प्रेमचंद के बाद हिन्दी कहानी का विकास | प्रेमचंदोत्तर हिंदी कहानी

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प्रेमचंद के बाद हिन्दी कहानी का विकास प्रेमचंदोत्तर हिंदी कहानी हिंदी कहानी का विकास क्रम Hindi Kahani ka vikas Quick rivision notes Munshi Premchand

प्रेमचंद के पश्चात हिन्दी कहानी का विकास


प्रेमचंद के बाद हिन्दी कहानी का विकास प्रेमचंदोत्तर हिंदी कहानी हिंदी कहानी का विकास क्रम Hindi Kahani ka vikas Quick rivision notes Munshi Premchand - प्रेमचन्द के बाद के भारत की आज तक सम्पूर्ण विषम स्थितियाँ ज्यों की त्यों हैं। इतना अन्तर अवश्य हुआ है कि शासक की चमड़ी काली हो गयी है। सामन्त और महाजन अब पूँजीपति के नाम से जाने जाते हैं। प्रेमचन्द जिस आर्थिक मुक्ति के लिए संघर्षरत रहे वह अर्थतन्त्र और भी बलिष्ठ एवं जटिल होता गया है। प्रेमचन्द की प्रासंगिकता दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही है। प्रेमचन्द के चलाये संघर्ष को आगे बढ़ाकर ही हम उनकी विरासत के दावेदार हो सकते हैं। प्रेमचन्द के परवर्ती कहानीकारों में ईमानदार और साहित्यकार की जिम्मेदारी को वहन करने वाले कहानीकार प्रेमचन्द के संघर्ष को आगे बढ़ाने में बराबर सचेष्ट रहे हैं, जबकि प्रेमचन्द के बाद का कहानी इतिहास भटकावों से भरा हुआ है। भटकाव न कहकर हम यह कहें तो उचित होगा कि प्रेमचन्द की परम्परा पर बराबर हमले हुए। ये हमलावर प्रभुवर्गीय बनुआ कथाकार थे। ऐसे घृणित लोगों का नाम भी लेना हिन्दी कथाधारा को दूषित करना होगा। ऐसे अवसरवादियों की कतार लम्बी है, हो भी क्यों न ? वास्तव में ये लेखनजीवी लोग हैं। कोई निम्नकोटि का आलोचक ही इनकी मर्दुमशुमारी कहानीकारों में कर सकता है। 

प्रेमचन्द की परम्परा

प्रेमचंद के बाद हिन्दी कहानी का विकास | प्रेमचंदोत्तर हिंदी कहानी
लेखनजीवी बेचारे रोजी-रोटी और अपने कैरियर के लिए साहित्य के नाम पर हो-हल्ला मचाते हैं, जैसे लोग धर्म के नाम पर भीख माँग लेते, हैं, महल खड़ा कर लेते हैं वही इनकी हालत है। शोषक व्यवस्था ने ऐसे लेखकों को अपने लाभ के लिए इस्तेमाल किया। अपने प्रचार-प्रसार के साधनों से इन्हें प्रचारित किया ताकि सही साहित्य सामने न आ सके, नहीं तो उसके सिंहासन के नेस्तनाबूत हो जाने का खतरा है। व्यवस्था की तरफदारी ऐसे लेखन जीवियों की जीविका है। ऐसे तथाकथित लेखक सरकार और पूँजीपतियों के दलाल हैं, मानवता द्रोही हैं। ऐसे लेखन जीवियों को कोई व्यवस्था का दलाल आलोचक ही लेखक का दर्जा दे सकता है। 

प्रेमचन्द के बाद उनके संघर्ष को आगे बढ़ाने वालों में पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' का ही नाम सर्वप्रथम आता है। यद्यपि प्रेमचन्द के आलोचनात्मक यथार्थवाद से 'उग्र' की कहानियाँ भिन्न शिल्प और शैली लेकर चलती हैं लेकिन लक्ष्य दोनों का एक ही था। 'उग्र' का विद्रोह साम्राज्यवाद एवं व्यवस्था के खिलाफ था। उग्र प्रथम राजनीतिक कहानी लेखक थे। उनकी राष्ट्रीय कहानियों की उपेक्षा नहीं की जा सकती। उनकी' चिनगारियाँ', 'क्रान्तिकारी कहानियाँ' और 'पंजाब की महारानी' तीन कहानी-संग्रह देशभक्ति एवं क्रान्तिकारी भावना व्यक्त करने वाले युगान्तकारी कहानी-संग्रह है- जो तत्कालीन गोरी सरकार द्वारा समय-समय पर जब्त कर लिये गये थे। इनमें क्रान्ति एवं देशभक्ति सशक्त रूप से चित्रित है। 'दोजख' की आग कहानी-संग्रह की कहानियाँ साम्प्रदायिकता का सशक्त विरोध करती हैं। 'मूसल ब्रह्म', 'सुधारक', 'ईश्वरद्रोही' आदि धार्मिक आडम्बरों पर चोट करती हैं। 'नेता का स्थान', 'चित्र-वित्रित्र' आदि में स्वदेशी नेताओं के शोषण व लूट को उकेरा गया है। आश्चर्य है कि 'उग्र' की इतनी उपेक्षा क्यों हुई। पूँजीवादी दलाल उन्हें घासलेटी साहित्यकार कहेंगे ही, लेकिन जवाबवादी कहानी आलोचकों की चुप्पी का क्या अर्थ है? क्या 'कला का पुरस्कार' यही है। 

