हिंदी आलोचना के क्षेत्र में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का योगदान

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हिंदी आलोचना के क्षेत्र में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के योगदान हिंदी साहित्य के इतिहास में एक अमर व्यक्तित्व हैं। उन्होंने हिंदी आलोचना को एक नया आयाम

हिंदी आलोचना के क्षेत्र में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का योगदान


चार्य रामचंद्र शुक्ल, जिन्हें "आलोचना सम्राट" के नाम से भी जाना जाता है, हिंदी साहित्य के इतिहास में एक युगपुरुष हैं। उन्होंने हिंदी आलोचना के क्षेत्र में अमूल्य योगदान दिया, जिसके परिणामस्वरूप हिंदी साहित्य को एक नई दिशा और पहचान मिली।शुक्ल जी ने हिंदी आलोचना को एक व्यवस्थित और वैज्ञानिक रूप दिया। उन्होंने भावनाओं और मनोविज्ञान के आधार पर साहित्यिक रचनाओं का मूल्यांकन करने की शुरुआत की।

साहित्य समाज का दर्पण होता है

साहित्य समाज का दर्पण होता है। जिन साहित्यकारों ने अपने युग-जीवन के सत्य को अपने साहित्य में स्थापित कर जनता को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्रदान की है, उनमें आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का मूर्धन्य स्थान है, वे मेरे प्रिय लेखक हैं। आचार्य शुक्ल उन युग-पुरुषों में थे, जो अपनी अद्भुत मेधा से जिस क्षेत्र में जो भी कार्य कर जाते हैं, वह युग-युगों तक विद्वानों का मार्गदर्शन करता रहता है। उदाहरण के लिए, आचार्य को दिवंगत हुए यद्यपि आज अर्द्ध-शताब्दी बीत चली; पर जायसी, सूर, तुलसी की जैसी आलोचना वे कर गये, वैसी (आलोचना) किसी अन्य कवि की कोई आज तक न कर सका। न उनका जैसा हिन्दी-साहित्य का इतिहास ही कोई लिख सका है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जीवन परिचय

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जन्म ४ अक्टूबर, सन् १८८४ ई० को बस्ती जिले के अगौना नामक ग्राम में हुआ था।
हिंदी आलोचना के क्षेत्र में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का योगदान
इनके पिता पं० चन्द्रबली शुक्ल सुपरवाइजर कानूनगो थे। शुक्लजी पहले वर्नाक्युलर स्कूल में प्रविष्ट हुए। यद्यपि पिता के दबाव के कारण उन्हें आठवीं कक्षा तक उर्दू-फारसी पढ़नी पड़ी, पर उनका सहज अनुराग हिन्दी के प्रति था; अतः वे पिता से छिपकर हिन्दी की कक्षा में जाकर पढ़ते थे। सन् १८९२ ई० में उनके पिता सदर कानूनगो होकर राठ से मिर्जापुर चले गये। इसी बीच शुक्लजी की माता का निधन हो गया, जिसका उनके मन पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा और जीवन-भर माता की स्मृति बनी रही। उनकी माता गाना ग्राम के मिश्रवंश की कन्या थीं। महाकवि गोस्वामी तुलसीदास इसी वंश के थे एवं उनकी माता के पूर्वज थे। उनकी माता परम वैष्णव एवं राम और तुलसी की अनन्य भक्त थीं। उनके पिता ने दूसरा विवाह कर लिया।विमाता का व्यवहार बालक शुक्ल के साथ अच्छा न रहा। १२ वर्ष की अवस्था (सन् १८९६ ई०) में उनका विवाह हो गया। कुछ ही समय बाद पारिवारिक कलह बढ़ गयी, जिसकी कटु स्मृति शुक्लजी को सदा बनी रही ।
 
