साँच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप पर हिन्दी निबंध

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साँच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप पर हिन्दी निबंध संत कबीर दास जी सत्य सदैव श्रेष्ठ माना गया है। यह नैतिकता का आधार है, जिसके बिना कोई भी समाज या व्यक्

साँच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप पर हिन्दी निबंध


साँच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप यह दोहा, जो संत कबीर दास जी का प्रसिद्ध रचना है, सदियों से भारतीय संस्कृति और नैतिकता का आधार रहा है। इसमें दो महत्वपूर्ण बातों पर प्रकाश डाला गया है: सच्चाई का महत्व और झूठ की बुराई।संत कबीर जी कहते हैं कि सच्चाई किसी भी तपस्या से बढ़कर है। तपस्या कठोर परिश्रम और त्याग का प्रतीक है, लेकिन सच्चाई का पालन करना इससे भी कठिन और महत्वपूर्ण है। सच बोलने से मन शुद्ध होता है, चरित्र मजबूत होता है और आत्मविश्वास बढ़ता है। सच्चा व्यक्ति समाज में सम्मानित होता है और उसे सदैव सुख और शांति प्राप्त होती है।

सत्य का महत्व

सत्य सदैव श्रेष्ठ माना गया है। यह नैतिकता का आधार है, जिसके बिना कोई भी समाज या व्यक्ति सच्चे अर्थों में प्रगति नहीं कर सकता। सत्य बोलने से मन में स्वच्छता और शांति आती है। यह हमें दूसरों के साथ विश्वास और सम्मान का रिश्ता बनाने में मदद करता है। सत्य का पालन करने वाला व्यक्ति सदैव समाज में आदर और प्रतिष्ठा प्राप्त करता है।

साँच बराबर तप नहीं' सूक्ति में सत्य की महत्ता स्वीकारी गई है जो स्वतः में एक सर्वश्रेष्ठ कठोरतम तप है । सत्य बहुमुखी प्रतिभा का प्रतीक है और तप कठिनतम साधना का । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पूर्ण विकास करने के लिए शिव और सुन्दरं से संयुक्त तपमय सत्य का सम्बल होना चाहिए।
 
साँच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप पर हिन्दी निबंध
सत्य का स्वरूप एवं शिवं तथा सुन्दरं से समन्वय : 'सत्य' शब्द संस्कृत के 'अस्ति' शब्द से बना है । 'अस्ति' क्रिया का अर्थ होता है 'है' - अर्थात् 'भूत', 'वर्तमान' और 'भविष्य' तीनों कालों में जो स्वतः बना रहे, वही सत्य है । सत्य धर्म का प्रतीक है। दूसरे शब्दों में सत्य भाषण ही धर्म है । किन्तु स्मरण रहे, जो शिवं एवं सुन्दरं से युक्त होगा, वही वास्तविक सत्य होगा । इसके अभाव में तो वह सत्य अधर्म का रूप धारण कर अहितकारी होगा । 'सत्यं-शिवं सुन्दरं' वाक्य देखने में तो 'अहं ब्रह्मास्मि' तथा 'तत्वमसि' आदि उपनिषद् वाक्यों के समान प्रतीत होता है, किन्तु वास्तव में यह यूनानी भाषा के सुभाषित का हिन्दीकरण है। इस यूनानी महाकाव्य का शब्दानुवादं ब्रह्मसमाज के महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने बंगला साहित्य में किया । फिर बाँगला साहित्य के प्रभाव के साथ ही उसका अनुवाद हिन्दी में हो गया । आज इसका इतना अधिक प्रचलन हिन्दी साहित्य में हो गया है कि यह हिन्दी का मौलिक शब्द सा प्रतीत होता है । इसके भारतीय न होने पर भी भारत में इसका प्रयोग सर्वत्र होता रहा है । 

'कविता सत्य, सौन्दर्य और शक्ति के लिए होनेवाली वृत्ति का स्फुरण है । इन तीनों अंगों में से यदि एक अंग भी न्यून होता है, तो साहित्य श्रीहीन हो जाता है । वास्तव में यह तीनों ही काव्य की आत्मा हैं एवं एकरूप हैं। जो वस्तु सत्य और शिव होगी, वह सुन्दर अवश्य होगी, भले ही उसका सौंदर्य नेत्रों द्वारा ग्राह्य न हो तथा सुन्दर एवं शिव भी सत्य अवश्य होगा, क्योंकि असत्य कुरूप तथा अकल्याण होता है । इस प्रकार सत्य के लिए शिव एवं सुन्दर होना परमावश्यक है ।
 

तप का अर्थ

इसका अर्थ है 'तपना' । तपने से महान् कष्ट होता है, चाहे वह अग्नि में, धूप में, पुस्तकों में, गृह-कार्यों या व्यापार आदि किसी में तपना हो । तप एक महान साधना है, जिसमें महान् कष्ट उठाने पड़ते हैं। किसी भी क्रिया को करने के लिए मन, वाणी एवं देह, तीनों को लगाना पड़ता है । इसीलिए तीनों की साधना को 'तप' कहते हैं ।
 

