बुना हुआ थान | हिंदी संस्मरण

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राने इत्र की महक पर बाज़ार में आया नया उत्पाद डियोड्रेंट कभी भारी नहीं पड़ सकता।यह ज़रूर हो सकता है कि पुराने और नये के समावेश से शायद कुछ अद्भुत नि:स

स्मृतियों के उस पार - बुना हुआ थान


ज़माना हो गया है एक ही थान की बात सुने हुए,बात करते हुए,एक घर के भाई-बहनों को एक ही थान में लिपटा हुआ देखे।अब शायद ही थान शब्द की अनूगूंज किसी बड़े संयुक्त परिवार या एकल घरों के हाते में सुनाई देती है लब्बोलुआब यह है कि अपने पास सबकुछ है किंतु परेशानी यह है है कि दूसरा ख़ुश क्यों है यही उद्देश्य और उपक्रम हो गया है ज़िंदगी में सभी का।

पहले अमूमन सरकारी नौकरियों का ही बोलबाला था।कमाने वाला एक और उसके कंथे पर कई लोगों की भरण-पोषण की ज़िम्मेदारीयों का बोझ।आज का जैसा समय थोड़ी था कि घर के अन्य सदस्य चाहे वह बेटियां हों या बेटा सभी अपनी शिक्षा पूरी करने के उपरांत छोटी या बड़ी नौकरी करके घर के मुख्य सदस्य का हाथ बंटाये ।

उस पुराने पीले पड़े समय में हमारे यहां भी कुछ ऐसा ही था पिता सरकारी सर्विस फारेस्ट डिपार्टमेंट में थे हम चार बहनें और एक भाई हैं।पिताजी की सर्विस क्योंकि अच्छी खासी थी किसी भी तरह का अभाव न था किंतु समय का रूख़ और संसाधनों की उपलब्धता ही कुछ इस तरह थी कि रेडीमेड कपड़ों का बोलबाला कम ही था।जान-पहचान का दर्जी हुआ करता था वह ही बड़ों से लेकर छोटे तक सारे खानदान के कपड़े सिला करता था।  विकासनगर की एक ही दुकान से एक ही बड़ा थान कटवाकर कर घर भर के बड़ों से लेकर बच्चों तक  के लिए सुभाष दर्जी से परिधान तैयार करवाये जाते थे। उस उम्र में हमें तो पता भी न था कि क्या अच्छा होता था और क्या बुरा?बस ख़ुश हो जाते थे कि हमारे लिए नया कपड़ा सिलवाया जा रहा है।

आज गुज़रे समय की स्मृतियों के फ्रेम में एक तस्वीर पर काफी देर तक नज़र टिकी रह गयी और फ़ाख़्ता सा मन  गोते लगाने लगा समय की उस निश्छल गहराइयों में।तस्वीरें संवाहक हैं अपने समय की, परंपराओं की, संस्कृति की और  कालखंड की जो जाने -अनजाने जज़्ब हो जाती हैं धरोहर स्वरूप हमारी स्मृतियों में और समय के दस्तावेजों में। बचपन की धुंधली यादों पर वर्तमान के कुछ व्यथित छींटे पड़े और तस्वीर चिट्ट सी साफ़ हो गयी स्मृतियों में।

स्मृतियों के उस पार - बुना हुआ थान
बात उन दिनों की है पिताजी की पहली पोस्टिंग हुई थी कालसी में ।हम सभी भाई-बहनों का पदार्पण हो चुका था माता-पिता की ज़िंदगी में।जैसा कि मां से सुना उस ज़माने में कम आय-श्रोत में भी ज़िदगी सिक्के की तरह खनकती थी। दादी का गांव से टेलीग्राम आया था कि चाचाजी का ब्याह जुड़ गया है ।ज़ाहिर तौर पर घर में ख़ुशी की उमंग दौड़ पड़ी थी।

अपने परिवार में सबसे बड़े होने के नाते पिताजी के कंधे पर शादी का प्रबंधन, ख़र्चा,राशन,पानी सभी चीजों की ज़िम्मेदारी आ गयी थी यकायक़,मां भी व्यस्त हो गयी थीं  सौदा सुलुफ़ और शादी के लिए कपड़ों की ख़रीदारी में।जब शादी की सभी ख़रीदारी से माता-पिता निवृत हो गये तब आख़िरकार आया हमारा नंबर,हम सभी भाई-बहनों के लिए शादी के लिए नये कपड़े जो ख़रीदने थे हमारे लिए।झट से जगदंबा वस्त्र भंडार से हम सभी बच्चों के लिए कपड़े का थान ख़रीदा गया।घर पर दर्ज़ी बुलवाकर हम सभी का नाप लिया  गया और सभी की फ़रमाईश पर किसी के लिए सलवार-सूट,किसी के लिए बैलबाटम सिलवाया गया।

सभी प्रबंध हो जाने के उपरांत हम सभी चाचाजी की शादी के लिए गांव के लिए निकल गये चूंकि गांव ऋषिकेश से आधा पौन घंटा आगे था और  हम देहरादून से लगभग ढाई-घंटे पीछे के कस्बे कालसी में रहते थे,उन दिनों बसें भी स्वच्छंद रुप से नहीं चलती थी इसलिए पिताजी ने एक रात देहरादून रूकने का निश्चय किया।

