जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना

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जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना का शुभारंभ वर्ष 2008 से किया गया है जिसका उद्देश्य जनता के प्रतिनिधियों, सरकार की विभिन्न एजेंसियों, वैज्ञानि

जलवायु परिवर्तन से प्रभावित होते इंसान और जानवर


र्तमान समय में जलवायु परिवर्तन वैश्विक समाज के सक्षम मौजूद सबसे बड़ी चुनौती है. साथ ही इससे निपटना इस समय सबसे बड़ी आवश्यकता बन गयी है. जलवायु परिवर्तन हर रूप में अपने प्रभावों से समाज के हर वर्ग को प्रभावित करता है. सामान्यतः देखा जाए तो जलवायु का आशय किसी क्षेत्र में लम्बे समय तक औसत मौसम से होता है यदि औसत मौसम में परिवर्तन आ जाता है तो उसे जलवायु परिवर्तन कहा जाता है. पृथ्वी का तापमान पिछले 100 वर्ष में 1 डिग्री फारेनहाइट तक बढ़ गया है जो पृथ्वी के तापमान में यह परिवर्तन संख्या की दृष्टि से काफी कम हो सकता है पर इसका सबसे अधिक प्रभाव मानव से लेकर जीव जन्तु और वनस्पति तक देखने को मिलता है.

पिघलते हिमनद की बात अक्सर कही जाती है पर कभी हम सोचते हैं कि हिमनदों के पिघलने का प्रभाव और कहां-कहां देखने को मिलेगा? हिमनद पिघलने से बाढ़ का खतरा उत्पन्न होगा जो अपने मार्ग के बीच में आने वाले गांवों के बहा देंगे, महासागरों में जल स्तर पर वृद्धि साथ ही कई द्वीपों के डूबने का खतरा बढ़ जायेगा. जलवायु परिवर्तन के कारणों पर बात की जाए तो ग्रीन हाउस गैसों के साथ भूमि प्रयोग में परिवर्तन व शहरीकरण प्रमुख है. भूमि के प्रयोग से मतलब है वाणिज्यिक या निजी प्रयोग हेतु वनों की कटाई जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण है. पेड़ सिर्फ पानी छाया देने का कार्य ही नहीं करते वरन यह कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैस को अवशोषित करते हैं.

जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना
पर्वतीय क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन का प्रहार बढ़ रही गर्मी, फसल चक्र में हो रहे परिवर्तन, उत्पादानों के समय में परिवर्तन साथ ही जंगलों में लगने वाली आग के रूप में महसूस किया जा सकता है. शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के कारण लोगों के जीवन जीने के तौर-तरीकों में काफी परिवर्तन आया है. सड़कों पर वाहनों की संख्या काफी अधिक हो गयी है. जीवन शैली में परिवर्तन ने खतरनाक गैसों के उत्सर्जन में काफी अधिक योगदान दिया है. इस संबंध में अल्मोड़ा के युवा हरीश सिंह बहुगुणा बताते हैं कि पर्वतीय क्षेत्रों में पेड़ों के कटान चोरी चुपके होते रहते हैं. वहीं बाज के पेड़ जो पर्वतीय परिवेश के लिए अत्यन्त ही आवश्यक है विलुप्ति की ओर अग्रसर होने लगा है. जिसका एक प्रमुख कारण है पहाड़ों में चीड़ का विस्तार. चीड़ तापमान वृद्धि के साथ पहाड़ी क्षेत्रों में आग लगने का सबसे बड़ा कारण भी है.

आलम तो ऐसा होता है यदि आप चीड़ के जंगलों के बीच से निकलते है तो गर्मी के प्रकोप से पसीने से नहा लेते हैं. वहीं हर वर्ष चीड़ के जंगलों में भीषण आग लगती है जिससे जीव जन्तु के नुकसान के साथ फसल व अन्य वनस्पति का नुकसान देखने को मिलता है. पावर प्लांट, ऑटोमोबाइल, वनों की कटाई व अन्य स्रोतों से होने वाले ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण पृथ्वी को अपेक्षाकृत काफी तेजी से गर्म कर रहा है. पिछले 150 वर्षो में वैश्रिवक औसत तापमान लगातार बढ़ रहा है. यदि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के विषय को गम्भीरता से नहीं लिया गया और इसे कम करने का प्रयास नहीं किये गये तो पृथ्वी की सतह का औसत तापमान 3 से 10 डिग्री फारेनहाइट तक बढ़ जायेगा. पिछले कुछ दशकों में बाढ़, सूखा व बारिश आदि की अनियमितता काफी अधिक बढ़ गई है कही बहुत अधिक वर्षा हो रही है तो कही सूखे की सम्भावना बन गई है.

इसका प्रभाव न केवल मनुष्य बल्कि पशुओं पर भी देखने को मिल रहे हैं. मौसम में गर्मी के बढ़ने व सर्द मौसम दोनों का हमारे जानवरों पर प्रभाव होता है. अधिक गर्मी के चलते अक्सर जानवरों को हाँफते व उनके मुँह से लार गिरते देखा है पर इसके साथ पशुओं के रूमेन कार्य क्षमता में गिरावट होने से कई बिमारियों का प्रहार भी होता है. इस संबंध में ओखलकाण्डा के दिनेश सुयाल बताते हैं कि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मौसम परिवर्तन का असर जानवरों के स्वास्थय, शारीरिक वृद्धि और उनके उत्पादकता पर अधिक पड़ता है. मौसम में होने वाले तनावों से उनकी प्रजनन क्षमता कम हो जाती है. गर्भधारण दर में काफी कमी हो जाती है साथ ही जानवरों में थनैला रोग, गर्भाशय में सूजन व अन्य बीमारियों के जोखिम में वृद्धि हो जाती है. पशु चिकित्सक डाॅ संतोष कुमार बुधानी बताते हैं कि अत्यधिक गर्मी जानवरों में जो तनाव बनाती है उसे उष्मीय तनाव कहा जाता है. जिसमें जानवरों के शरीर में बाइकार्बोनेट तथा आयनों की कमी से रक्त की पीएच कम हो जाती है. इस तनाव में जानवरों के शरीर का तापमान 102 से 103 डिग्री फाहरेनहाइट तक बढ़ जाता है जिससे दुग्ध उत्पादन, दूध वसा, प्रजन्न क्षमता के साथ प्रतिरक्षा प्रणाली में कमी हो जाती है.

जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना का शुभारंभ वर्ष 2008 से किया गया है जिसका उद्देश्य जनता के प्रतिनिधियों, सरकार की विभिन्न एजेंसियों, वैज्ञानिकों, उद्योग और समुदाय को जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न खतरे और उससे मुकाबला करने के उपायों के बारे में जागरूक करना है. इस कार्य योजना में 8 मिशन शामिल हैं. समुदाय को जागरूक होने की आवश्यकता है हम सचेत होगें तो निश्चित् रूप से परिवर्तन की रफतार में कमी आयेगी क्योकि रफतार को बढ़ाने के लिए हम स्वयं ही जिम्मेदार हैं. (चरखा फीचर)




- गिरीश बिष्ट
रुद्रपुर, उत्तराखंड

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