क्या हम अगली पीढ़ी को क्रूर बना रहे हैं ?

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क्या हम अगली पीढ़ी को क्रूर बना रहे हैं, तभी सब नफरत की भाषा बोलने लगे हैं, युद्ध आदि के परिणामों पर बात करने से बचने लगे हैं, अहंकार को मुद्दा बना रहे

क्रूरता की संस्कृति 


मेरी पीढ़ी ही नहीं, मेरी बेटियों की पीढ़ी ने जब दूरदर्शन  के दर्शन किए थे, खेल के अलावा जिसने आकर्षित किया था, वे "हम लोग" और "बुनियाद" जैसे सोप ओपरा।  "हम लोग" समाज के निम्न मध्यम वर्ग के संघर्षों के आसपास बुनी कहानी होने के कारण अधिकतर मध्यवर्गीय घरों की घर घर की कहानी बन गई थी। लाजवन्ती जी हो, या दबंग सासू जी, सब किरदार आसपास के ही तो थे, लेकिन यहां पर घरों के भीतर की अजब सी क्रूरता का अभाव था। सारे किरदार स्वाभाविक थे, जो कभी बेहद गलत लगते भी तो दूसरे क्षण अपने से लगने लगते। पूरा घर परिवार था, जहां लोग लड़ते भी, झगड़ते भी, प्रेम और त्याग भी करते थे। बुनियाद इसलिए भी पसन्द आता था कि आजादी के संघर्ष को अलग -अलग रूप में कहता। उस वक्त परिवारों में मनमुटाव के साथ प्रेम भी होता था, लेकिन फिर सास भी कभी बहु थी जैसे सीरियल आने लगे, जो भारतीय पारिवारिक संघर्ष की कथा कहना चाहिए था, लेकिन कुछ एपीसोड के बाद ही उनमें विचित्र सी क्रूरता ग्लैमरईस होने लगी। रिश्तों की चिन्दियां बिखर गईं। कोमलिका जैसे अजीब से किरदार बेहद पापुलर होने लगे। घरों के भीतर वैम्प का किरदार तो ललिता परवार या शशिकला ने भी इतनी शिद्दत से नहीं किया होगा।मैंने तभी दूरदर्शन देवता से दूरी बना ली थी, क्यों कि जब भी मैं ऐसी घृणा देखती तो कांप कर रह जाती। 

समाज के साधारण परिवारों में कहीं तीव्र अनुशासन था तो कहीं लगाम लगाना भी था, देवर जेठानी की लड़ाइयां या भाइयों का मनमुटाव भी था, लेकिन इस किस्म की क्रूरता तो आसपास दिखाई नहीं देती थी। हां दो प्रतिशत अपवाद हो सकते हैं। 

न्यूज चैनल : क्रूरता की परिकाष्ठा

क्रूरता की संस्कृति
न्यूज चैनल तब तक इस क्रूर मानसिकता से दूर थे, लेकिन फिर न्यूज चैनलों में भी क्रूरता की परिकाष्ठा दिखने लगी। ऐसा लगने लगा कि समाज क्रूरता को इंजाय करने लगा है, तभी क्रूरता व्यवसायिकता का चेहरा बन गया।तब से मैंने न्यूज देखना भी बन्द कर दिया। लेकिन क्रूरता किसी न किसी छद्म रूप में आसपास दिखने लगी। चाहे 
यूटुबर हो या कोई और। 

अभी हाल में मेरे पास कुछ यूट्यूब आये, जिसमें कछुओं की पीठ पर समुद्री जीवों घोंसला सा बना होता है, और लोग उसे चाकू से खुरेच खुरेच कर निकालते हैं, शुरु में मुझे बहुत अच्छा लगा कि लोग मूक जीवों को बचा रहे हैं, लेकिन फिर अचानक लगा कि मैं उन्हें देखने की उत्सुक सी होने लगी हूं। तभी एक दो यूट्यूब दिखे, जिनमें बताया गया कि ये भी क्रूरता का नमूना है। समुद्री कछुए की पीठ से सीप घोंघे जैसे परजीवियों को हटाने का सही उपाय है कि उन्हें कुछ देर के लिए ताजे पानी (नमकीन नहीं) में भिगो दो, परजीवी अपने आप गिर जाएंगे, यहीं नहीं चाकू से खुरेचने से कछुए को कैसा लगता है, उसे दर्द महसूस होता है कि नहीं , मालूम नहीं। मुझे लगा कि क्रूरता का नया चेहरा है।

नफरत की भाषा

अभी बिग बास या राउडी जैसे सीरियल चलते है, उन सीरियलो के चलते यूट्यूबर खूब कमा लेते हैं। लेकिन हजारों लाखों की ड्रेस पहने लड़कियां जिस तरह से गालीबाजी करतीं हैं, जिस तरह से चीखती चिल्लाती है, आश्चर्य लगता है । क्यों कि लगता नहीं कि कोई भी लड़की घरों में इस तरह की भाषा का प्रयोग करती हो, या इस तरह का आक्रमक व्यवहार करती हो। लड़कों के मामले में स्थिति बेहद क्रूर हो जाती है। मजेदार बात, वे न एक दूसरे को छूते हैं, न ही एक सीमा के बाद करीब आते हैं, लेकिन लगता है कि वे खाल उधेड़ देंगे। उन्हें देख कल पुराने जमाने की मुर्गों की लड़ाई याद आ जाती है। जो बेहूदगी नहीं करते, उन्हें समझाया जाता है कि कन्टेन्ट दो, यानी कि मुर्गों की लड़ाई वाला कन्टेन्ट. तभी चैनल का पैसा वसूल होगा, तभी वोट मिलेंगे। 

इस दिनों ओ टी पी मे मैंने एक भी सीरयल या ओ टी पी फिल्म देखने की ताकत जुटाई। हां पिछले दिनों कला देखी तो लगा कि यह है नेगेटिव और पोजीटिव का खूबसूरत संवाद. मेरी चिन्ता यहीं है कि क्या हम अगली पीढ़ी को क्रूर बना रहे हैं, तभी सब नफरत की भाषा बोलने लगे हैं, युद्ध आदि के परिणामों पर बात करने से बचने लगे हैं, अहंकार को मुद्दा बना रहे है। 

यदि यही चलता रहा तो आगे क्या होगा,कौन हवाल?



- रति सक्सेना

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