युवा वर्ग की बदलती हुई मानसिकता

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युवा वर्ग की बदलती हुई मानसिकता युवा वर्ग समाज का भविष्य है और उनकी बदलती हुई मानसिकता समाज को तनाव और चिंता काआकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी

युवा वर्ग की बदलती हुई मानसिकता

 
नुष्य, पशु-पक्षी आदि अपने-अपने समूह में समाज में रहते हैं। सभी एक-दूसरे के सहयोग से काम करते हैं। प्रकृति ने विषमलिंगी जीव पैदा करके साथ रहने के आकर्षण को और अधिक बढ़ा दिया है। 

आदिकाल से ही एक-दूसरे के साथ रहने की प्रवृत्ति मनुष्य में है। हर व्यक्ति अपने समान अवस्था वाले साथियों के साथ रहना, खेलना तथा पढ़ना पसन्द करता है। 

प्राचीनकाल में गुरुकुल में पढ़ाई के लिए अवस्था निर्धारित थी। परिश्रम तथा लगन से पढ़ने वाले छात्र पढ़ाई में बहुत योग्यता हासिल कर लेते थे और न पढ़ने वाले तब भी एक-दूसरे को परेशान करते रहते थे। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को ध्यान में रखकर शिक्षा की व्यवस्था की गयी थी। कुछ भी हो उस समय मानव में मानवता का विकास हो इस पर विशेष ध्यान दिया जाता था। प्रत्येक व्यक्ति पढ़ाई के साथ-साथ गुरु, गुरु-परिवार तथा आगन्तुकों की सेवा गुरुकुलों में बड़े भक्ति भाव से किया करते थे जिससे उनमें नम्रता, दया, क्षमा आदि गुणों का अनायास ही विकास हो जाता था। खेती और घर के अधिकांश कार्य हाथों द्वारा सम्पादित होते थे, मनोरंजन के साधन सीमित थे। अतः मनुष्यों को एक-दूसरे के साथ समय बिताने का अवसर मिल जाता था।
 
आधुनिक युग में विज्ञान के नये-नये आविष्कारों और मनोरंजन के आधुनिक साधनों ने मनुष्य के मन-मस्तिष्क को जरूरत से अधिक सक्रिय बना दिया है। आज की शिक्षा प्रणाली भी अर्थ प्रधान हो गयी है। शिक्षा संस्थाएँ भी व्यापारिक संस्थानों का रूप लेती जा रही हैं। अध्यापक भी विद्यालय में पढ़ाने की अपेक्षा अपने घर ट्यूशन या कोचिंग सेण्टरों पर पढ़ाना अधिक उत्तम मानते हैं। फलतः शिक्षकों की उदासीनता के कारण और माँ-बाप की ढील के कारण आज अधिकांश युवक सुविधा मिलने पर भी पढ़ाई में कम ध्यान दे रहे हैं। वे अपना अधिकांश समय अपने साथियों के साथ खेलकूद में या फिर सिनेमा आदि देखने में व्यर्थ गँवा देते हैं।

युवा वर्ग की बदलती हुई मानसिकता
इन सबका मुख्य कारण है कि बच्चे का मन दर्पण के समान स्वच्छ और निर्मल होता है। उस समय उसके मन पर जो अंकित हो जाय वही उसकी स्थायी प्रवृत्ति हो जाती है। आज के युग में पति-पत्नी अपने-अपने दफ्तर चले जाते हैं। उनके पास बच्चों में संस्कार उत्पन्न करने का अवसर ही नहीं होता। शिक्षकों का हाल यह है कि आज की महँगाई में वह बच्चों में संस्कार गढ़ने की अपेक्षा अधिक-से-अधिक पैसा कमाकर अपने परिवार को खुशहाल रखना चाहते हैं। अतः शिक्षा और बालक के विकास की ओर उनका कम ध्यान रहता है। मानव की गति झरने की भाँति होती है जिस प्रकार उन्नति के पथ पर चलना कष्ट भरा होता है और अवनति का मार्ग सीधा, सरल होता है उसी प्रकार झरने का पानी आसानी से नीचे गिरता है, किन्तु ऊपर जाने में परेशानी होती है इसी प्रकार अवनति के मार्ग पर जाने वाले आसानी से मिल जाते हैं, किन्तु कष्टों को झेलते हुए भी मानव यदि सच्ची राह पर चलता है तो उसे अमृत फल मिलता है। 

आज दूरदर्शन और चलचित्रों का प्रभाव बच्चों के मन को बरबस अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। दिन-रात प्रसारित होने वाले विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों को चटकीला भड़कीला बनाकर इस तरह पेश किया जाता है कि किशोर उसके सामने से उठना ही नहीं चाहते। इसका एक मुख्य कारण एकान्त भी है। आज के समय में जब केवल पिता की आय से घर चलाना मुश्किल होता है तब माँ को भी उनका हाथ बँटाने के लिए घर से बाहर काम पर जाना पड़ता है। ऐसी स्थिति में बच्चे घर पर अकेले रह जाते हैं, उन पर किसी प्रकार का कोई दबाव नहीं होता। उनके कहीं भी जाने तथा कुछ भी करने पर कोई पाबन्दी नहीं होती। घर का यह वातावरण बच्चों को उद्दण्ड बना देता है इसके अतिरिक्त कुछ माता-पिता तो समय होते हुए भी अपने बच्चों को गलत राह पर जाने से नहीं रोकते। समाज में बढ़ते हुए भौतिकवाद ने भी इसे बढ़ावा दिया है। आज बच्चे घर पर रहने की अपेक्षा साथियों के साथ घूमना-फिरना व चलचित्र देखना अधिक पसन्द करते हैं। आर्थिक विकास भी इनमें काफी सहयोगी है। आज मनुष्य अर्थ के बल पर सब-कुछ पाना चाहता है। 

आज के युवा वर्ग में कम काम करके अधिक-से-अधिक धन कमाने की लालसा उत्पन्न होती जा रही है। विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले छात्र पूरे वर्ष तो पढ़ाई पर ध्यान नहीं देते और परीक्षा का समय निकट आने पर कोचिंग जाकर ट्यूशन पढ़कर, पेपर आउट करवा कर या फिर मार्कशीट में नम्बर बढ़वा कर उत्तीर्ण होने में विश्वास करते हैं। 'पैसा फेकेंगे तमाशा देखेंगे' मान्यता को जीवन में स्थान देने वाले ये युवा अन्त में पछताते हैं। विद्वानों ने सच्चे मित्र के लक्षण बताये हैं-जो उन्नति के पथ पर ले जायें, हर बुराइयों को बताएँ, विपत्ति में सहायक हों, किन्तु आज के विद्यार्थी में घर-परिवार यह योग्यता पैदा नहीं कर पाता कि वह योग्य मित्र का चुनाव कर सके और यह तो स्वाभाविक है कि हर अवस्था वाला व्यक्ति अपनी अवस्था वालों के साथ ही रहना चाहता है, खेलना चाहता है और पढ़ना चाहता है। बच्चे बच्चों के साथ समय बिताना पसन्द करते हैं, बुरा विचार, क्रिया-किलाप भी भिन्न-भिन्न होते हैं, किन्तु आज के विद्यार्थी में पढ़ने के स्थान पर अपने साथियों के साथ खेलने व चलचित्र आदि देखने का प्रचलन तीव्र गति से बढ़ता जा रहा है। कृत्रिम आडम्बरों से बच्चे में स्वतन्त्र चिन्तन करने की प्रवृत्ति ही उत्पन्न नहीं हो पाती ।

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