पर्वों का बदलता स्वरूप पर निबंध || The Changing Nature of Indian Festivals

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पर्वों का बदलता स्वरूप पर निबंध The Changing Nature of Indian Festivals त्योहारों का बदलता स्वरूप भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग भौतिकवाद मानव जीवन

पर्वों का बदलता स्वरूप पर निबंध


र्व का अर्थ है किसी विशेष अवसर पर होने वाला सामाजिक आयोजन। किसी भी जाति के पर्व उस जाति के सुख-दुख और पहचान को प्रकट करते हैं। ये पर्व समाज के लोगों में उत्साह और आनंद का संचार करते हैं। 

धार्मिक और राष्ट्रीय पर्व 

पर्वों का बदलता स्वरूप पर निबंध || The Changing Nature of Indian Festivals
भारत बहुत प्राचीन देश है। इसलिए इस धरती पर मनाए जाने वाले आयोजन भी विविध हैं। भारत के लोग धर्मप्रिय हैं। इसलिए यहाँ अनेक धार्मिक त्योहार मनाए जाते हैं। होली, दीपावली, जन्माष्टमी, दशहरा, ईद, क्रिसमिस आदि यहाँ के मुख्य धार्मिक त्योहार हैं। स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस यहाँ के दो प्रमुख राष्ट्रीय उत्सव हैं। 

परंपरागत तरीके

प्रत्येक त्योहार को मनाने की एक परंपरा होती है। जैसे दशहरे के दिन रावण का पुतला जलाया जाता है। दीवाली के दिन घर-घर में रोशनी की जाती है। होली के दिन रंगों से खेला जाता है। जन्माष्टमी के दिन कृष्णलीलाएँ खेली जाती हैं। ईद के दिन और क्रिसमिस की रात खूब आनंदोत्सव मनाया जाता है। ये परंपरागत तरीके आज भी ज्यों की त्यों प्रचलित हैं। परंतु समय के साथ जैसे हमारी जीवन-शैली में बदलाव आता जा रहा है, उसी प्रकार त्योहारों में भी बदलाव आ रहा है। 

बाज़ार का बढ़ता प्रभाव 

आज बाज़ारवाद का युग है। भावनाओं का स्थान व्यापार ने ले लिया है। पहले घर, परिवार और सामाजिक संस्थाएँ पर्व को मनाने के बारे में सोच-विचार किया करती थीं। आज बड़े-बड़े व्यापार और उद्योग पर्वों की दिशा तय करते हैं। दीवाली में जलने वाले दीयों का स्थान अब चीन में बनने वाली लड़ियों ने ले लिया है। मिट्टी के दीये और घी-तेल अब बीते जमाने की बातें हो गई हैं। कार्ड, मोबाइल-संदेश, होटलों में भोजन अब आम होते जा रहे हैं। सभी त्योहारों का स्वरूप अब एक जैसा हो गया है-खाना-पीना, नाचना और पार्टी करना। इस कारण पर्वों का प्रभाव और स्वभाव बदल गया है। वे अपने मूल स्वभाव से दूर हो गए हैं। 

पाश्चात्य पर्वों की स्वीकृति 

समय के साथ एक परिवर्तन और आया है। हम पाश्चात्य रंग-ढंग में ढलने लगे हैं। हम भारतीय अपने पर्वों की जगह पश्चिमी पर्वों को अधिक महत्त्व देने लगे हैं। स्कूलों में दीवाली मनाएँ या न मनाएँ, परंतु मदर डे, फादर-डे, न्यू ईयर, वेलइनटाईन डे जरूर मनाते हैं। यह प्रवृत्ति जहाँ ग्लोबल-गाँव की कल्पना को साकार करती है, वहीं अपनी ज़मीन से उखड़ने का खतरा भी पैदा करती हैं। जब भी अनेक संस्कृतियाँ आपस में मिलती हैं, तो उनमें आदान-प्रदान तो होता ही है। 

समय का अभाव 

एक बात और देखने में आई है। आज लोगों के पास समय का अभाव है। अतः वे त्योहारों को मनाने के लिए भी उत्सुक नहीं दिखाई देते। एक समय था, जब पूरा गाँव महीना भर रंगों से खेला करता था। लोग एक मास तक रात-रात भर रामलीलाएँ देखा करते थे, परंतु अब किसी के पास समय नहीं है। कोई पढ़ाई में व्यस्त है तो कोई. टी.वी. देखने में। यह मानव-जीवन के लिए हादसे के समान है। उत्सव के लिए निकाला गया समय औषधि के समान होता है।अतः उसके लिए समय निकलना ही चाहिए। 




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