बिहारी कहलाना गर्व की बातपौराणिक और ऐतिहासिक पन्नों में मेरा उल्लेख विशेष रूप से हुआ है । श्रीराम की अर्धांगिनी माता सीता का जन्म मेरे ही मिथिला में
मैं बिहार हूँ
मैं, बिहार हूँ।मैं, देवनदी गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा, गोदावरी, कावेरी, महानदी के पवित्र जल से सिंचित, श्रीराम, श्रीकृष्ण तथा देवों को भी प्यारा पावन भूमि “भारत” देश का एक प्रमुख राज्य ‘बिहार’ हूँ । मैं, पितरों के मोक्ष की पावन भूमि (गयाधाम), समुद्र-मंथन के साक्षी (मंदार पर्वत), पौराणिक धरोहर ‘देव’ सूर्यमंदिर (औरंगाबाद), उलार सूर्य मंदिर (पालीगंज, पटना), मुण्डेश्वरी भवानी मंदिर, (कैमूर), राजा हरिश्चंद्र पुत्र रोहिताश्व का ‘रोहतास दुर्ग’ और महर्षि वाल्मीकि की तप की भूमि बिहार हूँ । मेरा प्राचीन इतिहास जनक नंदिनी सीता के स्वयंवर के मंगल गीतों को श्रवण कर, राजगृह के अखाड़े में जरासंघ और महाबली भीमसेन के मलयुद्ध को देख कर सुजाता के मधुर खीर से ज्ञान प्राप्त कर आगे बढ़ता है । फिर मैं विद्व आचार्य चाणक्य की नीति को धारण कर, बाणभट्ट के दिव्य ज्ञान और ज्योतिषाचार्य आर्यभट्ट की गिनती का सहारा लिये विश्व का प्रथम गणराज्य (वैशाली) का पोषक बन कर वर्तमान भारत सहित विश्व के शासन-प्रबंध का विशेष शक्ति सूत्र बने विद्वजनों के द्वारा विशेष रूप में समादृत बिहार हूँ ।
मेरे नामकरण के संबंध में मुझे जहाँ तक स्मरण है कि वैदिक काल में मुझे 'प्राच्य' या ' पूर्व प्रदेश' के रूप में जाना जाता था । फिर मौर्य काल के राजाओं ने मुझे 'मगध' नाम प्रदान किया । ‘मगध’ नाम से ही मैं गुप्त काल तक अपना परिचय पाता रहा था । उसके बाद मुझे 'उदंतपुरी' (ओदन्तपुरी) नाम से भी विभूषित किया गया था ।
फिर 12 वीं शताब्दी के अंत तक मैं तुर्को द्वारा बुरी तरह से आक्रांत हो गया था । चूँकि मेरे अंचल में बौद्ध संन्यासियों के रहने के लिए प्रचुर संख्या में बौद्ध विहार थे, जिस कारण मुझे 'विहारों का प्रदेश' कहा जाने लगा और कालांतर में 'विहार' शब्द का ही अपभ्रंश स्वरूप 'बिहार' मेरे नाम का परिचायक बन गया और मैं आज भी इसी 'बिहार' नाम से ही जाना जाता हूँ ।
मैं, राजा जनक द्वारा पूजित, महाबली जरासंघ, दानवीर कर्ण, पांडव कनिष्ठ पुत्र सहदेव द्वारा पालित-पोषित, भगवान बुद्ध की तप और ज्ञान से समुन्नत, महावीर स्वामी के प्रकट्य तथा निर्वाण की, विश्व के प्रथम गणराज्य की पोषक की, कालांतर में सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य, सम्राट अशोक, सम्राट समुद्रगुप्त द्वारा शासित, फिर वीर कुँवर सिंह, महात्मा गाँधी, राजेन्द्र प्रसाद, जय प्रकाश नारायण, स्वामी सहजानन्द की कर्मभूमि रही हूँ । कभी नालंदा, विक्रमशील, उदंतगिरि, वज्रासन (मगध) जैसे विश्व प्रसिद्ध शिक्षा-केंद्रों से सुनियोजित, आचार्य चाणक्य, विद्व बाणभट्ट, ज्योतिषाचार्य आर्यभट्ट के तेज से उत्प्लावित, स्वर्ण सदृश सुनहली फसलों की शस्य-श्यामला मैं न केवल भारतवर्ष, बल्कि विश्व के लिए गर्व की भूमि रही हूँ ।
