अपनी भाषा अपनी पहचान

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अपनी भाषा अपनी पहचान अपनों के प्रति आदर सम्मान होना, उनके प्रति आपकी श्रद्धा और आस्था का द्योतक है प्रयोग में अपनी भाषाओं को प्राथमिकता देनी चाहिए

अपनापन  - अपनी भाषा


पनों के प्रति आदर सम्मान होना, उनके प्रति आपकी श्रद्धा और आस्था का द्योतक है। पापा आते हैं तो आप कुर्सी से खड़े होकर अपनी कुर्सी उनको सौंपते हो और बैठने का आग्रह करते हो। यह दर्शाता है कि पापा खड़े हों और आप बैठे रहें, इससे पापा का अनादर होता है - ऐसा आप महसूस करते हैं। किंतु जब आप कार्यालयीन कुर्सी पर बैठे हो और पापा आ जाएँ - तो तब भी आप उठकर खड़े तो हो जाओगे किंतु पापा को अपनी कुर्सी नहीं, अतिथि सीट पर बैठने को कहोगे। वह इसलिए कि यदि कोई व्यक्ति आप के पास किसी काम से आएगा तो पापा को उस कुर्सी का हकदार समझकर उनसे बातें शुरु कर देगा और विपरीत परिस्थितियाँ उभर आएँगी। 

वैसे ही जब आपका कोई हमभाषी आए तो दोनों अपनी मातृभाषा में बातें करेंगे। यदि आपके अंचल का, किंतु अन्य मातृभाषा वाला व्यक्ति आए तो आंचलिक भाषा में बात करेंगे। यदि कोई अलग राज्य से आए और उसे न आपकी मातृभाषा आती हो न ही आंचलिक भाषा तो तब आप ऐसी भाषा में वार्तालाप करोगे जो दोनों को समझ आती हो। साधारणतः यह भाषा राजभाषा होती है या कहिए संपर्क भाषा हिन्दी होती है।
अपनी भाषा अपनी पहचान

लेकिन भारतीयों में अक्सर देखा गया है कि जब दो व्यक्ति मिलते हैं तो अंग्रेजी में बात करते हैं, भले ही वे एक ही मातृभाषा वाले हों, एक ही अंचल के हो या अलग - अलग प्रदेश से हों। वे अंग्रेजी में ही वार्तालाप करना उचित समझते हैं। 

मेरी सोच कहती है कि अभी मातृभाषा में तकनीकी वार्तालाप करना कठिन है और इसमें हर कोई सक्षम भी नहीं होता। यह एक कारण हो सकता है। लेकिन जन साधारण को इसका ज्ञान नहीं होता कि उनमें यह कमी है ताकि वे उसे पूरा करने की तरफ प्रयत्न करें। दूसरी तरफ राजभाषा पर भी लोगों की पकड़ इतनी अच्छी नहीं होती कि तकनीकी वार्तालाप कर सकें। साधारणतः आंचलिक भाषा इन दोनों में से ही एक होती है। अन्यथा इस तीसरी भाषा पर पकड़ तो और भी कमजोर होती है।

अब आते हैं बारीक विश्लेषण पर। अंग्रेजी भाषा में तकनीकी वार्तालाप या जिरह करने में दोनों ही सक्षम होते हैं क्योंकि इस देश में अभी तकनीकी पढ़ाई अंग्रेजी में ही होती है। इसीलिए तकनीकी वार्तालाप में प्राथमिकता मातृभाषा, आंचलिक भाषा और राजभाषा से हटकर अंग्रेजी को जाती है। यहाँ तक तो बातें समझ में आती हैं।

वार्तालाप की भाषा

अब आइए सामान्य वार्तालाप पर। इसके लिए तो भाषा पर कोई खास पकड़ की जरूरत ही नहीं है। फिर यहाँ
एम. कृष्णवेणी
अंग्रेजी को प्राथमिकता क्यों ? इसका  क्या अर्थ निकाला जाए ? यह कि दोनों को अँग्रेजी के अलावा कोई भाषा आती ही  नहीं । किंतु ऐसा कहाँ होता है। हर बच्चे को बोलने समझने लायक मातृभाषा तो आती ही है। समाज में हिलने - डुलने के लिए आंचलिक भाषा भी आती होगी।  हाँ, अहिंदी प्रांत का हो तो राजभाषा (हिंदी) शायद कम आती हो, कुछ कम कुछ ज्यादा या न ही आती हो। किंतु उसे सुधारने की बजाए अंग्रेजी में संवाद करते हुए – अपनी मातृभाषा, आंचलिक भाषा एवं राजभाषा का अपमान हजम कैसे हो जाता है? 

अपनी माता  जैसे अपनी भाषा (ओं) का सम्मान करना भी व्यक्ति की नैतिक कर्तव्य है। आप आवश्यकतानुसार अन्य भाषाएँ भी सीखिए । किंतु प्राथमिकता अपना भाषाओं को दीजिए। इस संबंध में भारतीयों में से मैं तमिलनाडु , बंगाल व केरल के नागरिकों को विशेष बधाई देना चाहूँगी। जब भी दो समभाषी मिलते हैं वे अनिवार्यतः अपनी भाषा में ही बात करते हैं। प्रांतीय लोग प्रांतीय भाषा में बात करते हैं। अकसर प्रांतीय भाषा मातृभाषा ही होती है। ज्यादती वहाँ हो जाती है जब अन्य प्रांतीय तीसरा व्यक्ति होने के बाद भी वे अपनी ही भाषा में वार्तालाप जारी रखते हैं। इससे तीसरा व्यक्ति संशय में रह जाता है कि क्या वे मेरे विरुद्ध कुछ बात कर रहे हैं ? यह समाज की सेहत के लिए सही नहीं है। 

हम अकसर तकनीकी क्षेत्रों में उन्नत देशों की उपमाएँ देते रहते हैं। अब उनको ही देखिए। कौन से उन्नत राष्ट्र के लोग आपस में दूसरे की भाषा में बात करते हैं। दो जापानी अपनी भाषा में बात करते हैं, तो दो चीनी अपनी भाषा में। रशिया वाले रूसी में तो जर्मनी वाले जर्मन में। यहां तक कि अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में भी वे इलेक्ट्रोनिक या मानव दुभाषी की सहायता से बात करते हैं या फिर इलेक्ट्रोनिक ट्रान्सलेटर (अनुवादक) की सहायता लेते हैं। जब तकनीकी तौर पर हम उनसे सीखने की बात करते हैं तो भाषाई तौर पर हम उनसे क्यों नहीं सीखते ?

मातृभाषी युगल या समूह मातृभाषा में , स-प्रांतीय लोग प्रांतीय भाषा में और विभिन्न भाषियों के समूह को राजभाषा में संवाद करना सर्वथा उचित है। जहाँ तक आवश्यक न हो -  विषय की वजह से या फिर परदेशी की वजह से -  परदेशी भाषा से परहेज ही करना चाहिए।

इसका मतलब यह नहीं कि हम अंग्रेजी सीखें ही नहीं। सीखने में किसी भी भाषा से नफरत या परहेज नहीं होना चाहिए । हाँ, प्रयोग में अपनी भाषाओं को प्राथमिकता देनी चाहिए। 




- एम. कृष्णवेणी,
सेवानिवृत्त प्रिंसिपल ,अंग्रेजी माध्यम शाला
तेलंगाना

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