तुम्हारी बुनी हुई प्रार्थना | पुस्तक समीक्षा

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तुम्हारी बुनी हुई प्रार्थना पुस्तक समीक्षा खेत और किसान कविता में, किसान जिसकी कुल जमा पूँजी उसका खेत और घर होता है इन दिनों वह वर्तमानी अव्यवस्था के

प्रार्थनारत शब्दों की अनुगूँज

           
विता अनुभूतियों की वह मौन यात्रा है जो संवेदना की उर्वर भूमि से हरिया कर पाठकों तक विचार सहित प्रेषित होती है।  इसमें वह शक्ति होती है कि वह पाठक के मन को खदबदा कर अपनी रचना यात्रा तक ले जाए। कविताओं का एक स्वर्णिम इतिहास रहा है तथा इसे समृद्ध करने वाले महान व्यक्तित्वों की भी  एक लम्बी सूची है; उनकी अपनी परम्पराएँ भी हैं जिनके द्वारा उनकी रचनाएँ पहचान ली जाती हैं। कविताओं की कई शाखाएँ हैं लेकिन इन दिनों नयी कविता ज्यादा प्रचलन में है और यह गद्य के बेहद करीब रहकर भी अपनी उपस्थिति को प्रमाणित करती हुई लोकप्रिय है। इन दिनों डिजिटल युग की सस्ती लोकप्रियता ने इसका स्वाद बिगाड़ा हुआ है,मंचीय कवि सम्मेलनों से बचती-बचाती कविता यहाँ तक पहुँची है इस कविता को अब भी अच्छे पाठकों की तलाश सदा की तरह ही रहेगी।
          
तुम्हारी बुनी हुई प्रार्थना
हिंदी साहित्य के साधक अपनी मौन साधना से समाज को आईना दिखने की भरसक कोशिश करते रहे हैं। इस समय में उनके सामने चाहे प्रकाशित ना हो पाने का संकट हो या रायल्टी की किल्लतें हो, पत्रिका ना मिल पाने/बंद हो जाने का खतरा हो या विचारधाराओं का संकट हो इन सबसे उसे अकेले ही निपटना होता है। ठीक ऐसे ही एक वक्त में इन दिनों मुझे   रजत कृष्ण की  कविता संग्रह, ‘तुम्हारी बुनी हुई प्रार्थना’ को बाँचने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। रजत कृष्ण अपनी कविताओं के द्वारा पूरे भारतवर्ष में पहचाने जाते हैं और उनका अपना एक पाठक वर्ग भी है उनसे साहित्यिक कार्यक्रमों में मेरी भेंट प्रायः हो ही जाती है। इस संग्रह के पाँच भाग हैं-1 खेत और किसान, 2 बिरवे का सपना, 3चुप्पी के विरुद्ध, 4 जीवित रहेंगे हम और 4 तुम्हारी बुनी हुई प्रार्थना। इनमें कुल 52 कविताएँ संग्रहित हैं। 
        
विस्तृत वितान की इन कविताओं में समय के साथ चलते हुए कवि ने अपने परिवेश को समेटने की एक सुंदर कोशिश की है जो अपने सौंदर्य का अद्भुत वर्णन करते हैं वहीं इनमें व्याप्त विसंगतियों पर समाज को आईना भी दिखाते हैं। बनिहारिनें कविता में-स्थानीय बोली के सुंदर प्रयोग से मेहनतकश स्त्रियों का मान बढ़ाते हुए आपने उनके श्रम को नमन किया है; आपने इनको रिश्तो में बाँधते हुए लिखते  हैं कि-  

ये कर रही होती हैं घर-दुआर का सवांगा
सुबह की किरणें समेटे 
यह छींटही कतारें 
बगर रही हैं जो चारों खूँट में 
बनिहारिनें हैं वो हमारे गाँव की। 
          
खेत और किसान कविता में,  किसान जिसकी कुल जमा पूँजी उसका खेत और घर होता है इन दिनों वह वर्तमानी अव्यवस्था के कारण विविध संस्थानों से कर्ज लेता है, मौसम की बेवफाई के चलते हैं इसे चुका नहीं पाता और इस कर्ज में डूबते हुए वह आत्महत्या की ओर बढ़ जाता है। इन सारी अव्यवस्थाओं को एक सवाल बनाकर उनके पक्ष में खड़े होते हुए आपने, अपनी संवेदना व्यक्त की है-

हम कहते थे खेत 
और महक उठती थी 
पुरखों के खून-पसीने से सीझी-भीजी माटी!
लेकिन अब 
कहते हैं हम खेत 
और झूल आते हैं 
अब तो आँखों में 
घर के मियार में अपने ही 
फाँसी पर झूलते किसान... 
कीटनाशक पीते 
बेटे उसके जवान-जवान!!
          