परंतु आज जब कोई मुझे ‘बीमारू’ और मेरी संतानों को ‘बिहारी’ (गंवार) के रूप में संबोधित करता है, तो मेरे हृदय पर कठोर कुठाराघात-सा प्रतीत होता है । जबकि आज भी भारत सहित कई अन्य कई देशों की केन्द्रीय शासन-व्यवस्था को सुदृढ़ करने में मेरी यशस्वी संतानों की योग्यता और कर्मठता सर्वोच्च रही है ।
ऐतिहासिक पृष्टभूमि और गौरवगाथा के आधार पर जब मेरी तुलना भारतीय अन्य राज्यों से की जाती है, तो मैं कृषि, खनिज, व्यापार, ज्ञान आदि की दृष्टि से समृद्धशाली प्रमाणित होता हूँ । भले ही मेरी गरिमा वर्तमान ओछी, स्वार्थी और भ्रष्ट राजनीति के कारण बहुत कुछ धूमिल हो गई है, लेकिन मेरे इतिहास पर मेरी हर संतानों को गर्व होना अपेक्षित है ।
पौराणिक और ऐतिहासिक पन्नों में मेरा उल्लेख विशेष रूप से हुआ है । श्रीराम की अर्धांगिनी माता सीता का जन्म मेरे ही मिथिला में हुआ था, जिसे आज ‘सीतामढी़’ के नाम से जाना जाता है । महाराज जनक का राज्य मेरे वर्तमान उत्तर-मध्य के मुजफ्परपुर, सीतामढी, समस्तीपुर, मधुबनी आदि जिलों तक विस्तृत था । श्रीराम के राजा बनने के उपरांत जब दुखियारी सीता माता वनवास पर चली, तो मैं ही उन्हें वर्तमान गंडक नदी के किनारे के अपने वनक्षेत्र में महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में प्रश्रय दिया था, जिसे आज 'वाल्मीकि नगर' के नाम से जाना जाता है । माता सीता ने यहीं अपने दोनों पुत्रों लव-कुश को जन्म दिया था । दोनों पुत्र यही पर सर्व विद्या प्राप्त कर अयोध्यापति श्रीराम को भी चुनौती दिए थे । देश का सबसे प्राचीन मंदिर मेरे कैमूर पर्वत श्रेणी की पवरा पहाड़ी पर स्थित ‘माँ मुंडेश्वरी का मंदिर’ है, जो श्रीयंत्र आकार का अष्टकोणीय मंदिर है और यह शिव जी को समर्पित है । यहाँ का जागृत शिवलिंग हर प्रहर अपना रंग बदलते ही रहता है ।
आज दुनिया भर में प्रसिद्ध बौद्ध धर्म का बीज अंकुरण मेरे पुष्ट सीने ‘बौद्ध गया’ में ही हुआ था, जहाँ पर भगवान बुद्ध के अशांत मन को दिव्य ज्ञान ज्योति से शांति प्राप्त हुआ था । जिसके आलोक से आज विश्व आलोकित है । इसी तरह से सम्यक-दर्शन (सही विश्वास), सम्यक-ज्ञान (सही ज्ञान) और सम्यक-चरित्र (सही आचरण) के संदेश को प्रसारित करने वाले महावीर स्वामी भी मेरे ही कुंडल ग्राम, (वैशाली) में प्रकट हुए थे । मैं ही उनकी कर्म-भूमि और निर्वाण-भूमि (पावा) भी रहा हूँ । सिखों के दसवें और आखिरी 'गुरु' गुरु गोबिंद सिंह का भी जन्म मेरी राजधानी नगरी पटना के पूर्वी भाग (पटना साहिब) में जन्म ही हुआ था, जहाँ उनके स्मरण में आज भव्य ‘हरमंदिर’ निर्मित है । यह सिखों के पाँच पवित्र तख्तों (स्थल) में से एक प्रमुख है ।
12 वीं सदी के एक महान भारतीय सूफी संत ‘हज़रत मख़दूम कमालुद्दीन यह्या’ का ‘आस्ताना’ (दरगाह या मजार) मेरी राजधानी पटना के पास ही ‘मनेर’ में स्थित है, जिसे भारत में ‘खानकाहों (दरगाहों या मजारों) की जननी’ माना जाता है । एक अन्य ‘हज़रत मख़दूम शेख़ शरीफुद्दीन यह्या मनेरी रहमतुल्लाह अलैहि’ का ‘आस्ताना’ मेरे बिहारशरीफ में स्थित है । इन प्रमुख दरगाहों पर लगभग सभी धर्म के लोग जाते हैं और अपनी श्रद्धा भक्ति अर्पण करते हैं । ‘पादरी की हवेली’ के नाम से विख्यात लगभग 300 वर्ष पुराना चर्च मेरे हृदय नगरी पटना सिटी में स्थित है, जहाँ ईसाई पर्व पर बहुत भीड़ एकत्रित होती है ।