मिर्जापुर के ऐंग्लो-संस्कृत जुबली स्कूल से सन् १८९८ ई० में मिडिल तथा लंदन मिशन स्कूल से सन् १९०१ ई० में हाईस्कूल उत्तीर्ण कर शुक्लजी ने प्रयाग आकर कायस्थ पाठशाला में शिक्षा पायी। शिक्षा समाप्त करके शुक्लजी ने नायब तहसीलदारी की परीक्षा उत्तीर्ण की। साथ ही अंग्रेजी ऑफिस में उन्हें २० रु० मासिक वेतन भी मिलने लगा, पर यह कार्य शुक्लजी की रुचि का न होने के कारण उन्होंने त्याग-पत्र दे दिया। सरकारी नौकरी छोड़कर वे सन् १९०४ ई० में मिर्जापुर के मिशन स्कूल में ड्राइंग मास्टर हो गये। इस कार्य में उनका मन लग गया। इसी समय उन्होंने 'आनन्द-कादम्बिनी' (पत्रिका) का सम्पादन-भार भी ग्रहण कर लिया। इस पद पर कार्य करते हुए वे अंग्रेजी पत्रिकाओं एवं प्रसिद्ध हिन्दी मासिक पत्रिका 'सरस्वती' में लेख आदि लिखते रहते थे, जिससे वे शीघ्र ही हिन्दी और अंग्रेजी के प्रतिष्ठित विद्वान् के रूप में विख्यात हो गये। सन् १९०८ ई० में इन्हें 'हिन्दी शब्द-सागर' में सहायक सम्पादक के रूप में काम करने के लिए काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा द्वारा आमन्त्रित किया गया। काशी आकर इनकी प्रतिभा चमक उठी। इन्होंने सभा के लिए कई ग्रन्थों का सम्पादन भी किया और 'हिन्दी-साहित्य का इतिहास' लिखकर स्वयं को अमर बना लिया। सन् १९१२ ई० में कुछ समय तक इन्होंने 'नागरी-प्रचारिणी-पत्रिका' का भी बड़ी योग्यता से सम्पादन किया। सन् १९२१ ई० में शुक्लजी की नियुक्ति हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग में अध्यापक के पद पर हो गयी। इस विभाग के अध्यक्ष उस समय डॉ॰ श्यामसुन्दर दास थे। सन् १९३७ ई० में उनके अवकाश ग्रहण करने पर शुक्लजी विभागाध्यक्ष बने, किन्तु दैव-दुर्विपाक से दमे के दौर से हृदय गति रुक जाने के कारण २ फरवरी, सन् १९४१ ई० को वे दिवंगत हो गये।
 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल की प्रमुख रचनाएं

शुक्लजी की प्रतिभा बहुमुखी थी और उन्होंने साहित्य की अनेक विधाओं पर कार्य किया, जिनका संक्षिप्त विवरण निम्नांकित है— 
कहानी- ग्यारह वर्ष का समय । 
कविता- मधुस्रोत (कविता-संग्रह), अभिमन्यु वध, हृदय के मधुर भार । 
जीवनी- श्री राधाकृष्ण दास की जीवनी । 
सैद्धान्तिक आलोचना (काव्यशास्त्र सम्बन्धी)- रस-मीमांसा । 
व्यावहारिक आलोचना- (१) गोस्वामी तुलसीदास, (२) जायसी (जायसी-ग्रन्थावली की भूमिका-रूप में), (३) सूरदास । साहित्य का इतिहास-हिन्दी-साहित्य का इतिहास । 
निबन्ध संग्रह - (१) विचारवीथी, (२) चिन्तामणी, भाग – १,२,३ । 
सम्पादित ग्रन्थ- (१) तुलसीदास-ग्रन्थावली । (२) जायसी-ग्रन्थावली। (३) भ्रमरगीतसार। (४) वीरसिंहदेवचरित । अनुवाद - (अंग्रेजी से) : 
(१) मेगस्थनीजकालीन भारत (Megasthenes' India) का अनुवाद । 
(२) साहित्य (Literature, John Henry Newman)। 
(३) कल्पना का आनन्द (Essays of Imagination, Addison) । 
(४) राज्य-प्रबन्ध-शिक्षा (Minor Hints, राजा सर टी. माधवराव)। 
(५) आदर्श जीवन (Plain Living and High Thinking)। 
(६) विश्व-प्रपंच (Riddle of the Universe) । 
(७) बुद्धचरित (Light of Asia, Edwin Arnold का ब्रज भाषा में काव्यानुवाद)। (बाँग्ला से) 
(८) शशांक (राखालदास बन्द्योपाध्याय)।
 

