उधार की ज़िंदगी | हिंदी कहानी

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उस बात को अब दो तीन महीने बीत चुके थे। मोहन ने उस दिन के लिए मुझसे माफ़ी भी मांग ली थी और मैंने अपनी प्रकृति के अनुसार उसे माफ भी कर दिया था।

उधार की ज़िंदगी


रात का समय था। मैं अभी अभी दफ़्तर से लौटा था। काफी थक गया था सो, मैंने कुछ देर आराम किया और फिर तय समय पर गली के नुक्कड़ पर बैठे मित्रों से गपशप के लिए निकल गया। वहां पहुंचा तो देखा की वातावरण काफी गंभीर बना हुआ है, मैंने पूछा–“क्या हुआ भाइयों! मुंह क्यों लटकाए हुए हो।“

तभी कैलाश ने सारा वृतांत मुझे बताया–“अरे कुछ नहीं यार! मोहन की बीवी की तबियत खराब है और उसे पैसों की कुछ जरूरत है। महीने का आखिरी दिन है, हमारे पास पैसे हैं नहीं!”
मैने तुरंत मोहन की तरफ नज़रे घुमाई– बेचारा मायूस बैठा हुआ था।
मैने कुछ पैसों की मदद करने के विचार से जेब में हाथ डाला, परंतु फिर कुछ विचार कर बाहर निकाल लिया।
और ऐसे ही कुछ देर बनावटी ढंग से विचार करने की मुद्रा में खड़ा रहा।
इस से पहले आप सब मेरी संवेदनहीनता पर उंगली उठाए। उस से पहले मैं आपको बता दूं, की ऐसा नहीं है की मैं संवेदनहीन हूं। 
असल में मोहन उस परंपरा का व्यक्ति है, जिनका जीवन ही उधार से चलता है। और उधार लेने तक तो ठीक है मगर चुकाने के मामले में, जनाब ऐसे है की सूद तो दूर उसका मूल भी कभी नहीं चुकाते और हम सभी मित्र इस बात को जानते थे। तभी तो कोई उसे पैसे नहीं देना चाहता था।
यही कारण है की मैंने उसकी मदद ना करने का मन बनाया।
हम कुछ देर ऐसे ही बैठे रहे, परंतु जब मैंने उसका मुंह ज्यादा ही उतरे देखा तो मुझसे रहा ना गया और ये जानते हुए भी की हो सकता है, ये बहाने मार रहा हो और ये भी जानते हुए की अब ये पैसे मुझे कभी नहीं मिलेंगे। मैंने जेब से कुछ रुपए निकाल कर मोहन को दे दिए। 
इसपर सब ने मेरी ओर चौक कर देखा। मानो मन ही मन कह रहें हो–“मित्र तुम बहुत सीधे हो यार! कितनी जल्दी बेवकूफ बन गए।”
जो भी हो मोहन ने मुझसे पैसे लिए और चेहरे पर थोड़ी सी मुस्कान के साथ मित्र मंडली को छोड़, घर से विपरीत दिशा की ओर चला गया।
संभवत दवाइयां लेने गया हो...।

उधार की ज़िंदगी | हिंदी कहानी
जब वह चला गया तो व्यंगपूर्वक एक मित्र ने मुझसे पूछा– बड़ा पैसा हो गया है तेरे पास तो! थोड़ी दया हम पर भी कर दे यार! 
और सभी ने इस व्यंग का अर्थ समझकर मुस्कुराते हुए मेरी ओर देखा।

