पितृसत्तात्मक समाज को भी अपनी सोच बदलनी होगी

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पितृसत्तात्मक समाज को भी अपनी सोच बदलनी होगी. सवाल यह उठता है कि जब नैतिकता और परंपरा यदि समाज को सही दिशा में ले जाने के लिए है, तो फिर पुरुषों पर भी

कब तक महिलाएं सामाजिक हिंसा का शिकार होंगी ?


हाल ही में झारखंड की राजधानी रांची के रहने वाले एक पिता प्रेम गुप्ता ने जिस तरह से शादी के नाम पर धोखाधड़ी की शिकार हुई अपनी बेटी को धूमधाम से गाजे-बाजे के साथ ससुराल से वापस लाने का काम किया है, वह न केवल सराहनीय है बल्कि महिला हिंसा के विरुद्ध एक शंखनाद भी है. दरअसल हमारे समाज ने नैतिकता और परंपरा के नाम पर बहुत सारी लक्ष्मण रेखाएं बना रखी हैं. लेकिन यह केवल महिलाओं और किशोरियों पर ही लागू होता है. मां के गर्भ से लेकर अंतिम सांस तक नारी से ही इस रेखा के पालन की उम्मीद की जाती है. वहीं पुरुषों के लिए इस लक्ष्मण रेखा को रोज़ लांघना आम बात है. वह महिलाओं के साथ चाहे जिस तरह का अत्याचार कर ले, समाज आंखें मूंद लेता है. उसे फ़िक्र केवल महिलाओं और किशोरियों की होती है. अगर किसी किशोरी या महिला ने अत्याचार के विरुद्ध आवाज़ उठा दी तो समाज को तकलीफ होने लगती है.

पितृसत्तात्मक समाज को भी अपनी सोच बदलनी होगी
21वीं सदी में भारत ने बहुत तरक्की कर ली है. साइंस और टेक्नोलॉजी हो या फिर अर्थव्यवस्था, हर क्षेत्र में आज भारत विश्व के विकसित देशों के साथ आंख से आंख मिलाकर बातें करता है. लेकिन भारतीय समाज विशेषकर भारत का ग्रामीण समाज आज भी वैचारिक रूप से पिछड़ा हुआ है. शहरों की अपेक्षा गांव में महिलाओं के साथ इस दौर में भी शारीरिक और मानसिक हिंसा आम बात है. पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के बागेश्वर जिले के गरुड़ ब्लॉक का चोरसौ गांव इसका एक उदाहरण है. जहां महिलाएं सामाजिक हिंसा झेल रही हैं. जिनके साथ कदम कदम पर नैतिकता और परंपरा के नाम पर बंदिशें और अत्याचार किया जाता है. घर से बाहर निकलने पर किशोरियों और महिलाओं को लोगों के ताने सुनने पड़ते हैं. उन्हें घर की चारदीवारी में रहने की नसीहत दी जाती है. पति द्वारा किये जाने वाली हिंसा को सहने पर मजबूर किया जाता है. हिंसा के खिलाफ आवाज़ उठाने वाली महिला का साथ देने की बजाये समाज उसे ही बुरा कहता है.

चोरसौ गांव की कुल जनसंख्या लगभग 3584 है. जबकि साक्षरता की दर करीब 75 प्रतिशत है. हालांकि पुरुषों की तुलना में महिला साक्षरता की दर काफी कम है. शिक्षा के इसी अभाव के कारण इस गांव की महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं हैं. जिससे वह क्या सही है और क्या गलत है, इसका फैसला नहीं कर पाती हैं. उन्हें अपने साथ होने वाले किसी भी प्रकार के दुर्व्यवहार के खिलाफ बोलना तक नहीं आता है. गांव की अधिकतर महिलाओं पर घर से बाहर आने जाने पर रोक-टोक की जाती है. यदि महिलाएं घर से बाहर काम पर चली भी जाती हैं तो खुद को घर के अंदर छोड़कर जाने जैसा ही होता है. इस संबंध में गांव की एक 18 वर्षीय किशोरी सिमरन कहती है कि जब हम घर से बाहर जाते हैं तो हमें लोगों के ताने और लड़कों के कमेंट्स सुनने पड़ते हैं. इन चीजों का सामना हमें हर रोज करना पड़ता है. जिसका सीधा असर हमारे स्वास्थ्य और मानसिकता दोनों पर पड़ता है. जिसकी वजह से पढ़ाई में भी मन नहीं लगता है.