शाम को मांजी को पलटन बाज़ार में कुछ काम था इसीलिए हम सभी शाम को पलटन बाज़ार की ओर निकले, दरअसल मांजी को अपनी घड़ी का फीता बदलवाना था इसलिए घंटाघर के पास मेहता वाच कंपनी की दुकान पर रूके ।मेहता वाच कंपनी वाले अंकल पिताजी के सालों पुराने बहुत अच्छे दोस्त थे इसीलिए मांजी-पिताजी उनसे मिलने के बहाने से भी अक़्सर वहीं जाते थे।मेहता अंकल ने मांजीऔर  पिताजी के लिए चाय मंगवाई और हम सभी के लिए पिस्ता वाले बिस्किट।इतने में मेहता अंकल ने मांजी को कहा भाभीजी आप नई घड़ी क्यों नहीं देखती हैं अपने लिए ?मैं आपको घड़ियों के नये डिज़ाईन दिखाता ह़ूं। पिताजी ने भी मां को सहमति दी नई घड़ी खरीदने के लिए। इन सभी का आपस में वार्त्तालाप चल रहा था और इस वार्तालाप के बीच मैंने बिस्किट उठाया और मुंह में डालते हुए खाते-खाते घंटाघर से नीचे पलटन बाज़ार की ओर अपनी धुन में चलती चली गयी। धुंधली स्मृतियों में इतना याद है कि भयंकर भीड़भाड़ थी पलटन बाज़ार में ,कहीं रिक्शे ,कहीं तांगे ,कहीं स्कूटर सवार, कहीं पैदल सभी एक साथ चल रहे थे उसके बाद सब कुछ विस्मृत है मुझे, किंतु मां ने बताया कि नई घड़ी ख़रीदने के उपरांत हमारी नज़र बच्चों पर पड़ी तो तीसरे नंबर की यानि मैं नदारद थी मेरा वहां न होना था कि मां दुकान पर ही रो-रो कर शोर मचाने लगीं और बीच-बीच में मेहता अंकल को कोसने लगीं कि आपकी वज़ह से ही मेरी बेटी खोई है।आप अगर नई घड़ी खरीदने के लिए न कहते तो हमारी तीसरी बेटी भी हमारे पास होती।मेहता अंकल और पिताजी मां को ढांढस बंधा रहे थे,लेकिन मां थी की समझने को तैयार ही नहीं हो रही थीं। आख़िर मेहता अंकल ने मां को कहा बहन जी आप परेशान मत होईये मैं कैसे भी करके आपकी बेटी को ढूंढ कर आपके पास लाऊंगा।आप बस ये बताईये कैसे कपड़े पहने हैं उसने ?बाल कैसे हैं ? वगैरह-वगैरह।मां ने तुरंत मेरे अन्य भाई-बहनों की ओर इशारा करके कहा, जैसे  रंग व डिजाईन के कपड़े इन सभी ने पहने हैं वैसे ही सुनीता यानि की मैंनै पहने हुए हैं यह सुनते ही मेहता अंकल ने अपना स्कूटर स्टार्ट किया पिताजी को पीछे बिठाया और मेरी ख़ोज में पूरा पलटन बाज़ार छान मारा। वहां मां का रो-रोकर बुरा हाल था दुकान पर वह मेरे अन्य  भाई-बहनों को छाती से कसकर चिपकाये बैठी एक कोने में मेरे वियोग में विलाप कर रही थीं।

मां के अनुसार करीब एक घंटे के बाद  मेहता अंकल स्कूटर में मुझे आगे बिठाये पिताजी के साथ वापस लौटे और मुझे सीधे मां  के सुपुर्द करते हुए कहने लगे बहनजी लीजिए संभालिये अपनी बिटिया।मैं ज़िंदगी भर आपको क्या मुंह दिखाता?आज बहुत बड़ा अनर्थ होने से बच गया मुझसे,मां ने मुझे देखते ही छाती से भींच लिया और उसके बाद पिताजी के अनुसार गांव तक जाते-जाते मां ने भयाक्रांत होकर  सिर्फ़ मुझे ही छाती से चिपकाये रखा वह यह भी भूल गयीं कि उनके साथ उनके और भी बच्चे हैं साथ में शायद दहशत और आशंका इंसान को इस कदर दिमागी तौर पर शून्य बनाकर रख देती है।

बहरहाल एक बुने हुए थान का वर्णन करने के आच्छादित मेरी मंशा यह थी कि उस ज़माने में एक जैसे पहने हुए वस्त्रों में भले ही कोई नवीनता नहीं झलकती थी, सब कुछ एक समान दिखता था किंतु मुझे तो यह थान मुझे मेरी पहचान और ज़िंदगी दे गया वरना आज न जाने मैं जीवित भी होती या नहीं अगर होती तो कौन जाने किस हालात में होती? शुक्रिया पुरानी धारणायें, पुरानी परंपराओं तुम्हारा।ग़ालिबन उस ज़माने में सभी बच्चों के लिए एक ही थान से एक ही किस्म के परिधान के प्रच्छन्न यही उद्देश्य रहा होगा हमारे बुज़ुर्गों का कि अपनी पहचान न खोने के साथ-साथ ही सभी में समभाव व समानता बनी रही।

यह परंपरायें हालांकि आज के परिदृश्य में निभाना  मुश्क़िल हो गया है ।आज असीमित संसाधन हैं,सोच का दायरा बढ़ गया है पुरानी परंपराओं पर नई कलई चढ़ गयी है किंतु फिर भी पुराने इत्र की महक पर बाज़ार में आया नया उत्पाद डियोड्रेंट कभी भारी नहीं पड़ सकता।यह ज़रूर हो सकता है कि पुराने और नये के समावेश से शायद कुछ अद्भुत नि:सृत किया जा सके।


- सुनीता भट्ट पैन्यूली

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