भाजी वाला भैया | हिन्दी कहानी

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मैं कुछ नहीं बोल पाती। वह भी। विशुव्द्ध स्नेह बरसने लगा है। आँखें भर आईं। ऐसा स्नेह वह सह नहीं पा रहा है। पैडल मारकर आगे निकल जा रहा है। मैं उसे जाते

भाजी वाला भैया


भाजी........भा......जी.......भाजी लो बाई भाजी...

दूर से ही भाजीवाले की आवाज सुनाई दे रही थी। सुबह का समय। मैं काम में लगी। आवाज सुन काम छोड़ सामने बरामदे में आ गई। देखने लगी , भाजीवाला मेरे घर तक आता है या नहीं....।

आवाज करीब आती जा रही है। बीच बीच में रुक भी जाती है। जरूर कुछ महिलायें खरीद रही होंगी भाजी। ..

बरामदे में चुपचाप खड़ी हूँ मैं। इंतजार करते। सामने का दरवाजा बंद ही है। जब मेंरे घर के सामने लगायेगा आवाज, तब खोलूंगी दरवाजा।

आवाज मेरे घर के करीब आती जा रही है। मेरे घर के एकदम करीब आकर रुक गई है। जरूर पड़ोसिन ले ही होगी भाजी। बस अब मेरा घर...

मगर अब तो आवाज ही बंद। थोड़ी देर इंतजार कर दरवाजा  खोलकर बाहर झाँकती हूँ। भाजीवाला पलटकर जा रहा है।.

दुष्ट, कंजूस, मनहूस... मन ही मन गाली देते मैं घर के भीतर आ जाती हूँ। मुझे अँदेशा था ही यह कमीना मेरे घर तक आकर मुड़ जायेगा, इसीलिये मैंने सामने का दरवाजा नहीं खोला था कि दरवाजा बंद देखकर जान जाये कि मुझे भी तेरी गरज नहीं।

मैं क्या उसकी भाजी के लिये मर रही हूँ, दूसरी सब्जी बना लूंगी...मन ही मन बड़बड़ाते हुये मैं घर के कामधाम निपटाये जा रही हूँ, ध्यान  उसकी तरफ ..”.मगर देखो इसकी अकड़, एक जूड़ी भाजी ज्यादा क्या ले ली, इसने मेरा बहिष्कार ही कर दिया। भाजी न हुई, हीरा मोती हो गई। फिक्स रेट है। एक जूड़ी ज्यादा नहीं ले सकते। कौन सब्जीवाला है भई जिससे लोग भावताव नहीं करते,...।“

अकड़ू ,चिड़चिडह़ा, टरटरहा, गुस्सैल... यह मुझे मालूम था, सारे मुहल्ले को मालूम था, मगर फिर भी मैं इसे छेड़ बैठी। जाने क्यों मुझे इसका रूखापन, चिड़चिड़ापन, ग्राहक को फटकार देने का ढंग, अच्छा न लगता। मुझे लगता, इसमें भावना नहीं है, मानवीयता ही नहीं है। दूसरे सब्जीवाले भी आते हैं मुहल्ले में ठेला लेकर। सब्जियों से भरा है ठेला। आवाज  लगाते हैं... केैसी मीठी आत्मीयता भरी .... ”दीदी सब्जी, माँजी सब्जी, भाभी सब्जी....। महिलायें निकल पड़ती हैं अपने अपने घरों से। कैसा सुंदर भावताव लेना देना होता है...”.नहीं पड़ता दीदी, बाजार में भी यही भाव चल रहा है।“ महिलाओं का पलटवार...”अरे जा, हम बाजार नहीं जाते क्या। भाव हमें नहीं मालूम है क्या।“ लेना देना, उलाहना, स्वीकारना, कभी सब्जीवाला भारी, कभी महिलायें भारी। कैसी मजेदार दलीलें,व्यंग्य, वक्रोक्तियाँ । एक दूसरे की काट, हँसी। खिलखिल। अंततः मीठा समझौता। हँसी सब्जीवाले भैया के चेहरे पर भी, महिलाओं के चेहरे पर भी। मुहल्ले में मीठे रस की बयार बहा जाते हैं सब्जीवाला भैया।

