परिवर्तन कविता की व्याख्या | सुमित्रानंदन पंत

SHARE:

परिवर्तन कविता की व्याख्या सुमित्रानंदन पंत कवि ने इस कविता में परिवर्तन को विराट् और विश्वव्यापी महान् शक्ति के रूप में चित्रित किया है। प्रस्तुत पद

परिवर्तन कविता की व्याख्या | सुमित्रानंदन पंत


ज कहाँ वह पूर्ण-पुरातन, वह सुवर्ण का काल?
भूतियों का दिगंत-छबि-जाल,
ज्योति-चुम्बित जगती का भाल?
राशि राशि विकसित वसुधा का वह यौवन-विस्तार?
स्वर्ग की सुषमा जब साभार
धरा पर करती थी अभिसार!

प्रसूनों के शाश्वत-शृंगार,
(स्वर्ण-भृंगों के गंध-विहार)
गूंज उठते थे बारंबार,
सृष्टि के प्रथमोद्गार!
नग्न-सुंदरता थी सुकुमार,
ॠद्धि औ’ सिद्धि अपार!

अये, विश्व का स्वर्ण-स्वप्न, संसृति का प्रथम-प्रभात,
कहाँ वह सत्य, वेद-विख्यात?
दुरित, दु:ख, दैन्य न थे जब ज्ञात,
अपरिचित जरा-मरण-भ्रू-पात!

सन्दर्भ - यह पद्यांश श्री सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित परिवर्तन शीर्षक कविता से उद्धृत है। 

प्रसंग - कवि ने इस कविता में परिवर्तन को विराट् और विश्वव्यापी महान् शक्ति के रूप में चित्रित किया है। प्रस्तुत पद में वह भारत के विगत वैभव का स्मरण करता हुआ उसके लुप्त हो जाने पर दुःखित है।
 
व्याख्या - भारत का वह अतीत कहाँ चला गया जो सचमुच ही स्वर्णयुग था, प्रत्येक दिशा वैभव से परिपूर्ण थी, ज्ञान का प्रकाश संसार का मस्तक चूमता था (भारत द्वारा दिया ज्ञान सारे संसार को प्रकाशित करता था) एवं सांसारिक सौन्दर्य के विस्तार का कहीं भी ओर-छोर नहीं था। वह भी युग था जब पृथ्वी अत्यन्त सौन्दर्यपूर्ण थी, जिसके आकर्षण से खिंचकर स्वर्ग उससे मिलने यहीं उतर आता था और इसे अपना परम सौभाग्य मानता था अर्थात् देवताओं ने इसको योग्य समझकर अवतार लिया। पुष्पों के लगातार खिले रहने से ऐसा लगता था मानो पृथ्वी की शोभा में कभी कोई कमी आती ही न थी। पराग में रहने से स्वर्णिम आभा वाले भौरे उन कुसुमों की गन्ध पर इतने मुग्ध थे कि रात-दिन उन पर विहार करते रहते थे। उनका अनवरत गुंजन ऐसा प्रतीत होता था मानो सृष्टि के आदि-वैदिक ऋषियों द्वारा उच्चरित मन्त्र हों। उस समय अत्यधिक मृदुल और नयनाभिराम सौन्दर्य सर्वथा नग्न (अनावृत्त) रूप में मिलता था (आरम्भिक काल में नर-नारियाँ बहुत कम वस्त्र धारण करते थे, जिससे उनके अतीव स्वस्थ और मांसल अंगों का सौन्दर्य भरपूर प्रकट होता था।) उस काल में धन-वैभव, सुख-समृद्धि की कोई सीमा ही न थी ।
 
किसी अतीव सुन्दर सपने के समान ही वह वैदिक युग, जब विश्व की सभ्यता का आरम्भ ही हो रहा था, बड़ा सुहावना था। वेदों का प्रकाश सर्वत्र छाया हुआ था, सत्य को सर्वोपरि माना जाता था, किन्तु आज वह सब कहाँ गया ? कैसा सुहाना था वह युग भी जब पाप, दुःख, निर्धनता, वृद्धावस्था, मृत्यु किसी का नाम निशान तक न था ।
 
काव्य-सौन्दर्य- (१) वर्तमानकालिक दुःखों को देखकर व्यक्ति को अपने महान् अतीत (भूतकाल) की याद आना स्वाभाविक है। 'कहाँ' शब्द में कवि की समस्त मनोव्यथा मानो पुंजीभूत हो उठी है। (२) भाषा–संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली। (३) रस-भयानक । (४) शब्दशक्ति-लक्षणा । (५) गुण—ओज । (६) अलंकार- मानवीकरण व रूपक। (७) भावसाम्य -गायन्ति देवा किल गीतकानि, धन्यास्तु ये भारत भूमि भागे ।
 
