विद्यापति की काव्यगत विशेषताओं का वर्णन

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विद्यापति की काव्यगत विशेषताओं का वर्णन


विद्यापति, 15वीं शताब्दी के प्रसिद्ध मैथिली कवि, अपनी शृंगार रचनाओं के लिए तो जाने जाते ही हैं, लेकिन उनकी भक्ति भावना और दार्शनिक विचारों का भी गहरा प्रभाव उनकी रचनाओं में देखने को मिलता है।

हिन्दी साहित्य के इतिहास मे कालक्रम की दृष्टि से सर्वाधिक प्राचीन नाम 'विद्यापति' है । मिथिलांचल की संस्कृति से जुड़े विद्यापति को 'मैथिल कोकिल' के नाम से भी जाना जाता है । आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में, "जयदेव की देववाणी की स्निग्ध पीयूष धारा, जो काल की कठोरता से दब गई थी, अवकाश पाते ही लोकभाषा की सरसता में परिणत होकर मिथिला की अमराइयों में विद्यापति के कोकिल कंठ से प्रकट हुई।" कदाचित यही वजह है कि विद्यापति को 'अभिनव जयदेव' की उपाधि से भी विभूषित किया गया है ।विद्यापति की रचनाओं मे निम्नलिखित काव्यगत विशेषताएँ दृष्टिगत होती हैं - 

विद्यापति की पदावली

विद्यापति का जन्म सन् १३८० ई० के आसपास तथा मृत्यु सन् १४४८ मानी गयी है । इनका अधिकांश जीवन मिथिला के राजाओं के आश्रय में ही व्यतीत हुआ । ये राजा शिवसिंह और उनके बाद आये अन्य राजाओं के भी आश्रित थे । किंतु इसके बावजूद इनके काव्य पर दरबारी छाया का प्रभाव नहीं है । इनकी कविताओं में जनमानस की आवाज है । राधा-कृष्ण के बहाने प्रेम, संयोग-वियोग, सुख-दुख की प्रस्तुति है । इन्होंने दरबार की चहारदीवारी में बंद सौंदर्यबोध को अपनी कविताओं के जरिये मुक्त कर प्रकृति के आंगन में प्रतिष्ठित किया । इसीलिए दरबारी कवि होते हुए भी विद्यापति की प्रसिद्धि एक जनकवि के रूप में है । 'भू-परिक्रमा', 'पुरुष-परीक्षा', 'दुर्गा भक्ति तरंगिणी' जैसी कई संस्कृत रचनाओं के अलावा इनकी अवहट्ट में लिखी 'कीर्तिलता' एवं 'कीर्तिपताका' जैसी प्रशस्तिपरक काव्य पुस्तकें भी उपलब्ध हैं । किंतु जिन कविताओं के कारण ये 'मैथिल कोकिल' के रूप में प्रसिद्ध हुए वह इनकी पदावली है । 

प्रेम और सौंदर्य पर आधारित साहित्य

विद्यापति की काव्यगत विशेषताओं का वर्णन
प्रेम एवं सौन्दर्य पर आधारित 'विद्यापति पदावली' की सर्वप्रमुख विशेषता इसकी काव्यगत विविधता है । 'ससन परसु खस अम्बर रे देखलि धनि देह' की मधुर परिकल्पना से विद्यापति जहाँ एक रसिक पाठक को रोमांचित करते हैं, वहीं 'कखन हरब दुख मोर हे भोलानाथ' का आलाप भरते हुए एक शिव-भक्त भाव-विभोर हो उठता है । कहीं जीवन की क्षणभंगुरता पर शांत रस के स्वर में कह उठते हैं -

तातल सैकत बारि-बूँद-सम, सुत-मित-रमनि समाजे । 
तोहे बिसारि मन ताहिं समरपिलु अब मझु होब कौन काजे । 
माधव, हम परिनाम निरासा ।

शृंगारी कवि या भक्त

कदाचित् इन्हीं भावगत विविधताओं के कारण विद्यापति आज भी विवाद के विषय हैं, कि उन्हें शृंगारी कवि माना जाय या भक्त ? उनकी उपलब्ध कविताओं के आधार पर इस प्रश्न का एकपक्षीय जवाब सहज संभव नहीं है । सच यह है, कि एक आम आदमी की तरह विद्यापति ने अपने यौवन में जहाँ एक तरफ प्रेम और सौंदर्य की मादक रंगीनियाँ देखीं, वहीं दूसरी तरफ ऐश्वर्य, विलास से जुड़े भौतिक सुख-साधनों को मिट्टी में मिलते हुए भी देखा । कहना न होगा कि जीवन की निरर्थकता के अहसास से उत्पन्न आत्मग्लानि व्यक्ति को वासना की घाटी से खींचकर भक्ति की चोटी पर पहुँचा देती है । विद्यापति का काव्य इसी भावनात्मक विकास का परिणाम है।

