमिल की भाषा ने हिंदी कविता पर गहरा प्रभाव डाला है। उन्होंने हिंदी कविता को एक नई दिशा दी। उनकी भाषा की सरलता और प्रभावशीलता ने कई युवा कवियों को प्रेरित किया।धूमिल की काव्य भाषा को केवल सरल कहना उनके योगदान के प्रति अन्याय होगा। उनकी भाषा में गहराई, बहुआयामीपन और शक्ति है। उन्होंने हिंदी कविता को समृद्ध किया और इसे आम आदमी की भाषा बनाया।

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