हिंदी रिपोर्ताज का उद्भव और विकास

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हिंदी रिपोर्ताज का उद्भव और विकास रिपोर्ताज गद्य लेखन की एक विधा है जो किसी घटना, स्थान या व्यक्ति का यथार्थवादी और कलात्मक चित्रण प्रस्तुत करती है।

हिंदी रिपोर्ताज का उद्भव और विकास


रिपोर्ताज गद्य लेखन की एक विधा है जो किसी घटना, स्थान या व्यक्ति का यथार्थवादी और कलात्मक चित्रण प्रस्तुत करती है। यह केवल तथ्यों का संग्रह नहीं, बल्कि उन तथ्यों को रोचक और प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। रिपोर्ताज लेखक पत्रकारिता और साहित्य दोनों की कलाओं में पारंगत होता है।

रिपोर्ताज हिन्दी गद्य की एक नवीन विधा है। मूलतः यह (रिपोर्ताज) फ्रांसीसी शब्द है जो अंग्रेजी के 'रिपोर्ट' के समानार्थी रूप में ग्रहण किया गया है। हिन्दी में इसके लिए प्रारम्भ में 'सूचनांकन', 'सूचनिका' या 'सूचनांक' शब्दों का प्रयोग किया गया, परन्तु आजकल तो इसे यथावत् 'रिपोर्ताज' के रूप में ही अपना लिया गया है और एक मान्य विधा के रूप में इसे प्रतिष्ठा मिल गयी है। इसमें किसी सत्य घटना, युद्ध, भूचाल, बाढ़, मेला, महामारी तथा प्रदर्शनी व अभिनन्दन समारोह या विशिष्ट सम्मेलन आदि का कलात्मक विवरण प्रस्तुत किया जाता है।
 

रिपोर्ताज और रिपोर्ट में अंतर

यद्यपि 'रिपोर्ताज' 'रिपोर्ट' से जुड़ा हुआ है, किन्तु दोनों एक ही नहीं हैं। उनमें अंतर भी है। पत्रकार समाचार-पत्रों में घटनाओं का सामान्य विवरण भेजते हैं, वह रिपोर्ट (सूचना) है। यह रिपोर्ट तथ्यपरक और सत्य तो होती है, परन्तु उसमें कलात्मकता और साहित्यिकता नहीं होती, क्योंकि समाचार-पत्रों में उसकी अपेक्षा भी नहीं रहती, परन्तु 'रिपोर्ताज' में उन्हीं घटनाओं या घटना का यथातथ्य वर्णन के साथ उनका सरस एवं साहित्यिक रूप प्रस्तुत किया जाता है। 'रिपोर्ताज' साधारण 'रिपोर्ट' की भाँति शुष्क और अप्रिय व नीरस नहीं होते। वे सरस कलापूर्ण तथा यथासाध्यप्रेरक और प्रभावक होते हैं। "किसी घटना के वर्णन में वर्णनकर्त्ता जब अपनी कल्पना, सहृदयता, कलाकुशलता, भावुकता और शब्द-सामर्थ्य का समावेश करते हुए उसे सजीव कर देता है जिससे वह वर्णन मनोरंजक, हृदयस्पर्शी, प्रभावोत्पादक, रुचिकर और साहित्यिक होकर भी सत्यता पर ही आधारित रहता है तो साहित्य की उस विधा को रिपोर्ताज की संज्ञा दी जाती है।"
 
स्पष्ट है कि रिपोर्ताज में वास्तविक घटना अथवा दृश्य को अत्यन्त सजीव, रोचक तथा कलात्मक और प्रभावशील ढंग से प्रस्तुत किया जाता है।
 

रिपोर्ताज की विशेषताएं

किसी अच्छे रिपोर्ताज में निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं - 
  • यथार्थवाद: रिपोर्ताज में वर्णित घटनाएं और पात्र वास्तविक होते हैं। लेखक कल्पना का सहारा नहीं लेता, बल्कि वास्तविकता को अपनी लेखनी में उतारता है।
  • कलात्मकता: रिपोर्ताज केवल सूखी जानकारी का ढेर नहीं होता। लेखक भाषा, शैली, और वर्णन का कुशलतापूर्वक प्रयोग कर पाठकों को घटनाओं से जोड़ता है और उनमें रुचि पैदा करता है।
  • वस्तुनिष्ठता: रिपोर्ताज लेखक को निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ रहना चाहिए। उसे अपनी व्यक्तिगत राय या भावनाओं को लेखन में घुसपैठ नहीं करनी चाहिए।
  • विश्लेषणात्मकता: रिपोर्ताज केवल घटनाओं का वर्णन नहीं करता, बल्कि उनका विश्लेषण भी करता है। लेखक घटनाओं के पीछे के कारणों और परिणामों को समझने का प्रयास करता है।
  • विविधता: रिपोर्ताज किसी भी विषय पर लिखा जा सकता है। यह सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, या खेलों से संबंधित हो सकता है।