शुक्लजी का हिन्दी आलोचना को योगदान

आचार्य शुक्ल ने अपने गहन अध्ययन, गम्भीर चिन्तन-मनन एवं सूक्ष्म पकड़ से काव्यशास्त्र सम्बन्धी जो सिद्धान्त बहुत पहले ही स्थिर कर लिये थे, उनमें अन्त तक परिवर्तन करने की आवश्यकता का उन्हें अनुभव न हुआ। किसी लेखक के लिए यह एक असाधारण उपलब्धि है, जो उसकी अतलस्पर्शिनी प्रतिभा एवं निर्भ्रान्त विवेचन-शक्ति की परिचायिका है।
 
प्राचीन और नवीन काव्यशास्त्रों का समन्वय-शुक्लजी ने साहित्य और साहित्यशास्त्र का गम्भीर अध्ययन-आलोड़न किया था। उन्होंने भारतीय और पाश्चात्य आलोचना-पद्धतियों को बारीकी से निरखा-परखा था तथा दोनों के सारतत्त्व को ग्रहण कर जो आलोचना पद्धति अपनायी, उसे अपनी असाधारण मौलिकता की घरिया में तपाकर और अपना चिन्तन-रस मिलाकर अभिनव छटा से मण्डित किया। वह प्राचीन एवं अर्वाचीन दोनों ही काव्यशास्त्रों के अध्येताओं के शंकारूपी तिमिर को उच्छिन्न कर जिज्ञासु के चित्त को नूतन ज्ञानप्रभा से आलोकित एवं आनन्द से पुलकित कर देती है। यही नहीं, वह विश्व-चिन्तन के सुदीर्घ इतिहास में नये अध्याय भी जोड़ती है। 

जन्मजात आचार्य

अपनी महती उद्भावना-शक्ति और असंदिग्ध कालजयी क्षमता के बल पर उन्हें जहाँ से जो कुछ भी महत्त्वपूर्ण मिला, उसे स्वच्छन्दतापूर्वक ग्रहण किया। उदाहरण के लिए, प्राचीन भारतीय काव्य परम्परा को आधार बनाकर भी उन्होंने उसे अन्यत्र से संगृहीत मूल्यवान् तत्त्वों के समन्वय एवं युगानुकूल तथ्यों के सम्मिश्रण द्वारा विकसित कर प्रगतिशील बनाया और उसकी पंक्ति-पंक्ति पर अपने व्यक्तित्त्व की छाप अंकित कर दी।
 
शुक्लजी ने यह भी बताया कि 'कल्पना' को अलौकिक कहने का अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि वह लोक बाह्य दृश्यावली प्रस्तुत करती है। उनके अनुसार कल्पना के सन्दर्भ में 'अलौकिक' का अर्थ है असाधारण । जो साधारण व्यक्ति को नहीं दिखता वह कवि को कल्पना के बल पर दिखता है, जिससे उसके काव्य में चमत्कार उत्पन्न हो जाता है।
 
इसी प्रकार उन्होंने भिन्न-भिन्न कालों के कवियों की परस्पर तुलना का इस आधार पर विरोध किया कि प्रत्येक कवि अपने युग का प्रतिनिधि होता है। इसलिए 'तुलसी और बिहारी' तथा 'सूर और केशव' जैसी तुलनाएँ युक्तियुक्त नहीं । 
शुक्लजी ने अपने ग्रन्थों में व्यावहारिक और सैद्धान्तिक दोनों प्रकार की आलोचनाओं से सम्बद्ध ऐसी न जाने कितनी क्रान्तिकारिणी स्थापनाएँ कर रखी हैं, जो नूतन काव्यदृष्टि का उन्मेष करने वाली हैं।
 

