हरिशंकर परसाई आज भी आदरणीय हैं

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हरिशंकर परसाई आज भी आदरणीय हैं परसाई धूर्त नहीं बन सके। नागार्जुन टाइप रह गए। इसी कारण वे बच गए और आज भी आदरणीय हैं। उनकी ट्रैजिडी यह है कि उनकी गुडव

हरिशंकर परसाई आज भी आदरणीय हैं


रिशंकर परसाई पर बातचीत जोरदार ढंग से हो रही है। हरिशंकर परसाई के बारे में अपने कुछ विचार पहले ही साफ साफ लिख दूं ताकि क्लैरिटी रहे।

हरिशंकर परसाई के विचार अंततः कांग्रेसी शासन तंत्र के पक्ष के विचार हैं। समाज में व्याप्त असंतोष, अन्याय के विरुद्ध बहुत ही गहरा आक्रोश था। वे सोसलिस्ट थे, लेकिन उनका सोशलिज्म कांग्रेस तंत्र की छत्रछाया में रहे कम्युनिस्ट के संगठन के आसपास ही रहा। उनका लोकेशन ऐसा था कि उनके आसपास एक बड़ी संख्या ऐसी जुड़ी थी जिसको क्रांति के लिए लड़ने वाले कार्यकर्ता बने रहने के लिए अच्छा लिखते रहना, बदलाव की बात करते रहना और कांग्रेस के प्रतिपक्ष के प्रति बहुत कठोर और जनसंघ के प्रति सबसे कठोर भाषा में लिखना बोलना पर्याप्त था। 

एक बड़ी संख्या ऐसी प्रगति शीलों की रही है जो देश की राजनीति के हिंटरलैंड में दाल रोटी खाकर क्रांति के लिए मगन रहने वाले थे। उनको ज्यादा की चाह नहीं थी। वे उतने महत्वाकांक्षी नहीं थे। कम सम में ही लड़ने के लिए तैयार थे। ऐसे लोगों के परसाई नायक थे। 

परसाई का संघर्ष मुक्तिबोध की तरह का था। पढ़ते थे, संवेदनशील थे, धूर्त नहीं थे और अपने जीवन के अर्थशास्त्र को ठीक से संभालने में असफल थे। 

दोनों के पास बड़े बड़े लोगों से परिचय था लेकिन जेब में पैसे जरूरत से कम थे। परसाई को राज्य सभा के सदस्य के रूप में नामित होना था। उस आशा से वे दिल्ली गए भी थे लेकिन बंगाल के मुख्य मंत्री ने एक बंगाली साहित्यकार को बनवाने में सफलता पा ली। परसाई भगवतीचरण वर्मा बनने से चूक गए। ज्यादा स्मार्ट श्रीकांत वर्मा तो वे बन भी नहीं सकते थे।

परसाई के जीवन की कहानी कुल मिलाकर बहुत ही ट्रैजिक है। उनको पांव के एक आपरेशन के लिए कांग्रेस के मुख्यमंत्री के रेफरेंस से सहूलियत मिली। आपरेशन ठीक से नहीं हुआ। स्थिति और बिगड़ गई। बाद में सुधरी लेकिन पूरी तरह नहीं। ( यह कहा जाता है कि उन पर संघियों ने हमला किया था।) वे बैसाखी के सहारे हो गए। 

हरिशंकर परसाई आज भी आदरणीय हैं
मेरे हिसाब से हरिशंकर परसाई हमारे लिए हिंदी के १९४७ के बाद के सर्वाधिक काम के साहित्यकार हैं। लोग उन्हें व्यंग्य लेखक कहते हैं। वे टेकनीकल अर्थ में थे भी, लेकिन उनके लेखन में विचार तत्त्व ही प्रबल है। वह विचार जिसकी चर्चा पहले की जा चुकी है।