हिन्दी गीति काव्य का प्रवर्तक

विद्यापति को हिंदी गीति-काव्य-परंपरा का प्रवर्तक कवि माना गया है । भावनाओं को उद्दीप्त करने वाले शब्द जब स्वरताल, लय एवं छंद के घुंघरू बाँधकर नाच उठते हैं; तो अनायास कविता ही गीत बन जाती है । गीत के इन तत्वों से भरपूर 'विद्यापति पदावली' संगीत की रंगस्थली है। एक उदाहरण देखें -
 
सरस बसंत समय भल पावलि, दछिन पवन बह धीरे । 
सपनहु रूप बचन इक भाषिय, मुख से दूरि करु चीरे । 
तोहर बदन सम चाँद होअथि नहीं, कैयो जतन बिह केला । 
कै बेरि काटि बनावल नव कै, तैयो तुलित नहीं भेला ।। 

उपर्युक्त पद की संगीतात्मकता अवलोकनीय है । साथ ही प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्य से भी स्त्री सौंदर्य को श्रेष्ठ दिखाना, विद्यापति की शृंगारप्रियता का प्रमाण है । सौंदर्य एक वैयक्तिक गुण है । इस गुण से जुड़कर विद्यापति सौंदर्य को 'अपरूप' कहते हैं । अर्थात् अपूर्व, अतुलनीय, जिसे परिभाषा की सीमा में बाँधा न जा सके । इस भावना से सौंदर्य की उपासना करने वाले विद्यापति के गीत अधिक संप्रेषणीय हैं। भाषागत सहजता इनकी प्रमुख विशेषता है ।भाषा के संबंध में इनका मानना है, कि -

देसिल बअना सब जन मिट्ठा, 
तं तैसन जम्पत्रों अवहट्ठा ।
 

भाषागत सौंदर्य

विद्यापति कहते हैं कि संस्कृत विद्वत समाज को प्रिय लगती है, प्राकृत भाषा का काव्यरस भी सहज भाव से प्राप्त नहीं होता । इसके अतिरिक्त लोक भाषा (देसिल बअना) सबको मधुर लगती है । अत: मैं वैसी ही बोली अवहट्ट में काव्य रचना करता हूँ । यद्यपि यह बात उन्होंने 'कीर्तिलता' के संबंध में कही है । 'विद्यापति पदावली' की भाषा और अधिक लोकप्रिय है। इसमें निहित लोकधुन एवं लोक भावना कई गीतों को लोकगीत का दर्जा प्रदान करती है । यथा - 

मोर रे अँगनवाँ चनन केरि गछिया ताहि चढ़ि कुररय काग रे । 
सोने चोंच बाँधि देब तोयँ बायस जयों पिया आवत आज रे । 

कदाचित् यही वजह है कि विद्यापति के गीत आज भी व्यापक जन सामान्य के कंठहार हैं। डॉ॰ शिवप्रसाद सिंह के अनुसार, “वे जनभाषा में कृष्ण पर काव्य लिखने वाले पहले व्यक्ति थे, और इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने राधाकृष्ण की युगल मूर्ति के चरणों में जो मानसिक वाक्रूप पुष्पार्चन निवेदित किया, वह बाद के कवियों और साधकों के लिए प्रेरणा का ज्योतिर्मय सम्बल और पाथेय बन गया ।" 

विद्यापति की इन्हीं काव्यगत विशेषताओं की ओर इंगित करते हुए ग्रियर्सन ने लिखा है, “हिन्दू धर्म का सूर्य अस्त हो सकता है, वह समय भी आ सकता है जब कृष्ण से विश्वास और श्रद्धा का अभाव हो, कृष्ण प्रेम की स्तुतियों के प्रति जो हमारे लिए इस भवसागर के रोग की दवा है, विश्वास जाता रहे तो भी विद्यापति के गीतों के प्रति जिनमें राधा और कृष्ण के प्रेम का वर्णन है, लोगों की आस्था और प्रेम कभी कम न होगा ।"

विद्यापति के काम का मैथिली साहित्य और संस्कृति पर गहरा प्रभाव पड़ा है। उन्हें भारत के महानतम कवियों में से एक माना जाता है और उनकी रचनाओं को दुनिया भर के लोग आज भी पढ़ते और पसंद करते हैं।

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