मुंशी प्रेमचंद का हिन्दी साहित्य में योगदान

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मुंशी प्रेमचंद का हिन्दी साहित्य में योगदान प्रेमचन्द जी के उपन्यास व कहानियाँ तत्कालीन समाज की समस्याओं से सम्बन्धित हैं और उनके पात्र हमारे बीच में

मुंशी प्रेमचंद का हिन्दी साहित्य में योगदान


मुंशी प्रेमचंद जी का हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है। प्रेमचन्द का जन्म 31 जुलाई सन् 1880 ई., को काशी से 5 किमी. दूर लमही नामक गाँव के एक कायस्थ परिवार में हुआ था। प्रेमचन्द का बचपन का नाम धनपतराय था। इनके पिता डाकखाने में नौकरी करते थे और उन्हें मात्र 20 रुपया महीना वेतन मिलता। इनकी माता की मृत्यु के बाद इनके पिता ने पुनः विवाह कर लिया। इनकी सौतली माँ इन्हें स्नेह नहीं करतीं थीं। इस प्रकार प्रेमचन्द का जीवन प्रेम एवं सुख-सुविधाओं से हीन था । 

प्रेमचन्द की माँ आनन्दी देवी अत्यन्त मधुर स्वभाव की थीं। प्रेमचन्द को अपनी माँ से बहुत लगाव था। जीवन की सुख-सुविधाओं से वंचित और अभावों से अभिशप्त प्रेमचन्द को संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य होना पड़ा। इस संघर्ष ने प्रेमचन्द के भावुक हृदय को साहित्यिक और सृजनात्मक रचनाओं के लिए तैयार कर दिया।
 
जब प्रेमचन्द पन्द्रह वर्ष के हुए तब इनके पिता का भी देहावसान हो गया और इनका विवाह एक ऐसी स्त्री के साथ हो गया जो इनके जीवन आदर्शों में खप न सकी। पिता की के बाद सौतेली माँ और दो सौतेले भाइयों के पालन-पोषण का भार भी इन पर आ मृत्यु गया। कुछ समय बाद इनकी पत्नी भी इन्हें छोड़कर चलीं गई। 

मुंशी प्रेमचंद का हिन्दी साहित्य में योगदान
स्वभाव से परिश्रमशील और मनस्वी होने के कारण प्रेमचन्द ने विपत्तियों के आगे न झुककर अपना अध्ययन जारी रखा। स्वाध्याय से उनमें विद्या के प्रति रुचि जाग उठी तथा ज्ञान का क्षेत्र बढ़ने लगा। सन् 1904 ई., में इलाहाबाद ट्रेनिंग कॉलेज से जे. टी. सी. की परीक्षा उत्तीर्ण की और एक विद्यालय में अध्यापक हो गये । यहाँ कार्य करते हुए उन्होंने स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की और उसी विद्यालय में प्रधानाध्यापक हो गये। अपनी योग्यता और परिश्रम के बल पर 1908, में अध्यापक से उन्नति करते हुए डिप्टी इंस्पेक्टर हो गये तथा उनकी बदली हमीरपुर हो गयी।
 
इन्होंने शिवरानी नामक एक बाल-विधवा से दूसरा विवाह भी किया। शिवरानी साहित्यिक रुचि वाली महिला थीं तथा कभी-कभी कहानियाँ भी लिखती थीं। अतः प्रेमचन्द दूसरी पत्नी से बहुत सन्तुष्ट थे। शिवरानी के निश्छल प्रेम से उनका सारा पारिवारिक जीवन सदा-सदा के लिए खुशियों से भर गया।
 
सन् 1920 ई., में महात्मा गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन से प्रभावित होकर बीस वर्ष की नौकरी पर लात मार दी। इसके बाद महावीर प्रसाद पोद्दार से मिलकर गोरखपुर में चरखों और करघों की दुकान खोली। बाद में कानपुर के एक मारवाड़ी विद्यालय में मुख्याध्यापक बने किन्तु यहाँ भी अधिक दिन न रह सके। डेढ़ वर्ष तक 'माधुरी' पत्रिका के सम्पादक रहे। फिर 125 रुपये मासिक पर काशी विद्यापीठ में अध्यापक रहे। इसके बाद नौकरी छोड़कर लमही में साहित्य साधना में जुट गये।

प्रेमचंद का व्यक्तित्व एवं स्वभाव

प्रेमचन्द जी का व्यक्तित्व भारतीय परिवेश से ओत-प्रोत था। आप स्वभाव से अत्यन्त सरल और उन्मुक्त थे । आकृति से भी पूर्ण रूप से भारतीय थे। पतला गौरवर्ण शरीर, बड़ी-बड़ी आँखें और बड़ी-बड़ी मूँछें थीं। आजीवन साहित्य सृजन में तल्लीन रहने वाले प्रेमचन्द अभावग्रस्त रहे-कारण उनकी व्यवसाय रहित बुद्धि थी।
 
प्रेमचन्द जी स्वभाव से बड़े विनोदप्रिय और हँसोड़ थे। उनकी उन्मुक्त हँसी (ठहाका लगाकर हँसना) की अनेक विद्वानों, मित्रों तथा प्रशंसकों ने प्रचुर चर्चा की है। प्रेमचन्द जी का पारिवारिक, सामाजिक एवं मानवीय व्यक्तित्व महान था । उनकी सामाजिक चेतना उनके पात्रों के रूप में प्रस्फुटित हुई है।
 