वैज्ञानिक आधार पर हिन्दी समीक्षा

जब हम इस बात पर विचार करते हैं कि उन्होंने इतनी प्रौढ़ और कालजयी समीक्षा उस युग में की, जिसमें लोग समीक्षा के सत्स्वरूप से परिचित तक न थे तब और भी आश्चर्य होता है। उस काल के समस्त आलोचक सच्चे आलोचना-धर्म से च्युत् हो रहे थे। ऐसे समय में साहित्याकाश में आचार्य शुक्ल ने अंशुमाली के सदृश उदित होकर अपने तेज से समस्त पक्षपात एवं वाग्जाल रूपी कोहरे को छाँटकर समालोचना को सुपरीक्षित वैज्ञानिक आधार पर प्रतिष्ठित किया। प्रो० मोहनलाल के शब्दों में—“ आचार्य प्रवर की आलोचनाओं में उनके हृदय और मस्तिष्क का अद्भुत सामंजस्य दिख पड़ता है। शुक्लजी हृदय से कवि, मस्तिष्क से आलोचक और वृत्ति से अध्यापक थे; अतः उनकी आलोचनाओं में विद्वत्ता, गुणग्राहकता और निष्पक्षता की त्रिवेणी कल्लोल करती है। सचमुच वे हिन्दी के सबसे बड़े आलोचक हैं। उनके कारण आलोचना का अभूतपूर्व विकास हुआ और उसे नयी दिशा मिली । निस्सन्देह हिन्दी आलोचना के आधुनिक आदर्श की प्रतिष्ठा का श्रेय इसी तपःपूत मनीषी को है। 

उनके चिन्तन का आधार लोकमंगल-शुक्लजी साहित्य को चित्र-विचित्र कल्पनाओं का अजायबघर नहीं, अपितु लोक धर्म का शिक्षालय मानते थे । उन्होंने साहित्य को जीवन से पृथक् मात्र मनोरंजन की वस्तु मानने की विचारधारा का डटकर विरोध किया और उसे लोकहित से अनिवार्यतः जोड़ा। इसका यह आशय कदापि नहीं कि साहित्यकार उपदेशक का बाना धारण कर ले। बात कहने की साहित्य की अपनी पद्धति है, जो प्रत्यक्ष न होकर अप्रत्यक्ष रूप से लोकहित का सम्पादन करती है। साहित्य को लोकमंगल पर आधारित मानने के कारण ही शुक्लजी ने काव्य में चरित्र-चित्रण को विशेष महत्त्व दिया और शक्ति, शील, सौन्दर्य में चरित्र की पूर्णता देखी, जो आदर्शरूप मे श्रीराम में मिलती है।
 
शुक्लजी कवि के रूप में-शुक्लजी एक सहृदय कवि हैं। 'हृदय के मधुर भार' नाम से उनकी कविताओं का संग्रह प्रकाशित हुआ है। अभिमन्यु वध नामक एक खण्डकाव्य की उन्होंने रचना की तथा बुद्धचरित नाम से 'लाइट ऑफ एशिया' का सुन्दर हिन्दी पद्यानुवाद किया।
 

इतिहासकार के रूप में

हिन्दी-साहित्य का इतिहास शुक्लजी की अत्यन्त प्रामाणिक और खोजपूर्ण रचना है। इस इतिहास के द्वारा शुक्लजी कई नवीन कवियों तथा उनकी कृतियों को प्रकाश में लाये।आलोचक के रूप में शुक्लजी की सफलता का रहस्य-शुक्लजी को आलोचना के क्षेत्र में जो अप्रतिम सफलता मिली, उसका श्रेय उनकी असाधारण प्रतिभा को तो है ही, उनके असाधारण पाण्डित्य को भी है। वे बहुभाषाविद् और बहुशास्त्रज्ञ थे। भाषाओं में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, बाँग्ला, फारसी, उर्दू, अंग्रेजी, हिन्दी एवं उसकी विभिन्न बोलियों के वे पारगामी विद्वान् थे तथा शास्त्रों में दर्शन, मनोविज्ञान और संगीतशास्त्र में उनकी गहरी पैठ थी, विशेषतः दर्शन में। उन्होंने इन शास्त्रों का अपनी आलोचना में यथास्थान उपयोग भी किया है।
 