जिस भाषा में वे लिखते थे वही सबसे अच्छी और प्रतिनिधि हिंदी गद्य - भाषा है। हिंदी के हर लेखक को उस भाषा को सीखने की जरूरत है। उनसे बेहतर शैली किसी भी लेखक की नहीं है। हिंदी में उनसे बेहतर लेखन शैली किसी की नहीं है। उनके विचारों से असहमत व्यक्ति को भी उनसे लिखने की शैली सीखनी चाहिए। उनके लिखे का पाठ जगह जगह होना चाहिए ताकि लोग सीख सकें कैसे लिखना चाहिए।

परसाई जैसे लोग दिल्ली (केंद्र ) में रच बस गए राजनेताओं या उनकी संस्थाओं की गोद में जाकर बसने वालों से भिन्न थे। वे थे तो उसी विचारधारा के लेकिन उसके एवज में कुछ हासिल करने की होशियारी उनमें नहीं थी। यह चालाकी, धूर्तता और स्मार्टनेस हिंदी के लेखकों में सत्तर के दशक में ठीक से उभरी और उसके बाद वह बढ़ने लगी। नब्बे के दशक तक आते आते उसने भयावह रूप ले लिया। अब तो साहित्यिक वही जो नेताजी के मन भाए! 

परसाई धूर्त नहीं बन सके। नागार्जुन  टाइप रह गए। इसी कारण वे बच गए और आज भी आदरणीय हैं। उनकी ट्रैजिडी यह है कि उनकी गुडविल में जमा राशि को मोर कैकुलेटेड लोगों ने भुना लिया। वे पार्टी में भी अलग थलग रहे ऐसा आभास मिलता है। उनके विचार कई जगह गलत सिद्ध हुए। मजबूरी थी। क्या करते। कहीं तो अपने को लोकेटेड रखते। जिस तरह कृष्ण मेनन का उन्होंने बचाव किया है और जिस तरह उन्होंने आपात काल के समय लिखा और अंततः जिस तरह कांग्रेस विरोधियों की धज्जियां उड़ाई ( जयप्रकाश नारायण समेत) वह उनकी वैचारिक सीमा और उनकी सोच की दिशा को पूरी तरह से साफ कर देता है। 

मैं समझता हूं यह ट्रैजिक है। अगर उनके पास एक पढ़ी लिखी एलिट  समाज में पैठ रखने वाली बीवी होती तो शायद उनके बेटे बेटी अमरीका में होते, दिल्ली के किसी पॉश इलाके में उनका मकान होता और वे दिल्ली में ज्यादा जाने वाले साहित्यिकों में होते। उन्होंने तो अपनी "लीला चिटनिस" से शादी नहीं की क्योंकि उन्हें अपनी विधवा  बहन के परिवार का दुःख देखा नहीं गया। ...

वे छोटे शहरों में बहुत लोकप्रिय ही बने रहे। महानगर के महान को बनाने के लिए महानगर में उनके बेटे बेटियों की उपस्थिति जरूरी थी।...

परसाई असली हिंद / भारत के लेखक थे। उस दौर में थे जिसमें कांग्रेस की छत्रछाया में रहने की प्रगतिशील व्यवस्था के साथ रहना मजबूरी भी थी। मैं उनके इस पक्ष पर ध्यान देना जरूरी नहीं समझता। मैं सोचता हूं उनकी वैचारिक सीमा को नहीं उनकी शैली पर ध्यान रखूं। मैं उनको हर किसी को पढ़ने के लिए कहता हूं। उनकी सीमा उनके समय की सीमा थी, ऐसा मान लेना ही श्रेयस्कर प्रतीत होता है। विचार में भी बहुत कुछ ऐसा है जो किसी भी समझदार पाठक के लिए उपयोगी हो सकता है।

मैं उन्हें रोज पढ़ता हूं। रोज सीखता हूं। मुझे वे बेहद जरूरी लेखक लगते हैं। हर युवा हिंदी लेखक को उनकी किताबें पढ़ने के लिए कहता हूं। 

( कितनी विरोधाभासी पोस्ट है ! क्या इसे लिखना इतना जरूरी था?!!!चुप नहीं रह सकते थे !)


- हितेंद्र पटेल

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