मेरी संतानों में प्राचीन काल से ही धार्मिक सहिष्णुता रही है । सभी मिलजुल कर होली-दिवाली, बैशाखी, ईद-मुहर्रम, क्रिसमस आदि पर्व मनाते आए हैं । ऐसे में मेरी आस्था का प्रतीक ‘छठ पर्व’ के समय ‘उठ्हूँ सुरुज देव अरग के बेर’ जैसे सामूहिक सुरमय गीतों से मेरा तन-मन लहर उठता है । उस समय मैं पूर्णतः ‘ठेकुआमय’ हो जाता हूँ, जिसके प्रभाव से देश-देशान्तर भी अछूता नहीं रह जाता है ।
प्राचीन इतिहास में मेरे मुख्यतः तीन प्रमुख महाजनपद थे, यथा- अंग, मगध और लिच्छवी (वज्जीसंघ) । मेरे मगध की विराट और शक्तिशाली सेना के नाम को ही सुनकर विश्व विजेता बनने निकला ‘सिकंदर’ की विशाल सेना नत मस्तक होकर आगे बढ़ने से इंकार कर दी थी और उसे वापस लौटना पड़ा था । कालांतर में ‘अर्थशास्त्र’ के रचयिता ‘राजा निर्माता’ कौटिल्य (चाणक्य) के मार्गदर्शन में सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने उसी मगध को केंद्र कर विराट मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी । जिसे मेरा प्रिय वीर वत्स अशोक महान ने सजाया और संवारा । आज स्वतंत्र भारत के राष्ट्रीय चिन्ह ‘अशोक स्तंभ’ और राष्ट्रीय ध्वज में ‘अशोक चक्र’ मेरे वत्स सम्राट अशोक की ही देन है ।
विश्वप्रसिद्ध गणिका सुंदरी ‘आम्रपाली’ की नगरी मेरी प्राचीन ‘वैशाली’ ही है । आम्रपाली ने अपनी सुंदरता और चातुर्य के बल पर प्राचीन काल में यह साबित कर दिया था कि इस धरती पर स्त्री-शक्ति भी अपना वर्चस्व स्थापित कर सकती है और मैंने उसे भरपूर मौका भी प्रदान किया था ।
मेरे प्राचीन ज्ञान-केंद्र नालंदा, विक्रमशीला, उदंतगिरी आदि विश्व-विद्यालय विश्वभर में अपनी शैक्षणिक प्रभुत्व के अलख जगाने के लिए प्रसिद्ध रहे थे । विद्या प्रदान करने के क्षेत्र में इन शिक्षा केंद्रों ने देश-देशान्तर की परिधि को तोड़ते हुए विश्व भर के विद्यार्थियों को निःशुल्क उत्तम शिक्षा प्रदान कर विश्व मानवता को आलोकित करने के महत्वपूर्ण कार्य किए हैं । फाह्यान, ह्वेनत्सांग, इत्सिंग, मेगास्थनीज, तारानाथ आदि विदेशी शिक्षा-प्रेमियों ने मेरे इन्ही ज्ञान-केंद्रों से भारतीय प्रगाढ़ ज्ञान-पुंज से समृद्ध होकर स्वदेश लौटे और उससे अपने देश को आलोकित किए । कालांतर में मेरे इन विशाल शिक्षा केंद्रों को मानवता के प्रबल शत्रु, क्रूर और अत्याचारी मुस्लिम शासकों ने बिल्कुल ही विनष्ट कर उन्हें खंडहरों बना दिया । आज भी उनके खंडहरों से उनके विराट शैक्षणिक इतिहास की आवाजें रह-रह कर आती ही रहती है ।
प्राचीन काल से सांस्कृतिक और राजनीतिक के रूप में सुप्रतिष्ठित मैं, मध्यकालीन क्रूर मुस्लिम शासकों से आक्रांत होकर शनै: शनै: अपनी सारी प्रतिष्ठा को खोते चला गया । मुगल काल में मेरी धरती पर ही शेरशाह सूरी नामक एक लोकप्रिय शासक हुआ, जिसका शासन केंद्र मेरे आधुनिक मध्य-पश्चिम में स्थित सासाराम था । उसे भूमि-सुधार, सड़क निर्माण आदि सार्वजनिक क्षेत्र में विशेष निर्माण के लिए इतिहास में जाना जाता है ।