शुक्लजी निबन्धकार के रूप में 

किसी विषय पर गम्भीरता से विचारकर उससे सम्बद्ध सभी पक्षों को क्रमबद्ध, कर संक्षिप्तता, स्पष्टता एवं परिपूर्णता से प्रस्तुत कर देना एक श्रेष्ठ निबन्धकार की कसौटी है। इस दृष्टि से शुक्लजी हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ निबन्धकार हैं। उनके निबन्ध व्यक्ति-प्रधान न होकर प्रायः विषय-प्रधान हैं, यद्यपि लेखक के व्यक्तित्व की उन पर पूरी छाप है। शुक्लजी की निबन्ध-शैली अप्रतिम है-न भूतो न भविष्यति । एक-एक पंक्ति में विचारों का पूरा कोश सँजो देना और फिर भी दुरूहता, नीरसता, अस्पष्टता या बोझिलता का लेशमात्र न होना केवल उन्हीं के बस की बात थी।

उदाहरण के लिए-भक्ति की यह परिभाषा द्रष्टव्य है। श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है। वैर के विषय में वे लिखते हैं-"वैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है।" आचार्य शुक्ल कुछ ही शब्दों में इतना कुछ कह देते हैं, जो दूसरे कई-कई पृष्ठों में भी नहीं कह पाते हैं।

हास्य-व्यंग्य- शुक्लजी का जैसा विनोद-व्यंग्यमिश्रित शिष्ट हास्य, जो मन पर गहरी चोट कर जाये, अन्यत्र विरल है। एक उदाहरण पर्याप्त होगा—“थोड़े दिन हुए, किसी लेखक ने कहीं पढ़ा कि प्रतिभाशाली लोग कुछ उग्रता और पागलपन लिये होते हैं। तब से वे बराबर अपने में इन दोनों शुभ लक्षणों की स्थापना के यन में लगे रहते हैं। सुनते हैं कि पहले में वे कुछ कृतकार्य भी हुए हैं, पर पागल की नकल करना कुछ हँसी-खेल नहीं, भूल-चूक से कुछ समझदारी की बातें मुँह से निकल ही जाती हैं।”
 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना दृष्टि

प्रतिभा मौलिकता का ही नामान्तर है और मौलिकता किसी के अन्धानुकरण की घोर शत्रु है, चाहे वह कितना ही बड़ा नाम क्यों न हो? फलतः आचार्य शुक्ल ने क्षीर-नीर विवेक से जहाँ से जो ठीक समझा, लिया; पर अन्धानुकरण न भारतीय परम्परा का किया, न पाश्चात्य का । अपनी युग-विधायिनी प्रतिभा के साँचे में ढालकर उन्होंने प्रत्येक चिन्तन को सर्वथा अभिनव रूप प्रदान किया। सैद्धान्तिक और व्यावहारिक आलोचना, साहित्य का इतिहास और निबन्ध तो उनके अपने निजी क्षेत्र हैं ही, जिन पर उनका एकच्छत्र साम्राज्य है, किन्तु इनके अतिरिक्त भी उन्होंने जिस विषय को स्पर्श किया उसे अपने गम्भीर अध्ययन-मनन, गहरी पैठ एवं अद्भुत विश्लेषण क्षमता से ऐसा चमका दिया कि वह भावी पीढ़ियों के जिज्ञासुओं के लिए एक दिशा-निर्देशक प्रकाश स्तम्भ बन गया। 

सचमुच आचार्य शुक्ल युगद्रष्टा आचार्य और क्रान्तदर्शी मनीषी थे, जो अपनी युगान्तरकारी प्रतिभा से हिन्दी को ऐसा आलोकित और सुसमृद्ध कर गये कि आने वाले युगों में हिन्दी विश्व की मूर्धन्य भाषाओं के बीच गर्व से मस्तक ऊँचा किये खड़ी रह सकती है।

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