भाजी वाला भैया
एक यह है, बिजली के खंबे सा, गहरा साँवला, मुसा हुआ कुर्ता पाजामा, कड़ियल चेहरा, खिचड़ी केश। पुरानी सायकिल में  भाजियों से भरे बड़े बड़े टोकरे,़ थैले लगाये। रूखी सी तेज आवाज.....”.भाजी....बाई।“ मानो लेना हैे तो लो...। महिलाओं से तो एकदम टर्र टर्र, जैसे महिलायें इस बेचारे का शोषण ही तो कर लेंगी। महिलाये ंसच में डरती हैं इस टर्रबाज से,पर भाजी लेती हैं इसीसे, क्योंकि भाजी इसकी सचमें बहुत बढ़िया होती है। ताजी और स्वादिष्ट। लाता भी तो है लगभग हर प्रकार की भाजी....पालक,मैथी, चौलाई, बथुआ, चेंच, खेड़ा, गोहार। भाजी के छोटे छोटे बंडल होते हैं, जिन्हें यहाँ जूड़ी कहा जाता है। इन दिनों बिक रही है दस रुपये की पाँच जूड़ी। मैंने उस दिन खरीदी चौलाई भाजी। दी उसने पाँच जूड़ियाँ। मैंने कहा....बाजार में तो छह जूड़ियाँ मिल रही हैं। बोला टरटरहा..”.जा खरीद ले बाजार से।“ मैं बोली, ”बाजार जाकर खरीदना होता तो तुझसे क्यों लेती। बोला“...”मोर टेम खराब मत कर, जल्दी ला पैसा।“ मैं तुनकी...”.छह जूड़ी नहीं देबे तो नहीं लों तोर भाजी। धर अपन भाजी।“ भाजी उलटने लगी। वह अपनी भाजी वापस नहीं लेना चाहता था। मुँह फुलाये उसने एक जूड़ी और दे दी।

दूसरे दिन भाजी लेते समय उसने फिर पाँच जूड़ियाँ दी। मैंने कहा..”.एक जूड़ी और दे, कल छह जूड़ी दे रेहे।“ वह बोला...”तें जबर्दस्ती ले ले  रेहे।“ मैं बोली...”तोर संग कोनो जबर्दस्ती नहीं करे का?“ बोला... ”नहीं करे।“ मैं बोली... ”तोर कोनो बड़े बहिनी नहीं हे का?“ बोला, हवे। बोली.. ”वो तोर से जबर्दस्ती नहीं करै का?“ बोला....”बहुत जबर्दस्ती करत रिहिस। मोर सब जामुन छीन लेत रिहिस।“ खोने लगा..”.पेड़ पर चढ़के सीताफल मैं तोड़ों, झटक ले। बहुत धौस जमाये।  मैं बोली......”.अब कुछू छीनते नहीं?“ बोला..”अब तो बहुत दूर रथे।“ बोली...तें कभू ”खोज खबर“ लेथस नहीं ओखर।“ उसका चेहरा अचानक भर आया। 

पैसा देते हुये बोली... ”तोर सगे बहिनी तो दूर चल दिस। भगवान तोला ग्राहक रूप मे  अतेक माँ बहिनी दे हे। थोरिक छीन झपट कर लें,  तो  जामुन  छीनैया अपन बहिनी ला याद कर ले कर। भाई बहिनी मे छीन झपट होते, झगड़ा लड़ाई होथे, फेर मेल मिलाप होथे, तो  परिवार में प्रेम बढ़थे। मुहल्लादारी वाले भाईबहन में भी ऐसेही प्रेम बढ़थे। समाज में प्रेमभाव फैलथे़। बहिनी मन कभू भाई के घाटा नुकसान  नहीं चाहैं भैया, लड़ाई झगड़ा छीन झपट कतको कर लें। दूर बइठे भाई के खुशहाली माँगत रथें। बहिनी मन के मान रखे से बरक्कत होथे। ऊंखर आशीर्वाद से घर में लक्ष्मी आथे।

