घनानंद रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि हैं

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घनानंद रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि हैं घनानंद ने अपनी रचनाओं में ह्रदय की सच्ची भावनाओं और अनुभूतियों को व्यक्त करके रीतिकालीन रीतिबद्धता से

घनानंद रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि हैं


नानंद रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि हैं । इनका जन्म अनुमानत: सन् १८०३ ई० तथा मृत्यु सन् १८५३ ई० के आसपास मानी गयी है ।अपनी काव्यगत विशेषताओं की ओर संकेत करते हुए उन्होंने लिखा है - 'लोग हैं लागि कवित्त बनावत मोहि तौ मेरे कवित्त बनावत ।' अर्थात् अन्य (रीतिबद्ध) कवि जोड़-तोड़ कर कविता बनाते हैं, किंतु मेरी कविता स्वयं मुझे निर्मित करती है ।
 
वस्तुत: रीतिबद्ध कविता एक प्रकार से मानसिक व्यायाम बन गयी थी । इसके विपरीत रीतिमुक्त कवियों की प्रवृत्ति स्वच्छंद है । विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के शब्दों में, “रीतिकाव्य की रानी बुद्धि है, भाव उसका किंकर । पर स्वच्छंद काव्य की रानी है अनुभूति । उसकी दासी है, बुद्धि = 'रीझि सुजान सजी पटरानी बनी बुद्धि बावरी ह्वै करि दासी ।' स्वच्छंद काव्य भाव-भावित होता है, बुद्धि बोधित नहीं ।" घनानंद का काव्य इस मत का उदाहरण है । वे मूलत: प्रेमी कवि हैं, रसिक नहीं । उनके काव्य में प्रेम की क्रीड़ा नहीं, पीड़ा है । अतः घनानंद के यहाँ सारी हलचल हृदय के भीतर है । इसे हृदय की आँखों से ही देखा जा सकता है - 

समुझे कविता घनआनंद की हिय आंखिन प्रेम की पीर तकी ।
 
वस्तुत: रसिक प्रवृत्ति के कारण रीतिबद्ध कवियों की पहुँच हृदय तक नहीं हो पायी । सच्चे प्रेम के अभाव में उनकी दृष्टि सामान्योन्मुख रही । वे प्रेम को शरीर-सुख प्राप्त करने का साधन मानते हैं। पर घनानंद के प्रेम में शरीर-सुख, सयानापन और बाँकपन को कौन कहे 'अपनापन' की भावना का भी त्याग है । उनकी दृष्टि में प्रेम का पथ अत्यंत सीधा है। इस मार्ग पर सच्चा-त्यागी व्यक्ति ही चल सकता है - 

अति सुधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं । 
तहँ साँचे चले तजि आपनपौ, झिझकै कपटी जो निसाँक नहीं ।।
 
घनानंद रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि हैं
घनानंद का जीवन प्रेम के पथ पर त्याग का प्रतीक है। उनके संबंध में यह सर्वमान्य तथ्य है कि अपनी प्रियतमा सुजान द्वारा उपेक्षित होने के बावजूद उसके प्रति अपने प्रेम में कमी नहीं आने दी । सुजान के प्रेम में अंत-अंत तक वे तड़पते रहे । घनानंद की यह अनन्यता उनके काव्य में तीव्रता प्रदान करती है -
 
चातिक है रावरो अनोखे-मोह आवरो, 
सुजान-रूप-बावरो बदन दरसाय हौ । 
बिरह नसाय दया हिय में बसाय आय, 
हाय कब आनंद को घन बरसाय हौ ।। 

कहना न होगा कि इस कथन में चातक की टीस एवं वेदना की सहज अनुभूति हो जाती है । कभी-कभी सुजान के प्रेम के इस लौकिक पागलपन में अलौकिकता का भी अहसास होने लगता है, तब जब घनानंद कह उठते हैं, 'पाऊँ कहाँ हरि हाय तुम्हें, धरनी में धंसों की आकासहिं चीरौं ।