शहर के पाँव कविता में, आपने कंक्रीटीकरण की त्रासदी का उल्लेख करते हुए कहा है कि-ये शहर के पाँव निगलने के लिए खड़े हैं -हमारे खेतों की मेड़ों को वहाँ के तेंदू, चार, महुए के पेड़ों को और उसमें बसेरा करते हुए हैं परिंदो सहित पूरे के पूरे गाँव को। 

.... कल साँझ से 
हल-बैल लिए लौटे बाबूजी 
बहुत मन टूटा दिखे 
बार-बार कुरेदने पर 
खुलासा किया उन्होंने... 
कि हमारे खेतों के आस-पास ही 
खड़ी होने लगी है 
इन दिनों 
एक कार काले रंग की!! 
          
आखिरी दीया कविता में, आपने पराई माटी का क्या भरोसा लिखते हुए कहते हैं कि -जिस प्रकार सौतेली माता की ममता कष्टप्रद हो सकती है उसी प्रकार मुआवजे की जमीन का हम क्या भरोसा करें? जिसकी अपनी जमीन पूरी तरह लुट चुकी हो जिसे उसने सजाया-संवारा था जो उसके सुख-दुःख का साथी था, उसके बदले किसानों को दूसरी जमीन सौतेली माँ के जैसी लगती है यह एक बड़ी बात वही कह सकता है जो उस खेत और जमीन से जुड़ा हुआ हो और जिसकी खुद की जमीन किसी सरकारी योजनाओं की भेंट चढ़ी हो। जैसा कि हम सब जानते हैं कि मुआवजों की लंबी लाइनों में किसानों की क्या दुर्गति होती है।

डूबती आँखों में बिटिया कविता में, लेखक ने अपने मुआवजों की जमीन पर लगे हुए वृक्षों का मानवीकरण करते हुए लिखा है-जिसके साथ उसके सुख-दुःख वैसे ही जुड़े हैं जैसे किसी बेटी के साथ। इन्हें छोड़ते हुए यह अहसास होता है जैसे वे अपनी बिटिया को विदा कर रहे हों,यह पंक्ति दिल से होकर गुजरी है-

जी धक्क से किया 
और मेरी डूबती आँखों में झूल आई 
टिक-टाक करते चलना सीख रही
बिटिया...। 
          
'पट्ठल सीने को जोत कर' कविता में, एक आशावादी संदेश है जिसमें वे यह कहते हैं कि-तमाम अंधेरों और मुसीबतों के बीच हम हाथ धरे नहीं बैठेंगे गलियों और चौपालों में बल्कि अपने श्रम से गदकाएँगे-रोशनी के पौधे उगाएँगे।

...उजड़ चुके पड़ावों को 
श्रम की साझी किरणों से 
फिर-फिर 
हम गदकाएंगे! 
अंधेरी रातों के 
पट्ठल सीने को जोत कर 
पौध रोशनी के हम उगाएंगे।
         
कविता 'कमइलिन बेटी' में आपने-घरेलू स्त्रियों में माँ को सर्वोच्च स्थान देते हुए लिखा है कि माँ घर और खेत से अलग कहाँ होती है, विरासत में उसे किसानी मिलती है और उसकी साँस टूटते तक वह घर और खेत की खुशियों को लहराते रहती है। 

...मेरी माँ कमइलिन की बेटी है 
कमाऊपन उसे घुट्टी में मिला है। 
        
 'घरेलू काम में रमी स्त्री' कविता में आपने घरेलू महिलाओं की दिनचर्या के महत्व को दर्शाते हुए लिखा है कि- ये दिन भर में कितनी यात्रा करती हैं जिसका कोई रोजनामचा नहीं है।

….नाप लेती हो पूरी आकाशगंगा 
साँझ तुलसी पर दिया बारते 
रात चाँद को माथ नवाते ही।
         
 'बच्चा संभालने वाली बच्ची' कविता में, कवि ने अपनी अनुभूति की सूक्ष्म संवेदना को प्रकट किया है जिसमें लिखते हैं यह बड़ी बच्ची अपने माता-पिता का घरेलू कार्यों में सहयोग करते हुए किसी छोटी बच्ची को किस प्रकार संभालती है। उसके साथ वह ना चाहते हुए भी हँसती और हँसाती है इस दौरान उसका अपना वक्त भी उसमें घुल-मिल रहा होता है उस छोटी बच्ची के साथ। जिसमें उसका अपना कुछ भी नहीं होता ना ही इच्छा और ना ही उसका मन। 

'माँ बनते गए पिता' कविता में, कवि लिखते हैं कि- माँ के चले जाने के बाद पिता कैसे ममतालू हो गए हैं, वही हैं जो तीनों भाई-बहनों को संवारते हैं। 

...बढ़ती उमर के साथ
जानने लगी जब बेटियाँ यह सब…
और उम्र के भार से
निरंतर झुकती गई कमर पिता की;
तब पता ही नहीं चला 
कि बेटियाँ यह फूल-सी 
कब, कैसे पाँवों पर अपने 
खड़ा होते हुए चुपचाप ही 
ज्यों माँ बनती चली गई
आहिस्ता-आहिस्ता अपने सत्तर वर्षीय पिता की। 