उससे सुना न गया। सख्त कड़क चेहरा जाने कैसा कैसा होने लगा। पैडल मार कर आगे निकल गया।

वह दिन है और आज का दिन है, वह मेरा घर आने के पहले ही पलट जाता है। मैं समझ गई उसके कड़ियल स्वाभाव को इस तरह भावना जगाने वाली बातें पसंद नहीं। भावना जागने से नुकसान होता है। धंधे में भावना नहीं।

मेरे मन मे भी द्वंद्व चलता रहता। बेकार उसे छेड़ा। उसके निजी जीवन में सेंध मारने का क्या हक है मुझे। मगर फिर लगता, उसे अगर मैं नहीं कहूंगी तो कौन कहेगा। संबंधों की उष्मा, सरसता, सुखद अहसास, कभी महसूस ही नहीं कर पायेगा अभागा। दूसरे  सब्जीवाले आते हैं तो कैसा सुंदर सहास्य लेना देना। बेचनेवाला, खरीदने वाला दोनो प्रसन्न। वातावरण ही प्रसन्न। एक दूसरे के हारी बिमारी की चिंता भी।  ग्राहक और दुकानदार का कैसा मधुर संबंध। वंचित यह एक अभागा।

द्वंद्व शायद उसके भीतर भी चल रहा था। घर के भीतर उसकी आवाज सुनती मैं स्पष्ट महसूस करने लगी थी, उसकी आवाज में स्निग्धता सी उतर आई है।

कि एक दिन आँगन में काम करती मैं क्या सुन रही हूँ, ठीक अपने दरवाजे के सामने...”.भाजी... दीदी..... भाजी....पालक, मेथी, बथुआ, चौलाई....लेबे ओ दीदी भाजी.... “

दीदी...!वह कभी दीदी...माँजी नहीं कहता। जरूरत लगे तो ”बाई“ कहता है। बाई किसी भी महिला के लिये यहाँ सामान्य संबोधन है। मगर अब दीदी। क्या सचमुच उसी की आवाज...? 

सहमते हुये सामने बरामदे में जाकर बंद दावाजे के पास खड़ी हो जाती हूँ। हाँ, सचमुच बाहर खड़ा है वह।

 दरवाजा खोलती हूँ। मेरी तरफ देखे बिना ही कहता है..”.तोर बर चौलाई भाजी लाये हों दीदी।“ मेरा कंठ भर आया है। धीरे से कहती हूँ दे दे...।

वह टोकरे से जूड़ियाँ निकाल रहा हेै...एक,...दो... तीन... चार......पाँच जूड़ियाँ। टोकरी नहीं ला पाई हूँ सो आँचल में ही ले ले रही हूँ। छठी जूड़ी भी निकालने लगता है। मैं टोक देती हूँ.. रहनदे, तोला घाटा हो जाही।

वह झिड़कता है....नहीं होये घाटा...धर..

मैं मुँह फुलाये कहती हूँ.....होथे तोला घाटा..

नहीं होये कथों तो ...वह मीठी झिड़कन से कहता है और छठी जूड़ी जबर्दस्ती मेरी ओली में डाल देता है।

मैं कुछ नहीं बोल पाती। वह भी विशुद्ध स्नेह  बरसने लगा है। आँखें भर आईं। ऐसा स्नेह वह सह नहीं पा रहा है। पैडल मारकर आगे निकल जा रहा है। मैं उसे जाते देख रही हूँ। मन ही मन आशीर्वाद देती हूँ...जा खूब कमा भैया...


- शुभदा मिश्र
14,पटैलवार्ड, डोंगरगढ़

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