हम इतने कमजोर क्यों है ?

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चीन में अफीम खिलाकर ब्रिटेन के व्यापारियों ने महान देश को इतना कमज़ोर कर दिया कि एक समुद्री बेड़े के सामने महान साम्राज्य को घुटने टेकने पड़े।

हम इतने कमजोर क्यों है ?


चीन में अफीम खिलाकर ब्रिटेन के व्यापारियों ने महान देश को इतना कमज़ोर कर दिया कि एक समुद्री बेड़े के सामने महान साम्राज्य को घुटने टेकने पड़े। इससे निकलने में सौ साल लगे उस महान देश को! 

शक्तिशाली पुरुष भी भीतर ही भीतर खोखला हो सकता है।अमृतलाल नागर ने सुहाग के नुपुर में कोवलन का चरित्र रखा है जो अपना पौरुष खो देता है।औपनिवेशिक काल में एक नई बीमारी ने कुछ लोगों को दे दी। ये वर्ग है दिमाग के बूते सुख सुविधा का जीवन जीने की। दो चीजें चाहिए थी। अंग्रेजों ( सत्ता) के साथ खड़े होने की और बुद्धिमानी से अपना काम करने की। दया माया धरम उसके बाद की बात हो गई।

सत्ता का समीकरण

हम इतने कमजोर क्यों है ?
जिन जमींदारों को यह समीकरण समझ में नहीं आया वे खत्म हुए और नए जमींदार आए। कुशल कारीगर मरते गए और अंग्रेजों के बाजार के हिसाब से चलने वाले सप्लायर और मध्यस्थ बड़े होते गए।...देश का पूरा चरित्र ही बदल गया अठारहवीं शताब्दी के अंत से उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक।उसके बाद इन नए बड़े लोगों की संतानों ने मोर्चा संभाला। जमींदारों के ये भीतरी दुश्मन भी बेसिक  समीकरण का ध्यान रखते थे। ये अंग्रेजों से बिगाड़ नहीं करते थे और दिमाग का इस्तेमाल करके खूब धन कमाते थे। बड़े बड़े वकील और अफसर भी बने।कालांतर में इसके साथ बाबू क्लास, शिक्षक और डॉक्टर क्लास भी आ जुड़ा और भारतीय मध्य वर्ग बन गया।जो मध्य वर्ग पनपा वह अंग्रेज का भीतर मन से विरोध नहीं कर रहा था उससे जल रहा था। बाद में इस जलन ने एक सांगठनिक रूप लिया। बुद्धि तो पहले से ही थी ही देश को ही अपने पीछे खड़ा कर लिया।देश आजाद हुआ और यह वर्ग सत्ता में आ गया।

सर्विस क्लास बनने से फायदे ही फायदे हैं यह अब कॉमन सेंस हो गया। अब सर्विस ही सब सुख देगा। ...1990 के बाद इस सर्विस क्लास को अच्छी सैलरी भी मिलने लगी ताकि वे मगन रहें और देश बाजार के हिसाब से बदलता रहे।पहली तारीख की पगार से बंधा जीवन क्या सामाजिक परिवर्तन का पक्षधर हो सकता है ? आज स्थिति यह है कि जब तक सर्विस क्लास में नाम न लिखे तभी तक परिवर्तन की लड़ाई। उसके बाद सिर्फ बातें ही बातें!

सर्विस क्लास का स्वार्थ

सर्विस क्लास बातों का धनी है और सिर्फ अपने परिवार और अपने प्रेमी प्रेमिका के लिए जीता मरता है। वह अंधा हो गया है। उसके सामने समाज को तबाह किया जाता रहा और वह खीजता रहा कि उसकी आमदनी इतनी क्यों नहीं कि वह भी उड़ सके, इंजॉय कर सके, उस लाइफ स्टाइल को अपना सके जो बड़े लोगों को मिलता है।अच्छी सैलरी देकर शिक्षक और पत्रकार के पेन की निब पर दबाव बना दिया गया! अब जब सिर पर से पानी गुजरने को आ रहा है कोवलन खड़ा होकर अपनी बीवी को मारने खड़ा भी होगा तो अब उसमें वह पौरुष बचा ही नहीं कि उसका कोई प्रभाव पड़ सके! सत्तर के दशक तक लोग रोटी कपड़ा और मकान के लिए संघर्ष को असली संघर्ष मानते थे। अब अधिकतर लोगों को यह सब मिल जाता है पर भूख दस गुनी हो चुकी है! सुख सुविधा की भूख इतनी बढ़ गई है कि पूछिए मत।

रोटी, कपड़ा और मकान के बाद एक शिक्षित के लिए बस इतना चाहिए जो इस ट्रे में है। बस इतना ही चाहिए।इससे ऊपर जाओगे तो समझौते करने पड़ेंगे, झुकना पड़ेगा और यही ट्रेंड चलता रहेगा तो बिकना पड़ेगा।अब बाई जी और बीवी की लड़ाई नहीं है। अब बाई जी का घर में खूब आना जाना है, उसकी रिस्पेक्ट है और बच्चे भी उनसे ही ज्यादा घुले मिले हैं। दूसरी तरफ अंकल का भी घर में खूब मान है। अंकल के आने पर पहले बच्चे महसूस करते थे कि पापा की नजर झुक जाती थी। अब तो पापा भी एक विचित्र सी हंसी देते हैं।सब मगन हैं।सोच रहे हैं हम आगे बढ़ रहे हैं।...आग लगे ऐसे आगे बढ़ने को!गांधी का चश्मा उतारो, उसको पहन लो। एक रास्ता यही नहीं, पर यह भी एक रास्ता है। झोला उठाओ, चल पड़ो ...!कहां ?मालूम नहीं।

मिल जुल कर कोई रास्ता निकालना जरूरी है।


- हितेंद्र पटेल

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