उदारीकरण ने भारतीय जनता के शोषण का मार्ग प्रशस्त किया है

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उदारीकरण ने भारतीय जनता के शोषण का मार्ग प्रशस्त किया है उदारीकरण का अर्थ है सरकारी नियंत्रणों को कम करना और बाज़ार को अधिक खुला बनाना। इसका उद्देश्य

उदारीकरण ने भारतीय जनता के शोषण का मार्ग प्रशस्त किया है

दारीकरण का अर्थ है सरकारी नियंत्रणों को कम करना और बाज़ार को अधिक खुला बनाना। इसका उद्देश्य अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करना और विकास को बढ़ावा देना है।भारत में उदारीकरण 1991 में शुरू हुआ था, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने आर्थिक सुधारों की एक श्रृंखला शुरू की थी।
 
उदारीकरण ने भारत की अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव डाला है। इसने विकास और समृद्धि को बढ़ावा दिया है, लेकिन इसने कुछ नकारात्मक परिणाम भी पैदा किए हैं। यह महत्वपूर्ण है कि सरकार इन नकारात्मक प्रभावों को कम करने के लिए नीतियां बनाए और सभी नागरिकों को उदारीकरण के लाभों का लाभ उठाने का अवसर प्रदान करे।

नब्बे का दशक भारत की संकटपूर्ण अर्थव्यवस्था के साथ प्रारम्भ हुआ. देश में राजनीतिक अस्थिरता के साथ-साथ आर्थिक स्थिति भी चरमरा गई थी, जिसके परिणाम- स्वरूप भारतीय अर्थव्यवस्था को भयंकर कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था. विश्व अर्थव्यवस्था में भारत का लगातार नीचे की ओर खिसकता ग्राफ, बढ़ती हुई गरीबी व बेरोजगारी, मुद्रा स्फीति एवं उत्पादन में निरन्तर आ रही गिरावट, आर्थिक विषमता में लगातार हो रही बढ़ोत्तरी, खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता पर पुनः लगते प्रश्नचिह्न, बढ़ता हुआ बजटीय घाटा, घटता हुआ विदेशी मुद्रा भण्डार आदि अनेक आर्थिक संकटों ने भारतीय अर्थव्यवस्था की साख पर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रश्नचिह्न लगा दिया था. ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं भी भारत को वित्तीय सहायता देने में आनाकानी कर रही थीं. ऐसे विषम आर्थिक वातावरण में भारत की वर्तमान सरकार ने अगस्त 1991 में उदारीकरण की आर्थिक नीति को अपनाया.
 
उदारीकरण की नीति के तहत भारतीय सरकार ने सरकारी उद्योगों का कार्यक्षेत्र सीमित कर निजी उद्यमों के कार्यक्षेत्र को विस्तृत किया है. निजी उद्यमों तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सरकार द्वारा आकर्षक सुविधाएं देकर उन्हें भारत में पूँजी निवेश हेतु प्रोत्साहित किया है. उदारीकरण की नीति के अन्तर्गत भारत सरकार भारतीय अर्थव्यवस्था को पूर्ण रूप से स्वतंत्र बनाने की ओर अग्रसर हो रही है.
 
उदारीकरण ने भारतीय जनता के शोषण का मार्ग प्रशस्त किया है
अगस्त 1991 में शुरू हुई इस उदारीकरण की नीति को इस आशा के साथ अपनाया गया था कि यह नीति भारतीय अर्थव्यवस्था को एक स्वतंत्र और सक्षम बाजारी अर्थव्यवस्था प्रदान करेगी तथा भारत मंदी की दौर से गुजर रहे अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस आदि जैसे बड़े देशों के मध्य एक सबल प्रतिस्पर्धी के रूप में उभरकर आगे आएगा, परन्तु भारतीय जनता द्वारा सरकार की नीति से की गई ये अपेक्षाएं मात्र एक दिवास्वप्न सिद्ध हुईं और जनता को इसके विपरीत परिणाम भुगतने पड़ रहे हैं।
 