ब्रिटिश शासन काल के अंतर्गत मैं दीर्घ काल तक तत्कालीन ‘बंगाल प्रेसीडेंसी’ का ही एक महत्वपूर्ण कृषि सम्पन्न हिस्सा रहा था । मेरे ऊपर शासन की बागडोर तत्कालीन राजधानी कलकत्ता के हाथों में थी । इस दौरान मेरे जन-जीवन, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक गतिविधियों पर पूरी तरह से बंगाल का ही दबदबा बना रहा था । मैं उत्पादक होकर कर भी निरंतर उपेक्षा और आर्थिक शोषण का शिकार ही बना रहा । जिस कारण सामाजिक, शैक्षणिक और राजनीति चेतना की दृष्टि से मैं अन्य प्रांतों की अपेक्षा पिछड़ाता ही चला गया । सन् 1912 में मैं बंगाल प्रांत से अलग हो हुआ । मेरा तत्कालीन भौगोलिक स्वरूप वर्तमान उड़ीसा और झारखंड युक्त एक विशाल राज्य का था । तब मेरी भौगोलिक सीमाएं उत्तर में हिमालय की पाद-भूमि से लेकर दक्षिण में लहराते बंगाल की खाड़ी तट तक फैली हुई थी । पर बाद में 1935 में तत्कालीन भारत सरकार के अधिनियम, 1935 के तहत भाषा के आधार पर उड़ीसा को मुझसे अलग कर मेरे आकार को छोटा कर दिया गया । पर मैंने विभाजन के उस दर्द को उत्कल-पुत्रों के निरंतर विकास की उम्मीद पर चुपचाप सह गया ।
सन् 1947 में देश की आजादी के बाद भी एक राज्य के तौर पर मेरी भौगौलिक सीमाएं पूर्वरत ही बनी रहीं । इसके बाद 1956 में पुनः भाषाई आधार पर मेरे पुरुलिया जिले के कुछ अंश को पश्चिम बंगाल में जोड़ दिया गया । इस प्रकार मैं निरंतर राजनीतिक शोषण का शिकार होते रहा । मेरी यह स्थिति सन् 2000 तक वैसी ही बनी रही । फिर शासन व्यवस्था, भाषा, संस्कृति और आर्थिक उन्नति के नाम पर एक बार फिर विभाजन की क्रूर छुरी मेरे सीने पर चली और नवंबर 2000 में तत्कालीन दक्षिणी बिहार को ‘झारखंड’ के नाम पर एक अलग राज्य बना कर उसे मुझसे अलग कर दिया गया । इस प्रकार मेरा प्राचीन स्वरूप (मगध) साम्राज्य की जो सीमाएं कभी पूर्व में बर्मा से लेकर पश्चिम में सिंधु नदी तक और उत्तर में हिमालय की पादभूमि से लेकर दक्षिण में विंध्य पर्वत तक सुविस्तृत फैली हुई थीं, अब वह सिमट कर थोड़ी-सी गांगेय प्रदेश तक ही रह गई है । पर इसके लिए मेरे मन में कोई संताप नहीं है । मैंने प्राचीन काल से ही ‘सर्व सुखाए’ की नीति पर ही विश्वास किया है और उसके लिए मुझसे जो कुछ भी बन पाए, मैं सदैव तत्पर हूँ ।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के क्षेत्र में भी मेरा विशेष योगदान रहा है । 80 वर्ष की ढलती आयु में वीर कुँवर सिंह (आरा के जगदीशपुर) ने 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ जैसा संग्राम का नेतृत्व किया था, उसे देखकर अंग्रेज अधिकारीगण भी दांतों तले अंगुली दबा लिया करते थे । मेरे ही चंपारण के आंदोलन और मोतीहारी की जेल यात्रा ने ही भारत के लिए एक अजनबी मोहनदास करमचंद गाँधी जी को ‘भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्र पुरुष’ बना दिया । बाद में वे ‘बापू’, ‘महात्मा’ और फिर ‘राष्ट्रपिता’ जैसे गरिमामय सम्मानीय पद के हकदार बने ।