विरही जन की समानता जल से निकली हुई मछली से की जाती है। दोनों की तड़प समान मानी गयी है। किंतु घनानंद मीन से अपनी तुलना अस्वीकार करते हैं। क्योंकि जल की कमी होते ही मछली अपनी व्याकुलता में स्नेही नीर को कलंक लगाकर प्राण त्याग देती है । वह जड़ भला प्रीति की रीति क्या समझे ? इसको तो घनानंद का जीव ही जान सकता है -

हीन भये जल मीन अधीन, कहा कछु मो अकुलानि समानै । 
नीर सनेही को लाय कलंक निरास है कायर त्यागत प्रानै । 
प्रीति की रीति सक्यौं समुझे जड़, मीत के पानि परे को प्रमानै । 
या मन की जु दसा, घनआनंद जीव की जीवनि जान ही जानै ।। 

यह है घनानंद के प्रेम की आंतरिक पीड़ा । शृंगार-वर्णन के क्रम में सौन्दर्य एवं संयोग-परक् चित्रण भी इन्होंने किया है, किंतु उसमें स्थूलता नहीं है । भले ही होली जैसे त्यौहारों के अवसर पर नायक-नायिका के एकांत मिलन में कहीं स्थूलता झलक उठे, पर अधिकांश रचनाओं में आंतरिक अनुभूति की ही प्रधानता है।होली खेलने की सारी तैयारी करके मोहन के समक्ष राधा का एक चित्र देखें -

राधा सहेली नवेली समाज में होरी को साज सजै 
अति सोहै मोहन छैल खिलार तहाँ रस प्यास भरी अंखियान सो जोहै ।।
 
परंतु ऐसे प्रसंग बहुत कम हैं। घनानंद मूलतः वियोग श्रृंगार के कवि हैं । इस क्रम में जिस तीव्रता, मार्मिकता तथा रमणीयता का विधान उन्होंने किया है, वह अनुपम है । क्योंकि उन्होंने जीवन में प्रेम को चरम साधना के रूप में प्रतिष्ठित किया है । घनानंद ने अपनी कविताओं में हृदय की पुकार को वाणी प्रदान की है । उनकी कविता मौन के घूँघट में अपने को छिपाये हृदय के भवन में बैठी है -
 
उर भौन में मौन को घूँघट कै दुरि बैठि बिराजत बात बनी । 
मृदु मंजु पदारथ भूषण सों सु लसै हुलसै रस रूप मनी । 
रसना अली कान गली मधि ह्वै पधरावंति लै चित सेज ठनी । 
घनआनँद बूझनि अंक बसै बिलसै रिझवार सुजान धनी ।। 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का भी मानना है "घनानंद का वियोग वर्णन अधिकतर अंतर्वृत्ति निरूपक है, बाह्यार्थ निरूपक नहीं।" कदाचित् यही वजह है कि घनानंद के ही समकालीन कवि ब्रजनाथ के अनुसार उनके कवित्तों की वाणी वही समझ सकते हैं, जो -
 
नेही महा ब्रजभाषा-प्रवीन औ सुन्दरतानि के भेद को जानै । 
जोग वियोग की रीति में कोविद, भावना भेद स्वरूप को ठानै । 
चाह के रंग में भीज्यौ हियो, बिछुरें मिले प्रीतम सांति न मानै । 
भाषा-प्रबीन सुछंद सदा रहै सो घन जू के कवित्त बखानै ।। 

घनानंद रीतिकाल की रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रमुख प्रतिनिधि कवियों में से एक माने जाते हैं।रीतिमुक्त काव्यधारा रीतिकाल की अंतिम काव्यधारा है, जो 18वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में विकसित हुई। इस काव्यधारा में रीतिकालीन रीतिबद्धता और अलंकारिकता का विरोध करते हुए, ह्रदय की सच्ची भावनाओं और अनुभूतियों को व्यक्त करने पर बल दिया गया।घनानंद ने अपनी रचनाओं में ह्रदय की सच्ची भावनाओं और अनुभूतियों को व्यक्त करके रीतिकालीन रीतिबद्धता से मुक्ति प्राप्त की। उनकी रचनाओं ने रीतिमुक्त काव्यधारा को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

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