सत्य और तप का सम्बन्ध

सत्य मानव-हृदय के गौरव का द्योतक है । जो व्यक्ति सत्य भाषण करता है, उसका हृदय प्रबल रहता है-वह अपने गौरव के साथ अपनी बात कह सकता है । किन्तु असत्य भाषण करने वालों की आत्मा निर्बल रहती है, वे सर्वदा संकोचमय व भयभीत रहते हैं । सनातन धर्म भी यही है कि हम सत्य बोलें, किन्तु वह सत्य प्रिय हो । अप्रिय सत्य भी नहीं बोलना चाहिए । मनुष्य में विनय, औदार्य, साहस और चरित्रबल आदि गुणों का विकास सत्य मार्ग पर पद रखने से होता है। घोर से घोर कठिन परिस्थितियों का सामना करना ही वास्तविक तप- मार्ग है । सूक्तिकार ने 'साँच बराबर तप नहीं' -सूक्ति में तप की सिद्धि को ही सत्य कहा है। जीवन में कठिन कार्यों की सिद्धि बिना सत्य के हो ही नहीं सकती । सूक्तिकार के कथन में झूठ पाप की श्रेणी में आता है। सत्यनिष्ठ व्यक्ति विश्व में अमर हो जाते हैं और स्वर्ग के अधिकारी होते हैं ।
 

सत्य और चरित्र-निर्माण

यदि समाज का प्रत्येक व्यक्ति सत्य के मार्ग पर चले, तो समाज की उन्नति हो सकती है । सत्य के अभाव में हमारा नैतिक पतन हो जाता है । आत्मा की प्रगति की सुदृढ़ कसौटी सत्य ही है। सत्य की शक्ति से चरित्रवान् गाँधी जी के यहाँ झुक गए । यद्यपि यथार्थ से युक्त सत्य बोलना बड़ा सरल है, किन्तु इसके लिए आध्यात्मिक बल परमावश्यक है । सत्य सदैव कठोर होता है किन्तु हितकर अवश्य होता है । सत्य-पालन ही किसी बड़े-से-बड़े तप की सिद्धि एवं चरित्र-निर्माण का साधन है । सत्यनिष्ठ आत्मा में ही शिव का वास होता है ।
 

सत्यवादी तपस्वियों के कुछ उदाहरण

सत्य-पालन एक कठोरतम तप है । सन्तों का जीवन सत्य की भावना से ओत-प्रोत रहता है । सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र ने सत्य के पालन में अपना राज्य, परिवार, स्त्री-पुत्र- कलत्रादि सभी को त्याग दिया । महाराज दशरथ को सत्य के लिए कहना पड़ा, "रघुकुल रीति सदा चलि आई, प्राण जाहिं पुर वचन न जाई ।'' अन्त में हुआ भी यही, वचनबद्ध दो वरदान प्रदान किए और पुत्र-वियोग में प्राणों का त्याग किया । वस्तुतः सत्य का पालन करना 'असि' की धार पर चलना है । सत्यवादियों के वचन हाथी के दाँत होते हैं जो बाहर निकालने के बाद पुन: अन्दर प्रवेश नहीं करते । राजा शिवि की ख्याति भी सत्य के कारण ही हुई।जैसा की ऊपर कहा गया है, सत्य का तात्पर्य 'अस्ति' है अर्थात् जो तीनों कालों में रहे, प्रलय होने पर भी जिसका नाश न हो, वही 'अस्ति' सत्य है । अतः सत्य ही ईश्वर है । 

असत्य भाषण से हानियाँ 

सत्य की महिमा अपार है । सदैव परिकल्पना से दृढ़तर होता है । असत्य बोलने वाले दण्ड के भागी होते हैं, क्योंकि गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में, असत्य के समान कोई पाप नहीं । वास्तव में सम्पूर्ण मानव समाज सत्य की धुरी पर आश्रित है । सत्य के विरुद्ध बोलना अपनी आत्मा को धोखा देना है । असत्य भाषण क्षणिक लाभ प्रदान करता तो प्रतीत होता है, परन्तु बहुत बड़ी हानियों के लिए चरित्र के छिद्र द्वारों को खोल देता है । असत्य भाषण तो कभी-कभी जीवन को भी ले बैठता है । 

उपसंहार 

स्पष्ट है कि जीवन में सत्य पर चलने वाला व्यक्ति ही सफलता के मार्ग को सुदृढ़ करता हुआ अपना तथा अपने राष्ट्र का कल्याण करता है । तब मानव के कठोर परिश्रम का प्रतीक है । तप और सत्य दोनों ही मिलकर मानव के जीवन को विकसित करते हैं । सत्य के विषय में यह उक्ति कितनी ठीक है सत्य ही विश्व गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त है, जिसके द्वारा यह संसार चल रहा है। हर पल सत्य की ही विजय होती है, झूठ की कदापि नहीं । अत: सत्य की प्राप्ति ही कठोरतम तप है और संसार का सर्वोत्तम धर्म भी, जिसके बिना यह संसार जीने योग्य ही नहीं रह सकता । 

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि यह कथन सत्य और तपस्या के महत्व को कम करने का प्रयास नहीं करता है। यह केवल यह दर्शाता है कि सत्य का पालन करना तपस्या से भी अधिक महत्वपूर्ण है। सत्य का मार्ग कठिन अवश्य हो सकता है, लेकिन यह हमें जीवन में सच्ची शांति और आनंद प्रदान करता है।

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