दरअसल, सरकार को विश्व पटल पर निरन्तर बदलने वाले राजनीतिक व आर्थिक घटनाक्रम के कारण विवश होकर भारतीय अर्थव्यवस्था को उदारीकरण के मार्ग पर लाना पड़ा था. इतना ही नहीं भारत को उदारीकरण के इस आरम्भिक काल में ही अपनी अर्थ- व्यवस्था को विश्व व्यापीकरण की ओर भी मोड़ना पड़ा. हम इस सत्य को झुठला नहीं सकते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था में अपनाया गया उदारीकरण व विश्व व्यापीकरण भविष्य में भारत को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों व विकसित देशों का आर्थिक उपनिवेश बना सकता है ।

आज उदारीकरण के नाम पर जितने भी आर्थिक सुधार सरकार द्वारा किए जा रहे हैं वे भारतीय अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं के अनुरूप न होकर विश्व बैंक व अन्त- राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा निर्देशित हैं. दूसरे शब्दों में कहा जाए तो भारत सरकार ने विदेशी पूँजी निवेश को आकर्षित करने व विदेशी ऋण को प्राप्त करने के लिए विश्व बैंक व अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के आगे घुटने टेक दिए हैं.
 
आज उदारीकरण गिने-चुने सिरफिरे व्यापारियों, भ्रष्ट राजनेताओं व अधिकारियों, प्रेस तथा महानगर के कुछ पेशेवर लोगों का नारा मात्र बनकर रह गया है. वास्तव में यदि देखा जाए, तो मध्यम वर्ग के छोटे से हिस्से को छोड़कर जनता का एक बड़ा हिस्सा बढ़ती हुई बेरोजगारी तथा आर्थिक विषमता से परेशान है, जबकि शेष 55-56 करोड़ लोग तो इन नवीन आर्थिक सुधारों की श्रृंखला से पूर्ण रूपेण अनजान हैं. यह बात स्वयं प्रधानमंत्री द्वारा स्वीकार की गई है. हकीकत में इन करोड़ों लोगों का ही उदारीकरण की नीति ने सबसे अधिक शोषण किया है.
 
देश के उद्योग-धन्धों पर इस नीति का प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है. बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ आज उन्हीं क्षेत्रों में अपनी पूँजी का निवेश करना चाहती हैं. जहाँ भारतीय उद्योग-धन्धे पहले से ही लाभ कमा रहे हैं. ऐसे में भारतीय उद्योग-धन्धों पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों रूपी संकट के बादल मँडरा रहे हैं. अतः यदि देखा जाए तो उदारीकरण की नीति का तात्पर्य है, घरेलू उद्योग क्षेत्र की समाप्ति. 

उदारीकरण की नीति भारत में आर्थिक विषमता की बढोत्तरी के लिए भी जिम्मेदार है. आज गेहूँ, चावल, चीनी, कुकिंग गैस, पेट्रोल, डीजल आदि सार्वजनिक आवश्यकताओं की वस्तुओं के मूल्यों में बढ़ोत्तरी हुई है जिससे प्रति व्यक्ति वास्तविक आय का औसत स्तर घटा है, जबकि इस नीति ने धनवानों के लिए धनार्जन की सम्भावनाओं का विस्तार किया है. इस सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि आय की बढ़ती हुई असमानताएं आगे चलकर विकराल रूप धारण कर लेंगी, तब यह सुधार श्रृंखला मात्र अमीरी-गरीबी के बीच बढ़ती हुई खाई का कारण बनकर रह जाएगी.
 
वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण और विकास के नाम पर हर प्रकार से विदेशी पूँजी निवेश बढ़ाने के पीछे दलीलें दी जाती हैं कि यहाँ बुनियादी सुविधाओं, पूँजी व प्रौद्योगिकी की कमी है, लेकिन जो कदम उठाए गए हैं या उठाए जा रहे हैं, उनसे स्पष्ट है कि उदारीकरण की नीति में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक ढाँचे में सार्थक सुधारों की बातें अपना महत्व खो चुकी हैं. उदारीकरण में जहाँ शेयरों का सट्टा खूब फल-फूल रहा है, वहीं भारतीय उद्यमियों की ओर से उत्पादक कार्यों में निवेश, भारतीय वैज्ञानिकों को अनुसंधान-विकास के क्षेत्र में सहयोग आदि क्षेत्रों के लिए सरकार की ओर से कोई प्रश्रय नहीं मिल रहा है.
 