परिवर्तन कविता की व्याख्या | सुमित्रानंदन पंत
हाय! अब मिथ्या-बात!
आज तो सौरभ का मधुमास
शिशिर में भरता सुनी-साँस!
वही मधुऋतु की गुन्जित-डाल
झुकी थी जो यौवन के भार,
अकिन्चंता में निज तत्काल
सिहर उठती,-जीवन है भार!
आज पावस-नद के उद्गार
काल के बनते चिन्ह-काल;
प्रातः का सोने का संसार
जला देती संध्या की ज्वाल!

अखिल यौवन के रंग-उभार
हड्डियों के हिलते कंकाल;
कचों के चिकने, काले व्याल
केंचुली, काँस, सिवार;
गूंजते हैं सब के दिन-चार,
सभी फिर हाहाकार!

सन्दर्भ- पूर्ववत् । 

प्रसंग - कवि का विचार है कि संसार में प्रत्येक वस्तु चार दिन के लिए अपना हर्ष-उल्लास प्रकट करती है, फिर वह परिवर्तन का शिकार होकर मिट जाती है।
 
व्याख्या - कवि कहता है कि आज की स्थिति को देखकर सब बातें झूठी लगती हैं। यह विश्वास ही नहीं होता कि मनुष्य कभी इतना प्रसन्न और सन्तुष्ट रहा होगा। उन बातों का स्मरण कर ऐसा लगता है जैसे सुगन्ध भरा वसन्त शिशिर ऋतु में परिवर्तित होकर निर्जनता में गहरी साँसें ले रहा हो अर्थात् वसन्त-सा सुखद जीवन शिशिर की भाँति दुःखी और सूने जीवन में बदल गया हो। वसन्त ऋतु में भौंरों से गुंजरित वृक्षों की डालें, जो मुकुलित यौवन के भार से झुकी रहती थीं, अपनी निर्धनता देखकर सिहर उठती हैं और जीवन को भार मानने लगती हैं।
 
समय तो गतिमान् है । आज वर्षा होने पर जो बड़े उफनते हुए नद देखने में भले लगते हैं, वे ही काल की प्रलयंकारी बाढ़ से सब कुछ नष्ट कर देते हैं। वे काल के भयंकर निशान छोड़ जाते हैं। प्रातःकाल समृद्धि और उल्लास से भरा एक स्वर्णिम संसार लेकर आता है अर्थात् प्रातःकाल कितना सुहावना और सौन्दर्यपूर्ण होता है, जिसे सन्ध्या की लाल-लाल भयंकर ज्वाला जलाकर भस्म कर देती है। सुन्दर नर-नारियों में यौवन के जो आकर्षक रंग और उभार दिखाई देते हैं, वे ही वृद्धावस्था आ जाने पर काँपते हुए जरा-जीर्ण हड्डियों के कंकालमात्र रह जाते हैं। कोई पहचान भी नहीं पाता है कि यह वही व्यक्ति है। युवावस्था में उनके अत्यन्त सुन्दर लगने वाले काले सर्पों के समान चिकने, लम्बे तथा घुँघराले सौन्दर्यपूर्ण बाल, वृद्धावस्था में सर्प की केंचुली के समान मलिन, काँस जैसे सफेद और सिवार की तरह सूखे और उलझे दिखाई देने लगते हैं। इस प्रकार इस संसार में सबके रूप, रंग, गुण और यश का गान चार दिन के लिए ही होता है । उसके बाद सब कुछ नष्ट हो जाता है और दुःख भरे हा-हाकार के ही स्वर सुनायी पड़ते हैं ।
 
काव्य-सौन्दर्य- (१) यहाँ परिवर्तनशील जगत् की नश्वरता का मार्मिक चित्रण हुआ है। (२) भाषा— संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली ।. (३) रस-भयानक । (४) शब्दशक्ति-लक्षणा। (५) गुण—ओज । (६) अलंकार—अनुप्रास, उपमा, रूपक, रूपकातिशयोक्ति ।
 
किसी को सोने के सुख-साज
मिल गए यदि ऋण भी कुछ आज;
चका लेता दुःख कल ही व्याज,
काल को नहीं किसी की लाज!

विपुल मणि-रत्नों का छवि-जाल,
इंद्रधनुष की-सी छटा विशाल-
विभव की विद्युत-ज्वाल
चमक, जाती है छिप तत्काल;

मोतियों-जड़ी ओस की डार
हिला जाता चुपचाप बयार!