हालाकि संकेत में भी समझ गया था, परंतु ना समझने का नाटक किया। और कोई प्रतिक्रिया नहीं दी!
एक मित्र ने पुन: मुझे संकेत देने के लिए कहा–“अरे मोहन निरा दारू बाज आदमी है। कमाता धमाता तो है नहीं, कमबख्त को बस कहीं न कहीं से उधार चाहिए। हमेशा इसी ताक में रहता है की कैसे किसी को मूर्ख बना कर पैसे लूटे जाएं।“
मुझसे ये व्यंग सहा नहीं गया मैने सब की ओर देखकर कहा–“ अपना तो सीधा साधा सिद्धांत है की हमेशा मुश्किल में पड़े इन्सान की मदद...।
इस से पहले की मेरी बात पूरी होती मुझे फिर वही व्यंगपूर्ण हसी सुनाई दी। मैं चुप हो गया। और थोड़ी देर ऐसे ही निशब्द बैठा रहा और फिर बहाने से हाथ की घड़ी की ओर देखकर खड़ा हुआ–“ चलो भाइयों! अब चलना चाहिए, घर में धर्मपत्नी इंतजार कर रही होंगी।”
इतना कहकर मैं वहां से खिसक लिया।
हालांकि रास्ते में अभी भी मुझे उन मित्रो की व्यंगपूर्ण हसी सुनाई दे रही थी। संभवत मुझपे ही हस रहे होंगे।
खैर, अब मैं घर में आ गया था। सीधा जाकर सोफे पर पैर सीधे कर लेट रहा परंतु मन अभी भी उसी नुक्कड़ वाले प्रकरण में लगा रहा।
मैने पत्नी जी को आवाज लगाई और संदेश के बादलों को दूर करने के लिए उनसे बोला–“ सुनो! तुम आज मोहन की पत्नी से मिली हो! लोग बाग बता रहे थे बड़ी बीमार है बेचारी।”
पत्नी ने आश्चर्य से मेरी ओर देखा और बोली–“ कैसी बातें करते हो जी! कैसी तबियत ख़राब अभी आपके दफ्तर से आने के आधे घंटे पहले ही तो यहां से गई है। तब तो भली चंगी लग रही थी, अचानक कैसे तबियत खराब हो गई!”
मैने सुनते ही मन में कहा –“ बेटा! तू तो मूर्ख बन गया।”
फिर मैने जैसे तैसे बात को टालते हुए पत्नी को समझाया– “अरे हो सकता है को दूसरा मोहन हो, या किसी ने मजाक किया होगा। छोड़ो उस बात को...
और हां मैं आज खाना नहीं खाऊंगा, सर बहुत दुखता है। मैं सोने जा रहा हु। गुड नाईट!”
पत्नी मेरी ओर आश्चर्य से देखती रही, और मैं बेडरूम की तरफ चला गया।

उस बात को अब दो तीन महीने बीत चुके थे। मोहन ने उस दिन के लिए मुझसे माफ़ी भी मांग ली थी और मैंने अपनी प्रकृति के अनुसार उसे माफ भी कर दिया था। 
हालाँकि पैसे उसने अभी तक नहीं लौटाए थे, और मैंने मांगे भी नहीं!
रविवार का दिन था, और शाम का समय। मैं अपने घर की छत पर चहल कदमी कर रहा था। अचानक मुझे मोहन का फोन आया, और इस विचार से मैंने फोन उठा लिया शायद पैसे लौटाने के लिए किया हो।
हालाँकि ऐसा नहीं था, बल्कि उसने तो फिरसे कुछ रुपए उधार देने की मांग की और इस बात बेटी के बीमार होने की बात कही। इस पर पहले तो में बहाने देता रहा और उसे चेताता रहा की– “बच्चू! कुछ भी हो पर इस बार मूर्ख नहीं बनूंगा।“
परंतु जब वह अपनी बेटी की, अपनी पत्नी की कसमें खाने लगा। तो फिर मैंने भी उसकी बात का विश्वास कर लिया। आखिर मैं भी तो एक बच्ची का बाप हूं।

मैंने उसे फोन द्वारा कुछ रुपए भेज दिए। और पुनः छत पर टहलने लगा। सहसा एक विचार मन में कोंधा की अब जगत में मेरे जैसे मदद करने वाले महा....(दानी)। और कहते कहते मेरी नजर गली में मेरी बच्ची के साथ साइकिल पर घूमती हुई एक लड़की पर पड़ी–“अरे! ये तो मोहन की बेटी है सोना...!”

और मैंने अपने सिर पर दोनो हाथ रख उस अधूरे वाक्य को पूरा किया–“.....मेरे जैसे मदद करने वाले महामूर्ख!”
और पुन: टहलने लगा।



- हर्ष त्रिपाठी

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