लेकिन निरंतर आक्रमण, शोषण, अत्याचार, विभाजन आदि की विषम परिस्थितियों में भी मेरी कुछ ऐसी विशेष संतान हुए, जिन्होंने अपने कार्यों से न सिर्फ मुझे, बल्कि भारत देश के गौरव को समृद्ध किए हैं । इस सिलसिले में सारन जिला के जिरादेई के डॉ. राजेंद्र प्रसाद का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है । मेरे लिए बहुत ही गर्व की बात है कि मेरा वह यशस्वी पुत्र स्वतंत्र भारत का प्रथम राष्ट्रपति बना । इसी तरह शाहाबाद (आरा) जिले के मुरार गाँव के डॉo सच्चिदानंद सिन्हा, जो स्वतंत्र भारत के संविधान सभा का प्रथम अध्यक्ष बना था । मेरी अन्य उल्लेखनीय संतानों में ‘बिहार केसरी’ के नाम से प्रसिद्ध श्रीकृष्ण सिंह, बाबू अनुग्रह नारायण सिंह आदि का भी नाम सादर सहित लिया जाता है ।
शस्यश्यामला मेरी प्रकृति ने जहाँ देश को धन्यधान से परिपूर्ण किया है, वहीं मेरी यह पावन धरती ने हर कालखंड में हर क्षेत्र में स्वर्णिम इतिहास रचने वाले विशिष्ठ व्यक्तित्व को भी जन्म दिया है, जिन पर न सिर्फ मैं ही नहीं, बल्कि सारे देशवासी ही गर्व महसूस करते हैं । प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों में वीर कुँवर सिंह, अनुग्रह नारायण सिंह, बसावन सिंह, राजेन्द्र प्रसाद, राजकुमार शुक्ल, रमेश चन्द्र झा, स्वामी सहजानन्द सरस्वती, श्रीकृष्ण सिन्हा, ठाकुर युगल किशोर सिंह, सत्येन्द्र नारायण सिन्हा, राम दुलारी सिन्हा, देवीपद चौधरी, राय गोविंद सिंह, रमानंद सिंह, राजेन्द्र सिंह, जगपति कुमार, सतीश प्रसाद झा, उमाकांत सिंह आदि का नाम गर्व से लिया जाता है ।
आजादी के बाद अन्याय के विरूद्ध मेरे जयप्रकाश नारायण जैसे सपूत के छात्र आंदोलन को भला कौन भुला सकता है, जिसका प्रभाव न सिर्फ मुझ तक, बल्कि पूरे देश में फैला था, सम्पूर्ण देश की राजनीति और सामाजिक स्थिति में काफी बदलाव हुए । समाज के उपेक्षित वर्ग भी राजनीति और प्रशासन के कर्णधार बने । यह अलग बात है कि वे ज्यादातर क्षेत्रीय भाव में बंधे हुए मेरी विशेष उन्नति की सम्मिलित भाव से विमुख ही रहे । फलतः मेरे प्रांतों और मेरी संतानों की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्थिति निरंतर पिछड़ती ही गई । लेकिन दूरगामी विकासशील सोच रखने वाले राजनेताओं और उच्च अधिकारियों के प्रयास से वर्तमान में मेरे विकास की पहिया द्रुतगति से चलायमान है ।
मेरे यशस्वी पुत्रों ने विविध कार्य-क्षेत्रों में अपने विशेष योगदान के लिए देश के नागरिक और गैर नागरिक सर्वोच्च सम्मानों से विभूषित होकर मेरी गरिमा को बढ़ाए हैं । अबतक मेरे चार महान पुत्रों ने यथा, - विधान चंद्र राय (1961), डॉo राजेन्द्र प्रसाद (1962), जय प्रकाश नारायण (1999) और शहनाई वादक बिस्मिल्ला खां (2001) ‘भारत रत्न’ को प्राप्त कर मुझे और मेरे निवासियों सम्मानित कर चुके हैं । मेरे ही भागलपुर में जन्मे ‘दादामुनि’ के नाम से विख्यात अभिनेता अशोक कुमार ने फिल्मों में अपनी विशेष