         
 'अपनी तलाश में भटक रही लड़की' में कवि ने भिन्न-भिन्न भूमिकाओं एवं समय के साथ जाने क्या तलाश रहे हैं? उसकी चुप्पी इन्हें सदा से ही अखरती है,यह चुप्पी उन तमाम लड़कियों की है जो इस व्यवस्था में हैं जो कभी साहस नहीं कर पाती कि उनकी अपेक्षाएँ क्या हैं? उनका अपना मन क्या है? क्योंकि उन्हें घर-परिवार समाज की लाज बनाकर उन पर एक बोझ सा लाद दिया है। 'चरखी दादरी की चीख' में आप वर्तमान समय के साथ रहते हुए लिखते हैं-

...सत्ता के मुँह में जब खून लग जाता है 
मानो कत्लगाह बन जाती है राजनीति। 

          
ऐसे में उम्मीद जगाते हुआ यह खंड प्रश्न पूछता है, चिंता करता है कि-मानवता की रक्षा कौन करेगा? 'कविता दंगे के बाद' में इंसानियत की त्रासदी कर्फ्यू से मचा चित्कार बस्ती-मोहल्ले का उजड़ जाना के बीच कहाँ कोई इंसान साबुत बचता है? बचता है तो सिर्फ पसरा हुआ एक सन्नाटा और श्मशान। इस खंड में स्वयं से एक वार्ता करते हुए कवि दिशा देते हैं। कविता 'वह मुखड़ा तुम्हारा' में स्मृति में प्रेम है और इसे ऐसा लिखते हैं-

..अब भी वैसे के वैसे ही 
जैसे कि मया की मुंदरी में 
मोती हो जड़ा।
हँसी में लहलोट 
तुम्हारा वह मुखड़ा।
       
'तुम्हारी यात्रा और मेरे तीन दिन' इस डायरी नुमा कविता में यात्रा वृतांत को, कविता में रचना एक जादुई एहसास देता है और स्मृतियों की गाँठे खोलता है। कविता 'मंडेला की डायरी से' और 'इरोम की हार' के अंतर्गत आप नेल्सन मंडेला और इरोम शर्मिला चानू के संघर्ष की तुलना करते हुए उनके साथ खड़े हैं उनके संघर्ष का को महत्व देते हैं साथ ही अफसोस भी करते हैं।  एक ओर संघर्ष से सफलता है, मुक्ति है तो वहीं दूसरी ओर संघर्ष के बाद भी इरोम की हार है जहाँ सिर्फ अफसोस ही मिलता है जो बड़ी ताकतों की देन ही होती है। 
          
कवि अंत में 'ईश्वर की डायरी के पाँच पन्ने' के अंतर्गत उत्तराखंड आपदा पर अपने विचार रखते हैं किस प्रकार लोगों ने इस आपदा में अपने ठीये की रक्षा की, ईश्वर होना कहाँ आसान होता है? और सैलाब किस प्रकार वक्त के साथ लाशों के मंडप और सनसनी, सन्नाटे में बदल जाता है ऐसे में कोई कैसे सुनेगा- शंख और घंटी की गूँज? कैसे कोई बरदाश्त करेगा? कफन चोरों की तो हो जाती है बल्ले-बल्ले। 
          
ये कविताएँ अपने घर पड़ोस से निकलकर विश्व धरातल को वर्णित कर सकने में समर्थ हैं, स्फूर्ति और ताजगी से भरी हुई हैं।  ये दिल से निकली हुई कविताएँ हैं इसके शब्द उनके परिवेश से महुए  जैसा बिना हुआ है। शब्दों की शिल्प कला उत्कृष्ट एवं बेजोड़ है, विचार पक्ष सुदृढ़ है और इसमें काव्यत्व सर्वत्र व्याप्त है; इसमें उपयोग हुए छत्तीसगढ़ी शब्द मुझे उन पंक्तियों के साथ उस अनुभूत संवेदनाओं के दृश्य से जोड़ने में सफल हुए हैं। इस संग्रह के जरिए आपने अपनी अनुभूतियों को अमर बना दिया है। अनंत जिजीविषा के रचनाकार रजत कृष्ण को इस पठनीय संग्रह ‘तुम्हारी बुनी हुई प्रार्थना’ के लिए मेरी अशेष शुभकामनाएँ एवं बधाई ।

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रमेश कुमार सोनी
कबीर नगर-रायपुर छत्तीसगढ़ 492009 9 मोबा.- 94242 20209 / 70493 55476

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तुम्हारी बुनी हुई प्रार्थना- कविता संग्रह,रजत कृष्ण-छत्तीसगढ़
बोधि प्रकाशन-जयपुर,2020 मूल्य-₹150 पृष्ठ-120 ISBN:978-93-90419-27-2

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