रिपोर्ताज विधा का विकास यूरोप में युद्ध-क्षेत्र में हुआ। सन् 1936 के लगभग द्वितीय महायुद्ध के पूर्व इस विधा का जन्म हुआ और यह युद्धभूमि में विकसित हुई। महायुद्ध की विभीषिका भी नवीन कलारूपों तथा साहित्यिक विधाओं को जन्म देती है।

हिन्दी रिपोर्ताज का इतिहास

हिन्दी में 'रिपोर्ताज' का सर्वप्रथम विवेचन श्री शिवदान सिंह चौहान ने मार्च 1941 में किया। वे स्वयं एक अच्छे रिपोर्ताज लेखक हैं। 'हंस' के द्वारा उसके 'समाचार और विचार' शीर्षक स्तम्भ के अन्तर्गत प्रकाशित होनेवाली सामग्री वस्तुतः 'रिपोर्ताज' थी।


हिंदी रिपोर्ताज का उद्भव और विकास

'रिपोर्ताज' रिपोर्ट है। जिसमें वर्ण्यघटना अपने परिवेश की सम्पूर्ण चित्रात्मकता के साथ अंकित की जाती है। इस लक्षण की सिद्धि के लिए जो शृंखला प्रस्तुत हुई है, उसकी पहली कड़ी रिपोर्ताज के रूप में भी- 'मौत के खिलाफ जिन्दगी की लड़ाई' जिसके लेखक थे शिवदानसिंह चौहान। हंस में प्रकाशित इस नौ पृष्ठीय रिपोर्ताज में स्वतंत्रता से पूर्व देश की 'गतिविधि पर पूरा-पूरा प्रकाश पड़ता है। स्वतंत्रता की पुकार के साथ इसमें बंगाल का अकाल, गाँधीजी की रिहाई की चर्चा भी है। इस रिपोर्ताज के अन्त में लेखक इस निर्णय पर पहुँचता है कि अन्ततोगत्वा सम्पूर्ण देश की आजादी की लड़ाई और जातीय आत्मनिर्णय के अधिकार की लड़ाई में कोई वैषम्य नहीं है। 

शिवदान सिंह चौहान के बाद डॉ० रांगेय राघव का नाम महत्वपूर्ण है। वैसे रिपोर्ताज के मामले में दोनों लेखक समकालीन हैं।डॉ० रांगेय राघव के अतिरिक्त प्रकाशचन्द्र गुप्त, हंसराज 'रहबर', प्रभाकर माचवे, अमृतराय, डॉ० रामकुमार वर्मा, अज्ञेय, अमृतलाल नागर और यशपाल आदि अनेक लेखकों ने अच्छे रिपोर्ताज प्रस्तुत किये हैं। आजकल विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रायः रिपोर्ताज देखने को मिल जाते हैं तथापि परिणाम की दृष्टि से रिपोर्ताज का लेखन अभी सीमित ही कहा जायेगा। हाँ, इस क्षेत्र में पर्याप्त सृजन की संभावना विद्यमान है। द्वितीय महायुद्ध के उपरान्त प्रादुर्भूत एवं विकसित यह विधा अपनी नवता के साथ कलात्मक परिपक्वता और श्रेष्ठता में अग्रणी होगी, ऐसा विश्वास है। इसकी लोकप्रियता सुनिश्चित और सुरक्षित है।


रिपोर्ताज का महत्व

हिंदी साहित्य में रिपोर्ताज का विकास बीसवीं शताब्दी में हुआ। भारतेन्दु हरिश्चंद्र, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, जैनेन्द्र, रांगेय राघव, धर्मवीर भारती, और अमृतलाल नागर जैसे कई प्रतिष्ठित लेखकों ने रिपोर्ताज विधा में योगदान दिया है। इन लेखकों ने अपनी लेखनी से विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक, और सांस्कृतिक मुद्दों को उजागर किया है।

इस प्रकार रिपोर्ताज एक महत्वपूर्ण साहित्यिक विधा है जो कई स्तरों पर समाज को लाभान्वित करती है। यह हमें वास्तविकता के विभिन्न पहलुओं से परिचित कराता है, सामाजिक मुद्दों पर विचार करने के लिए प्रेरित करता है, और सामाजिक परिवर्तन को प्रेरित कर सकता है।

हिंदी रिपोर्ताज का इतिहास समृद्ध और विविध है। विभिन्न लेखकों ने इस विधा में योगदान दिया है, जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न प्रकार की रचनाएँ हुई हैं जो सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों, संस्कृति, और व्यक्तिगत अनुभवों का पता लगाती हैं।

हिंदी में पहला रिपोतार्ज कौन सा है ?

ऐसा माना जाता है कि हिन्दी का पहला रिपोर्ताज शिवदान सिंह चौहान ने 'लक्ष्मीपुर' नाम से लिखा था। जिसका प्रकाशन सुमित्रानंदन के संपादन में निकलने वाली 'रुपाभ' (मासिक) पत्रिका के दिसम्बर, 1938 के अंक में हुआ था।

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