उपलब्धियों के लिए ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ प्राप्त कर मुझे सम्मानित किया है । ‘साहित्य अकादमी पुरुस्कार’ तथा ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ दोनों से ही सम्मानित रामधारी सिंह ‘दिनकर’, तथा ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित अरुण कमल, ज्ञानेंद्रपति, अनामिका आदि ने समय-समय पर मुझे विशेष साहित्यिक गौरव प्रदान किए हैं । मेरे वीरपुत्र लांस नायक अल्बर्ट एक्का (तत्कालीन बिहार) ने मातृभूमि की रक्षा करते हुए अद्भुत सैन्य पराक्रम को प्रदर्शित करते हुए मरणोपरांत ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित हुआ, जबकि ‘अशोक चक्र’ से सम्मानित होने वाला देश का प्रथम सैनिक मेरा ही वीरपुत्र श्याम बहादुर सिंह (मरणोपरांत, छपरा) रहा था, फिर वीरपुत्र रणधीर वर्मा (धनबाद, तत्कालीन बिहार) को भी ‘अशोक चक्र’ से सम्मानित किया गया था । उनके ‘परमवीर चक्र’ और ‘अशोक चक्र’ से मेरा सीना आज भी दमकते ही रहता है ।
साहित्य-शिक्षा के क्षेत्र में सरस्वती वरद मेरी संतानों में नाट्यकार व गीतकार ज्यातिरीश्वर ठाकुर, ‘मैथिल कोकिल’ विद्यापति, ‘बिहार के बीरबल’ गोऊ झा से लेकर, महेश नारायण ठाकुर, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, रामवृक्ष बेनीपुरी, फणीश्वरनाथ ‘रेनू’, गोपाल सिंह ‘नेपाली’, ‘यात्री’ उपनाम से प्रसिद्ध बाबा नागार्जुन, विश्व प्रसिद्ध तिलिस्मी उपन्यास ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ के अमर लेखक देवकीनंदन खत्री, राज कमल चौधरी, वाचस्पति मिश्र, राजा राधिका रमन प्रसाद सिंह, जानकी वल्लभ शास्त्री, आरसी प्रसाद सिंह, नलिन विलोचन शर्मा, नन्द किशोर ‘नवल’, कवि नचिकेता, रमेश चंद्र झा, गीताश्री, रॉबिन शॉ पुष्प, अरविन्द श्रीवास्तव, अरुण कमल, अरुण प्रकाश, केदारनाथ मिश्र, आलोक धन्वा, अनामिका, डॉo वशिष्ठ नारायण सिंह, आनंद कुमार आदि का नाम विशेष रूप में उल्लेखनीय है । जिन्होंने अपनी साहित्य और शिक्षा साधना से क्षेत्रीयता के बंधन से परे देश और विश्व मानव की सेवा करते हुए मेरे सम्मान में अभिवृद्धि की है ।
विज्ञान के क्षेत्र में भी मेरे सपूतों ने कदम से कदम मिला कर देश का नाम रौशन किया है । ‘विज्ञान लोकप्रियकरण’ के लिए प्रसिद्ध गोविंद बी. लाल, बिनदेश्वरी पाठक (सुलभ शौचालय), डॉo वशिष्ठ नारायण सिंह, डॉo अमिताभ (इसरो), डॉo अतुल कुमार वर्मा (दवा), डॉo मानस बिहारी वर्मा (वैमानिक विज्ञान) आदि बिहारी-पुत्रों के योगदान देश सहित वैश्वीय स्तर पर सदैव स्मरणीय ही रहेगा ।
कला और संस्कृति के क्षेत्र में भी मेरी संतानों का योगदान भी कोई कम नहीं है । इनमें राधा मोहन प्रसाद, उपेन्द्र महारथी, श्याम शर्मा, ईश्वरी प्रसाद वर्मा, सीता देवी, पंo रामचतुर मालिक, भिखारी ठाकुर, श्याम मालिक, कुंज बिहारी मालिक, रामचरित्र मालिक, बद्री मिश्र, शिवदीन पाठक, विंध्यवासिनी देवी, बिस्मिल्ला खान, चित्रगुप्त, शमसूल हुदा बिहारी, शारदा सिन्हा आदि ने अपने-अपने क्षेत्र चिरस्मरणीय कीर्तिमान स्थापित किए हैं ।