दलितों- पीड़ितों के लिए प्रेमचन्द की जलाई मशाल को आगे ले जाने में 'उग्र' के बाद यशपाल, राहुल, चन्द्रकिरण सौनरिक्सा और रांगेय राघव ने यथाशक्य भागीदारी की। इन जनवादी कथाकारों के बाद सन् 1955 तक प्रेमचन्द की कथाधारा अवरुद्ध-सी जान पड़ी, लेकिन इसी समय जनवादी कहानियों में एक नया उभार आया, जिसका अधिकांश श्रेय भैरव प्रसाद गुप्त को जाता है। उन्होंने 'कहानी' और 'नयी कहानियाँ' के सम्पादक की हैसियत से प्रेमचंदीय लड़ाई को आगे बढ़ाने वाली प्रतिभाओं का मार्गदर्शन किया। 

भैरवप्रसाद गुप्त, मार्कण्डेय, शैलेश मटियानी, शिवप्रसाद सिंह, अमरकांत, हरिशंकर परसाई, भीष्म साहनी ऐसे कथाकारों में अग्रणी रहे। इसी समय तथाकथित 'नई कहानी' आन्दोलन वालों ने बड़ा हल्ला मचाया। 'नई कहानी' ने आन्दोलनों के माध्यम से कहानीकार बन जाने का रास्ता खोल दिया। अत: सन् 1970 तक आन्दोलनों की बाढ़ रही और यह बाढ़ उतरने के साथ अपने आन्दोलनकारियों को बहा ले गयी। वास्तव में ये आन्दोलन लेखनजीवियों द्वारा जनवादी कथाधारा पर हमले के तहत उभरे। प्रेमचन्द की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले कहानीकारों को बल प्रदान करने के लिए और इन हमलों का सामना करने के लिए सन् 1962 के आसपास संघर्षशील युवा कहानीकार अगले मोर्चे पर तैनात हो गये। प्रेमचन्द - परम्परा के इन कहानीकारों में इसराइल, नीलकांत, सतीश जमाली, मधुकर सिंह आदि प्रमुख हैं। 

प्रगतिशील लेखन

1970 के बाद प्रेमचन्द द्वारा शुरू की गयी लड़ाई और भी तेज हुई है। इस लड़ाई में विजेन्द्र, अनिल, विजयकांत आदि शरीक हुए हैं। लेकिन देखना है कि अंत तक कौन इस संघर्ष में डटा रहता है क्योंकि स्थापित होने के बाद लेखक के प्रभुवर्ग में शरीक हो जाने का बड़ा खतरा बना रहता है और ऐसे लोग बड़े खतरनाक होते हैं। कुछ लोग आज जनवाद को भी भुना रहे हैं। वे केवल पार्टी की वकालत करके प्रगतिशील कहानीकार कहलाने लगे हैं। जैसे ज्ञानरंजन ने एक भी प्रगतिशील कहानी नहीं लिखी, लेकिन उनकी भी मर्दुमशुमारी प्रगतिशील कहानीकारों में होती है। सवाल उठता है कि क्या पार्टी की सदस्यता से ही कचरा लेखक प्रगतिशील हो जाता है। प्रेमचन्द ने इस स्थिति को स्पष्ट किया है- "साहित्य राजनीति के पीछे चलने वाली चीज नहीं, उससे आगे चलने वाला 'एडवांस गार्ड' है। वह उस विद्रोह का नाम है जो मनुष्य के हृदय में अन्याय, अनीति और कुरुचि से होता है।" 

प्रेमचंद के साहित्य से प्रेरणा 

जब तक आर्थिक मुक्ति का सवाल बना रहेगा, तब तक हमें प्रेमचन्द से प्रेरणा लेनी पड़ेगी। प्रेमचन्द्र से जुड़ने का मतलब जनसामान्य की तरफदारी है। उनके निर्मित मार्ग पर नयी पीढ़ी निर्भयता से आगे बढ़ सकती है- प्रेमचन्द आज भी हमारे गुरु हैं, कल भी रहेंगे।

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