प्रसंग - संसार में दुःख दैन्य का प्राधान्य है। यदि किसी को थोड़ा-बहुत सुख मिलता भी है तो तुरन्त ही सुख से कहीं अधिक दुःख भोगना पड़ता है।
 
व्याख्या- यदि आज किसी को कुछ सम्पत्ति और ऐश्वर्य प्राप्त हो भी गया है; क्योंकि कुछ समय बाद ही काल उस ऋण को ब्याजसहित वापस ले लेता है अर्थात् जितना सुख दिया था, उससे कहीं अधिक दुःख दे देता है। जब कोई अच्छी बात थोड़े समय के लिए आ भी जाती है तो उसके पश्चात् भयंकर कष्ट सामने खड़ा रहता है। सामान्य महाजन तो लोकलज्जावश या किसी अन्य दबाव के कारण चाहे ऋण देर से ले ले या धीरे-धीरे करके ले, किन्तु काल पर तो न किसी का दबाव है और न ही उसे किसी की लज्जा है। वह तो तुरन्त ही अपने दिये ऋण को ब्याजसहित वसूल कर लेता है।
 
मणियों और रत्नों की राशि इन्द्रधनुष की शोभा के समान क्षण-भंगुर है और वैभव की चमक बिजली की कौंध के समान है जो क्षण-भर को चमककर छिप जाती है, उसी प्रकार संसार के सुख-वैभव भी क्षण-भर को दिखकर नष्ट हो जाते हैं। जिस प्रकार वायु डाली को हिलाकर उस पर पड़े मोती के दानों जैसे ओसबिन्दुओं को मिटा देती है, उसी प्रकार काल-रूपी वायु भी मुक्ता, रत्न आदि वैभव को उड़ा ले जाती है। समस्त सुखों को छीन ले जाती है।
 
काव्य-सौन्दर्य- (१) इस पद्य में कवि ने काल की कल्पना एक ऐसे सूदखोर के रूप में की है, जो ब्याजसहित अपना ऋण वसूल करने में अतीव निर्मम है। सम्भवतः कवि के मन में शेक्यपियर के शाइलॉक (Shylock) नामक सूदखोर यहूदी का चित्र रहा हो। (२) भाषा–संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली । (३) रस-भयानक । (४) शब्दशक्ति लक्षणा। (५) गुण-प्रसाद। (६) अलंकार-उपमा, रूपक, मानवीकरण ।
 
खोलता इधर जन्म लोचन,
मूँदती उधर मृत्यु क्षण, क्षण;
अभी उत्सव औ’ हास-उल्लास,
अभी अवसाद, अश्रु, उच्छावास!

अचिरता देख जगत की आप
शून्य भरता समीर निःश्वास,
डालता पातों पर चुपचाप
ओस के आँसू नीलाकाश;
सिसक उठता समुद्र का मन,
सिहर उठते उडगन!

प्रसंग - इसमें कवि ने संसार की परिवर्तनशीलता का करुणापूर्ण चित्र अंकित किया है।
 
व्याख्या - यह संसार परिवर्तनशील है। एक ओर जन्म की कोमल उँगलियाँ जीवन की पलक उघाड़कर उसकी आँखें खोल देती हैं तो दूसरी ओर मृत्यु का हाथ आगे बढ़कर अगले ही पल उन्हें मूँद देता है। जहाँ अभी कुछ समय पहले ही उत्सव हो रहा था, लोग हँस-हँसकर उल्लास जता रहे थे, वहीं अब मौत के तांडव के दुःख, आँसू और आहें शेष रह गयी हैं। विधाता का यह कैसा खेल है, एक क्षण में दुःख का पहाड़ टूट पड़ता है। संसार की इस अस्थिरता को देखकर पवन भी दुःखी है। वह दुःख से आहें भरता हुआ सारे शून्यांक को भर देता है। उधर आकाश के नयन भी इस परिवर्तनशीलता को देखकर करुणावश गीले हो गये हैं और ओस की बूँदों के रूप में वह चोट खाया हुआ (नीला) आकाश अपने आँसू वृक्षों के पत्तों पर चुपचाप टपका देता है। गहन गम्भीर सागर भी सिसकने लगता है और असंख्य तारे इस कारुणिक दृश्य को देखकर सिहर उठते हैं।
 
काव्य-सौन्दर्य- (१) यहाँ पर कवि ने संसार में निष्ठुर परिवर्तन के दुःखद प्रभाव का मर्मस्पर्शी चित्रण किया है। (२) प्रकृति के विविध उपादानों को व्यथित दिखाकर प्रकृति का संवेदनात्मक रूप प्रस्तुत किया गया है। (३) भाषा–संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली । (४) रस-भयानक । (५) अलंकार-अनुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश व मानवीकरण ।
 
अहे निष्ठुर परिवर्तन !
तुम्हारा ही तांडव नर्तन
विश्व का करुण विवर्तन !
तुम्हारा ही नयनोन्मीलन,
निखिल उत्थान, पतन !
अहे वासुकि सहस्र फन !