प्रेमचन्द की साहित्य साधना

बचपन से ही प्रेमचन्द जी को अंग्रेजी और उर्दू के उपन्यास पढ़ने का शौक था। दुर्भाग्य से उस समय हिन्दी में अच्छे मौलिक उपन्यासों का अभाव था। ऐसे समय में प्रेमचन्द जी ने हिन्दी साहित्य की उपन्यास विधा को बढ़ाया। प्रेमचन्द जी ने उपन्यास लिखना 1901, में प्रारम्भ कर दिया। उनका एक उपन्यास समृद्ध करते हुए आगे 1902, में तथा दूसरा 1904, में निकला। 1903, में उन्होंने एक प्रहसन लिखा । गल्प लिखना 1907, में प्रारम्भ किया। 'संसार का सबसे अनमोल रत्न' उनकी पहली कहानी 'जमाना' नामक उर्दू पत्र में छपी। 'पंच परमेश्वर' कहानी शिवरानी से विवाह के बाद प्रकाशित हुई। देश-प्रेम की भावना से ओत-प्रोत उनका एक कहानी संग्रह 1907 ई., में 'सोजे वतन' नाम से छपा। इस पर उन्हें जिलाधीश की ओर से धमकी दी गयी और सारी प्रतियाँ जब्त कर ली गयीं। तब 'जमाना' पत्र के सम्पादक मुंशी दयानारायण निगम ने प्रेमचन्द नाम से हिन्दी में लिखने का परामर्श दिया। 

प्रेमचंद की प्रमुख रचनाएँ

आपके सम्पूर्ण साहित्य को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत विभाजित किया जा सकता है- 
उपन्यास- (1) प्रेमा, (2) वरदान, (3) प्रतिज्ञा, (4) सेवासदन, (5) प्रेमाश्रम, (6) निर्मला, (7) कर्मभूमि, (8) रंगभूमि, (9) कायाकल्प, (10) गबन, (11) गोदान, (12) मंगलसूत्र (अपूर्ण) । 

प्रेमचन्द लिखित ये सभी उपन्यास समाज में व्याप्त किसी न किसी बुराई या समस्या को प्रस्तुत करते हैं। सन् 1902 से लेकर सन् 1936 की अवधि के मध्य लिखे गये इन उपन्यासों में उस समय के समाज में व्याप्त कुरीतियों और समस्याओं का खुलकर वर्णन किया गया है। प्रेमचन्द लिखित 'सेवासदन' वेश्याओं की समस्या पर, 'प्रेमाश्रय' किसानों और जमींदारों के संघर्ष पर, 'निर्मला' अधेड़ उम्र के व्यक्ति से विवाह (बेमेल विवाह) पर, 'रंगभूमि' वेश्याओं को सामाजिक सम्मान दिलाने के सम्बन्ध में, 'कायाकल्प' पुनर्जन्म जैसी धारणाओं पर, 'गबन' पैसा प्रधान समाज में रिश्वत व गबन को प्रोत्साहन देने पर, 'गोदान' जमींदारों और महाजनों द्वारा किसानों के शोषण पर तथा 'प्रतिज्ञा' एक विधुर द्वारा कुँवारी कन्या से विवाह न करना जैसी सामाजिक समस्याओं पर आधारित हैं। उनके अधिकांश उपन्यास निम्न एवं मध्यम वर्ग के जीवन एवं उनसे जुड़ी समस्याओं पर आधारित हैं। उन सभी में किसी न किसी प्रकार का संदेश अवश्य है। 

नाटक - (1) कविता, (2) संग्राम, (3) प्रेम की वेदी । 
कहानी - (1) प्रेम-पूर्णिमा, (2) प्रेम-पचीसी (3) प्रेम-प्रसून, (4) प्रेम-तीर्थ, (5) प्रेमद्वादशी, (6) प्रेरणा, (7) सप्तसरोज, (8) पाँच फूल, (9) नव निधि, (10) ग्राम्य जीवन की कहानियाँ, (11) नारी जीवन की कहानियाँ, (12) मानसरोवर, (13) कफन, (14) अग्नि-समाधि, (15) समर - यात्रा । 
निबन्ध – (1) कुछ विचार, (2) मौ. शेखसादी, (3) तलवार और त्याग । 
अनुवाद-ग्रन्थ (1) न्यास, (2) हड़ताल, (3) अहंकार, (4) चाँदी की डिबिया, (5) सुखदास, (6) फिसाने आजाद, (7) सृष्टि का आरम्भ । 
बाल-साहित्य- (1) कुत्ते की कहानियाँ, (2) टालस्टाय की कहानियाँ, (3) जंगल की कहानियाँ, (4) मनमोदक, (5) लालची। 
पत्र-पत्रिकाएँ—(1) जागरण, (2) हंस। 

प्रेमचन्द जी के उपन्यास व कहानियाँ तत्कालीन समाज की समस्याओं से सम्बन्धित हैं और उनके पात्र हमारे बीच में से ही चुने गए हैं। इसलिए वे सजीव और जीवन्त दिखाई देते हैं। उनकी साहित्य साधना का उद्देश्य समाज और देश का सुधार करना था। इसीलिए वे आदर्शोन्मुख यथार्थवादी थे, परन्तु जब उन्होंने देखा कि इन सुधारों का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है। तब 'गोदान' उपन्यास और 'कफन' कहानी में वे यथार्थवादी हो गये। वे हिन्दी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार माने जाते हैं। उन्हें 'उपन्यास सम्राट' की उपाधि से विभूषित किया गया है। उनकी लोकप्रियता की साक्षी उनकी कहानियों और उपन्यासों पर बनी हुई कई फिल्में हैं। इनके उपन्यास पाठकों के हृदय पर अमिट छाप छोड़ते हैं। 

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