गांव की एक अन्य किशोरी रितिका का कहना है कि हमें अपने जीवन में बहुत सी सामाजिक हिंसा का शिकार होना पड़ता है. हम अपनी मनपसंद के कपड़े जैसे जींस, शर्ट टॉप भी पहन कर बाहर नहीं जा सकते हैं क्योंकि न केवल लोग गलत दृष्टि से देखते हैं बल्कि इस प्रकार के कमेंट्स करते हैं कि हमें मानसिक रूप से कष्ट पहुंचती है. हमें खुद ऐसा लगता है कि न जाने हमने ऐसा क्या कर दिया है? बोलने से पहले लोग सोचते भी नहीं हैं कि हमें ऐसी सोच से हमें कितनी तकलीफ होती है. अफ़सोस की बात यह है कि घर के लोग भी साथ देने और हौसला बढ़ाने की जगह लड़कियों को ही दोषी मानने लगते हैं. यह किसी भी लड़की के लिए दोहरी तकलीफ होती है और वह मानसिक रूप से टूट जाती है.

वहीं 26 वर्षीय संगीता देवी कहती हैं कि महिलाएं तो अपने परिवार से लेकर बाहर की दुनिया तक किसी न किसी प्रकार की हिंसा की शिकार हो रही हैं. यदि हम इसके विरुद्ध आवाज उठाती हैं तो समाज हमारा साथ देने की जगह हमारे ही चरित्र पर सवाल उठाने लगता है. सारा दोष लड़कियों और महिलाओं पर ही डाल दिया जाता है. समाज सबसे पहले हमारे आत्म सम्मान और चरित्र पर ही उंगली उठाता है. नैतिकता और परंपरा का हवाला देकर लड़कियों और महिलाओं को इस तरह बदनाम किया जाता है कि वह अपने लिए आवाज उठाना ही भूल जाती है. इन तरह किशोरियां और महिलाएं हिंसा का शिकार होती रहती हैं. वहीं 39 वर्षीय पार्वती देवी कहती हैं कि महिलाओं के साथ केवल सामाजिक हिंसा ही नहीं, बल्कि आर्थिक हिंसा भी की जाती है. उसके साथ काम के आधार पर भी भेदभाव किया जाता है. जब एक औरत मज़दूरी करने जाती है और कोई काम करती है तो उसे मात्र 230 रूपए प्रतिदिन मज़दूरी दी जाती है, जबकि वही काम उतने ही घंटे में कोई पुरुष करता है तो उसे 500 रूपए मज़दूरी अदा की जाती है. अगर हम इस विषय पर बात करते हैं तो यह दलील दी जाती है कि आदमी पत्थर तोड़ सकता है, लेकिन औरत नहीं. जबकि सच यह है कि एक औरत भी पुरुष की तरह पत्थर तोड़ती है. लेकिन इसके बावजूद उसे पुरुषों की तुलना में कम मज़दूरी दी जाती है.

इस संबंध में, सामाजिक कार्यकर्ता नीलम ग्रैंडी का कहना है कि हमारे समाज में आज भी जहां महिलाओं को लेकर बड़ी बातें होती हैं, नारी सशक्तिकरण का नारा दिया जाता है, औरत जगत जननी है, वह कमज़ोर नहीं है, आदि बड़ी बड़ी बातें की जाती हैं. लेकिन सही मायने में आज भी महिलाओं को बहुत कुछ सहना पड़ता है और समाज मौन रहता है. नीलम कहती हैं कि इसके पीछे सबसे बड़ी वजह स्वयं ग्रामीण महिलाओं का अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं होना है. गांव की तुलना में शहर की महिलाएं और किशोरियां अपने अधिकारों को जानती हैं, यही कारण है कि गांव की तुलना में शहरों में महिलाओं पर अत्याचार कम होते हैं. यदि किसी कारण वह हिंसा का शिकार होती भी है तो खुलकर इसके खिलाफ आवाज़ उठाती है. नीलम ग्रैंडी कहती हैं कि महिलाओं के विरुद्ध अत्याचार के खिलाफ स्वयं महिलाओं को ही आवाज़ उठानी होगी. दूसरी ओर समाज को भी समझना होगा कि संविधान में सभी को बराबरी का हक़ है. वक्त बदल रहा है ऐसे में अब पितृसत्तात्मक समाज को भी अपनी सोच बदलनी होगी. सवाल यह उठता है कि जब नैतिकता और परंपरा यदि समाज को सही दिशा में ले जाने के लिए है, तो फिर पुरुषों पर भी इसे सख्ती से लागू क्यों नहीं की जाती है? (चरखा फीचर)



- तानिया
चोरसौ, गरुड़,उत्तराखंड
लेखिका सुमित्रानंदन पंत राजकीय महाविद्यालय गरुड़ में स्नातक प्रथम वर्ष की छात्रा है.

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