तुलसीदास की भक्ति नवधा भक्ति है

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तुलसीदास की भक्ति नवधा भक्ति है तुलसीदास की भक्ति नवधा भक्ति है गोस्वामी तुलसीदास जी का युग सगुण भक्ति सरल एवं सुगम भगवान विष्णु के नाम, रूप, गुण मधुर

तुलसीदास की भक्ति नवधा भक्ति है


तुलसीदास की भक्ति नवधा भक्ति है गोस्वामी तुलसीदास जी का युग भक्ति-आन्दोलनों का युग था । देश पर जब मुगल साम्राज्य का प्रशासन था तब से ही भक्ति का यह स्वरूप प्रतिष्ठित हुआ। मुगल साम्राज्य से त्रस्त जनता ने अपने पुरुषार्थ और बल-पराक्रम को भूलकर भगवान् की शक्ति की ओर ध्यान दिया। इस नैराश्य-काल में त्रस्त जनता के लिए भगवान् के सिवा कोई और था भी नहीं। रामानन्द और बल्लभाचार्य के द्वारा भक्ति के स्वरूप का विस्तार हुआ। तुलसीदास राम के सगुणोपासक भक्त थे, किन्तु इनमें सगुण और निर्गुण में कोई भेद नहीं- 

सगुनहिं अगुनहिं नहि कछु भेदा । गावहिं मुनि पुरान बुध वेदा ।। 
अगुन अरूप अलख अज सोई । भगत प्रेम बस सगुनहिं होई ।। 

गोस्वामी जी राम-भक्त थे। इस कारण उन्हें सब कुछ सीयराममय ही दिखायी पड़ता है- 

सीयराम मय सब जग जानी। करहुँ प्रनाम जोरि जुग पानी।। 

सगुण भक्ति सरल एवं सुगम है, इसलिए गोस्वामी जी ने लोगों को सगुणभक्ति करने की सीखदी। तुलसी की भक्ति राम के प्रति अनन्य भाव की है जैसे चातक और बादल का प्रेम होता है। ठीक उसी प्रकार गोस्वामी जी को भी एक ही विश्वास है एवं वे एक ही पर आश्रित हैं- 

एक भरोसो एक बल एक आस विस्वास । 
एक राम घनस्याम हित चातक तुलसीदास ।। 

तुलसी ने भगवान् राम के प्रति भक्ति की अतिशयता पर बल देने के लिए ही उनसे प्रार्थना की है- 

कामिहिं नारि पियारि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम । 
तिमि रघुनाथ निरन्तर प्रिय लागहुँ माँहि राम ।। 

तुलसीदास उन लोगों से घृणा करते हैं, जो श्रीराम से विमुख रहते हैं-

जाके प्रिय न राम बैदेही । 
तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही । 

तुलसी की भक्ति बहुत ही सहज है, क्योंकि उनके आराध्य श्रीराम-जैसा उदार इस संसार में कोई नहीं है-
 
ऐसा को उदार जग माहीं । 
बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर, राम सरिस कोउ नाहीं । 

गोस्वामी जी ने सख्य, वात्सल्य, शान्त और मधुर भक्तियों की उपादेयता स्वीकार करते हुए दास्य-भक्ति की अनिवार्यता पर बल दिया है- 

सेवक सेव्य भाव बिनु, भव न तरिय उरगारि । 

नवधा भक्ति - भक्ति के जितने वर्गीकरण शास्त्रों में किये गये हैं, उनमें भागवत् की नवधा भक्ति सबसे अधिक लोकप्रिय है- 

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । 
अर्चनं वन्दनम् दास्य सख्यमात्मनिवेदनम् ।। 

भगवान विष्णु के नाम, रूप, गुण और प्रभावादि का श्रवण, कीर्तन, स्मरण और भगवान् की चरण- सेवा, पूजा और वन्दना एवं भगवान् में दास्य भाव, सख्य भाव और अपने को समर्पण कर देना यह नौ प्रकार की भक्ति है। अतः हम नवधा भक्ति को तुलसी के काव्य में देखेंगे- 

तुलसीदास की भक्ति नवधा भक्ति है
श्रवण -
भगवान् के प्रेमी भक्तों द्वारा वर्णित भगवान् के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, लीला तत्त्व और रहस्य भरी अमृतमयी कथाओं का श्रद्धा और प्रेम-पूर्वक श्रवण करना तथा प्रेम में मुग्ध हो जाना नवधा भक्ति है। यह श्रवण-भक्ति बिना महापुरुषों के सत्संग के प्राप्त नहीं हो सकती- 

बिनु सतसंग न हरि कथा, तेहिं बिनु मोह न भाग । 
मोह गये बिनु राम पद, होइ न दृढ़ अनुराग ।। 

कीर्तन - सगुण अथवा निर्गुण ब्रह्म के बोधक शब्द का उच्चारण ही कीर्तन है। गोस्वामी जी ने राम का गुणगान न करने वालों की जिह्वा को मेढ़क की जिह्वा के समान माना -
 
जो नहिं करै राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना ।। 

स्मरण - भगवान् के गुण, रूप, प्रभाव, लीला आदि का स्मरण करके मनुष्य भवसागर पार करने में अपने को समर्थ पाता है- 

'जासु नाम सुमिरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा।। 

पाद सेवन - भगवान् एवं मुनियों की पाद-सेवा आदि ही पाद-सेवन-भक्ति कहलाती है - 
रज सिर धरि हिय नयनन्हिं लावहिं । रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं । ।

अर्चन - गोस्वामी जी ने अपनी रचनाओं में भगवान् की पूजा-अर्चना को भी महत्त्व दिया है। सीता ने भवानी की पूजा की है -  तुलसी भवानिहिं पूजि पुनि-पुनि मुदित मन मन्दिर चर्ली । 

वन्दन - मानस एवं विनय पत्रिका में भगवान् की वन्दना एवं स्तुतियों की भरमार है - 
यह विनती रघुवीर गोसाईं, और आस-विस्वास भरोसौ हरौ जीव जड़ताई । 

दास्य भाव - भगवान् को स्वामी और स्वयं को सेवक मानना ही दास्य-भाव है। गोस्वामी जी कहते हैं कि दास्य-भाव के बिना भवसागर से उद्धार नहीं हो सकता- 

सेवक सेव्य भाव बिनु, भव न तरिअ उस्गारि । 
भजहुँ राम पद पंकज, अस सिद्धान्त बिचारि । । 

सखा भाव - इस भक्ति में आराध्य के प्रति सखा एवं बन्धुभाव रहता है। इस भाव की भक्ति के दर्शन यत्र-तत्र ही मिल सकते हैं।

आत्मनिवेदन - भक्त द्वारा भगवान् के प्रति सर्वतोभावेन आत्मसमर्पण ही आत्मविनेदन है। भगवान् राम के अतिरिक्त तुलसी को अन्यत्र शान्ति नहीं है। 

जाऊँ कहा तजि चरन तुम्हारे, 
काको नाम पतित-पावन जग, केहि अति दीन पियारे । 

आचार्य शुक्ल के शब्दों में कहना प्रासंगिक होगा- "उनकी वाणी के प्रभाव से आज भी हिन्दू भक्त अवसर के अनुसार सौन्दर्य पर मुग्ध होता है, सन्मार्ग पर पैर रखता है, विपत्ति में धैर्य धारण करता है, कठिन कार्य में उत्साहित होता है और मानव-जीवन के महत्त्व का अनुभव करता है।

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