मेरी संतान खेत-खलिहान से लेकर मैदानों में ही खेलकूद कर बड़े होते और सामाजिकता को वरन करते हैं । खेलकूद के मैदान में भी मेरी संतानों ने कई अविस्मरणीय कीर्तिमान स्थापित किए हैं । कीर्ति आजाद (क्रिकेट), महेंद्र सिंह धोनी, (क्रिकेट, वर्तमान झारखंड), सबा करीम (क्रिकेट), जफर इकबाल (हॉकी), शिवनाथ सिंह (धावक), श्रेयसी सिंह, (निशानेबाजी) से लेकर कैरम प्रजेता रश्मी कुमारी का नाम समादर के साथ लिया जा सकता है ।
फिल्म जगत के राजतपट से जुड़े मेरे प्रमुख बिहारी व्यक्तित्वों में चित्रगुप्त, भगवान सिन्हा, अशोक कुमार, गणेश प्रसाद सिंह, शैलेन्द्र कुमार, शत्रुघन सिन्हा, अभी भट्टाचार्य, तपन सिन्हा, साधना सिंह, प्यारे मोहन सहाय, शेखर सुमन, मनोज बाजपेयी, आलोकनाथ, अखिलेन्द्र मिश्र, मनोज तिवारी ‘मृदुल’, प्रकाश झा, उदित नारायण, पंकज त्रिपाठी, आर. माधवन, संजय मिश्रा, राम गोपाल बजाज, दिलेर मेहंदी, स्वo सुशांत सिन्हा आदि का नाम सुनहरे परदे पर हमेशा जीवंत ही रहेगा ।
मेरी संतानों में कभी अपने ही प्रांत या देश की परिपाटी न रही है, बल्कि वे देश-देशान्तर और विदेशों में भी बस कर उसकी उन्नति जनक कार्य में तल्लीन रहे हैं । फिर वहाँ की भाषा, संस्कृति, जीवन-मीमांसा को अपना कर उसे ही अपनी मातृभूमि मान कर उसकी सेवा में निरंतर अपने आप को लगाए रखे हैं । कालांतर में वे वहाँ की राजनीति और शासन-प्रबंध में भी युक्त होकर उस राष्ट्र के प्रति अपनी राष्ट्र-भक्ति को प्रदर्शित भी किए हैं और कर भी रहे हैं । मेरे मूल के विदेशों शासकों में अनिरुद्ध (अहीर यदुवंशी जाति), परमानन्द झा, नेपाल के प्रथम उपराष्ट्रपति एवं नेपाल के उच्चतम् न्यायालय के भूतपूर्व न्यायधीश (दरभंगा, बिहार) नवीन चन्द्र राम गुलाम, मौरिसस के प्रधान मंत्री, (आरा, बिहार) शिवसागर रामगुलाम, मारिशस के प्रथम मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री एवं छठे गवर्नर-जनरल (भारतीय बिहारी प्रवासी) गिरिजा प्रसाद कोइराला, नेपाल के प्रधान मंत्री, (सहरसा, बिहार) आदि का नाम भी समादृत है ।
अतः अब आप ‘बिहारी’ कहलाने पर अपमान नहीं, वरन ‘गर्व’ महसूस कीजिए ।
मेरी बिहारी संतान अपने ज्ञान, श्रम, बुद्धि, बल आदि के द्वारा कभी विश्व-मार्गदर्शन करने की अतुलनीय क्षमता रखते हुए देश के स्वर्णिम युग का निर्माता रही हैं, पर आज वह जातिवादी, क्षेत्रवादी, प्रांतवादी राजनीति के दलदल में फंस कर इतनी पिछड़ चुकी है कि कभी दुनिया की श्रेष्ठ प्रतिभा और श्रमशक्ति की इकाई होते हुए भी मेरी संतान पिछड़ेपन के गंभीर अंधकार में कहीं भटक-सी गई हैं । आवश्यकता है उन्हें आपसी रंजिश को त्याग कर मेरे और देश हीत में कार्य करने की, जिससे मेरी पावन भूमि अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त कर सके ।
- श्रीराम पुकार शर्मा,
24, बन बिहारी बॉस रोड,
हावड़ा – 711101.
(पश्चिम बंगाल)
संपर्क सूत्र – 9062366788.
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com
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