लक्ष अलक्षित चरण तुम्हारे चिन्ह निरंतर
छोड़ रहे हैं जग के विक्षत वक्षस्थल पर !
शत-शत फेनोच्छ्वासित, स्फीत फुत्कार भयंकर
घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अंबर !
मृत्यु तुम्हारा गरल दंत, कंचुक कल्पान्तर ,
अखिल विश्व की विवर
वक्र कुंडल
दिग्मंडल !

सन्दर्भ-पूर्ववत् ।
 
प्रसंग - यहाँ कवि ने परिवर्तन के भयंकर रूप का चित्रण किया है।
 
व्याख्या - हे निर्दय परिवर्तन ! तुम्हारे ही प्रलयंकर नृत्य के फलस्वरूप विश्व में करुणोत्पादक उलट-फेर होती है। एक क्षण में स्थिति का कायापलट हो जाता है। तुम्हारे आँख खोलते ही संसार में उथल-पुथल मच जाती है। सारी उन्नति और अवनति का कारण तुम ही हो। (आशय यह है कि विश्व में परिवर्तन का चक्र निरन्तर घूमता रहता है। उसी के फलस्वरूप सम्पूर्ण विश्व में उलट-फेर तथा उत्थान-पतन होता है।)
 
हजारों फन वाले वासुकि नाग के सदृश हे परिवर्तन ! तुम्हारे दिखायी न पड़ने वाले लाखों चरण इस विश्व की घायल छाती पर अपने चिह्न दिन-रात छोड़ते चलते हैं। (आशय यह है कि विश्व में नित्य प्रति असंख्य परिवर्तन हो रहे हैं, पर वे सामान्यतः दृष्टिगोचर नहीं होते। साँप के चरण दिखायी नहीं पड़ते, पर जब वह चलता है तो उसके चलने से एक लकीर-सी खिंच जाती है।) जहरीले फन से युक्त तुम्हारी लगातार निकलने वाली भयंकर फुंकारें सारे संसार में भयंकर उथल-पुथल मचा देती हैं। मृत्यु ही तुम्हारा विषैला दाँत है (अर्थात् साँप के विषैले दाँत के दंश से कोई जीवित नहीं बच सकता । भाव यह है कि संसार के प्राणियों की मृत्यु अवश्यंभावी है)। प्रलय के बाद नवीन सृष्टि का उद्भव ही तुम्हारा केंचुली बदलना है। सम्पूर्ण विश्व ही तुम्हारी बाँबी है। दिशाओं का घेरा ही तुम्हारी मण्डलाकार कुण्डली है (अर्थात् दिशाओं तक विस्तृत समस्त विश्व तुम्हारी जकड़ में है।) । 

काव्य-सौन्दर्य - (१) कवि पन्त अपनी सुकुमार कल्पना के लिए प्रसिद्ध हैं, पर यहाँ उन्होंने परिवर्तन का अतीव भयंकर एवं विराट् रूप बड़ी कुशलतापूर्वक अंकित किया है, जो तदनुरूप भाषा प्रयोग द्वारा बड़ा सजीव हो उठा है। (२) भाषा-संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली । (३) रस-शान्त। (४) शब्दशक्ति-अभिधा और लक्षणा। (५) गुण-प्रसाद। (६) अलंकार - मानवीकरण, रूपक, ध्वन्यार्थव्यंजना । गीत-विहग 

COMMENTS

Leave a Reply: 1
आपकी मूल्यवान टिप्पणियाँ हमें उत्साह और सबल प्रदान करती हैं, आपके विचारों और मार्गदर्शन का सदैव स्वागत है !
टिप्पणी के सामान्य नियम -
१. अपनी टिप्पणी में सभ्य भाषा का प्रयोग करें .
२. किसी की भावनाओं को आहत करने वाली टिप्पणी न करें .
३. अपनी वास्तविक राय प्रकट करें .

You may also like this -

Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy बिषय - तालिका