इतना ही नहीं पिछले कुछ वर्षों में नियम विरुद्ध वित्तीय संस्थानों में भारी वृद्धि हुई है. बहुत-सी अवैध कम्पनियों द्वारा आम नागरिकों को सब्जबाग दिखाकर उनके खून पसीने की कमाई को लूटा गया है. ऐसी कई कम्पनियाँ पिछले सालों में बन्द हो गई हैं तथा उनके मालिकों पर मुकदमे चलाए जा रहे हैं. ये तथाकथित संस्थाएं (कम्पनियाँ) कम्पनी कानून और भारतीय रिजर्व बैंक की नीतियों की परवाह न करते हुए अपना व्यापार कर रही हैं. इन पर न तो राज्य सरकार द्वारा कोई प्रतिबन्ध लगाया गया है और न ही केन्द्र सरकार व रिजर्व बैंक द्वारा ध्यान दिया जा रहा है.

अतः वर्तमान परिस्थितियाँ स्पष्ट बताती हैं कि उदारीकरण की नीति मात्र शोषण की नीति बनकर रह गई है. इस नीति के तहत यह आशा की गई थी कि इससे भारत को विदेशों द्वारा नई टेक्नॉलोजी व औद्योगिक ज्ञान प्राप्त हो सकेगा, जबकि आज हमारे यहाँ विकसित देशों द्वारा नई टेक्नोलॉजी के नाम पर उनके देशों में रिटायर्ड हुई टेक्नोलॉज को हस्तान्तरित किया जा रहा है, यह पूर्णतः अस्पष्ट व भ्रामक है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ पीजा, अंकल चिप्स, पेप्सी, कोला आदि वस्तुओं का उत्पादन देकर हमें विकास की राह पर ले जाना चाहती हैं.. वास्तविकता तो यह है कि आज जहाँ भारत में आलू 10 रु. प्रति किलो बिक रहे हैं वहीं अंकल चिप्स 560 रु. प्रति किलो बिक रहे हैं, घरेलू उद्योगों की समाप्ति से बेरोजगारी की समस्या सुलझने की बजाय विकराल रूप धारण कर रही है. 

देश में आर्थिक सुधारों के लगभग दस वर्ष बाद भी देश की प्रतियोगी क्षमता में महत्वपूर्ण सुधार नहीं हुआ है, बल्कि विश्व आर्थिक मंच (W.E.F.) की प्रतियोगितात्मक रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्षों में भारत का दर्जा और गिरा है. इसलिए उपर्युक्त परिस्थितियों को देखते हुए यदि यह कहा जाए कि उदारीकरण के नाम पर भारतीय जनता का खुल्लम- खुल्ला चरम सीमा पर शोषण हो रहा है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी और आने वाले समय में भी यदि यही परिस्थितियाँ बनी रहीं तो इस सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय अर्थव्यवस्था भी मैक्सिको जैसे संकट के जाल में फँस जाएगी.
 
अन्त में, निष्कर्ष रूप में यही कहा जा सकता है कि आज आवश्यकता इस बात की है कि भारत सरकार जनता पर हो रहे इस शोषण से सबक लेते हुए अपनी आर्थिक नीतियों पर पुनः विचार करें. भारत सरकार को चाहिए कि वह भी जापान तथा पश्चिमी यूरोपीय देशों की भाँति अपने उद्यमों के साथ संरक्षात्मक नीति लागू रखे, क्योंकि उदारीकरण की इस नीति के तहत भारत का महत्व सस्ते श्रम एवं कच्चे माल की मंडी तथा तैयारशुदा माल के एक बड़े बाजार से अधिक और कुछ नहीं रह गया है. अतः यदि अब परिस्थितियों को सँभाला नहीं गया, तो भारतीय अर्थव्यवस्था के भविष्य पर प्रश्नचिह्न लग जाएगा.
 
उदारीकरण भारत के विकास का एक महत्वपूर्ण अध्याय रहा है। इसने अर्थव्यवस्था को बदल दिया है और देश के भविष्य को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि उदारीकरण एक सतत प्रक्रिया है। भारत सरकार को यह सुनिश्चित करने के लिए नीतियां बनाते रहना चाहिए कि उदारीकरण का लाभ सभी वर्गों तक पहुंचे और देश समावेशी और टिकाऊ विकास की ओर बढ़ सके।

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