जीरो बजट प्राकृतिक खेती

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जीरो बजट वाली खेती की सीख को सैकड़ों सीमांत किसानों तक ले जाना चाहते हैं ताकि वे भी इस अमूल्य श्रृंखला का हिस्सा बनकर लाभान्वित हो सके. इससे न केवल उन

मल्टीनेशनल कंपनी की नौकरी छोड़, कर रहे प्राकृतिक खेती


दिल्ली-एनसीआर, गुरुग्राम के प्रदूषित हवा से तंग आकर कुछ युवा अपने गांव वापस लौटकर न केवल प्राकृतिक खेती को अपना आजीविका का साधन बनाया बल्कि गांव के किसानों को भी इसी ओर प्रेरित कर रहे हैं. इनमें भोपाल के इंजीनियर शशिभूषण, पीएचडी फार्मा अनुज, सुधांशु और सुष्मिता और आईआईटी कानपुर, आईआईएम लखनऊ तथा इंफोसिस से पढ़ाई करने के बाद विदेश में नौकरी करने वाले संदीप सक्सेना के नाम उल्लेखनीय है. संदीप के प्रोफाइल में कई पुरस्कारों का उल्लेख है, इनमें  अटल बिहारी वाजपेई जी द्वारा सम्मानित होना उल्लेखनीय है. इंजीनियर शशि भूषण गुरुग्राम के अलावा बेंगलुरु, हैदराबाद जैसे शहरों में बड़ी कंपनियों के साथ काम कर चुके हैं, लेकिन स्वास्थ्य के प्रति सजग होने के कारण वे बहुत जल्दी नौकरी छोड़कर गांव वापस आकर पुश्तैनी 25 एकड़ जमीन पर जैविक खेती करने लगे.

शशि ने बहुत दिलचस्प बातें बताई कि उनकी उपज के ग्राहक उसी के आस-पास के ग्रामीण हैं. उन्होंने कहा कि आस-पास गांव के सभी किसान अपनी जमीन पर गेहूं बोते हैं. परंतु वे उनसे गेहूं खरीद के ले जाते हैं कारण यह है कि चूंकि वे अपने खेतों में जहर उगाते हैं, इसलिए शुद्ध खाने के लिए शशि से अनाज खरीदते हैं और अपना रसायन युक्त उपज बाजार में बेच देते हैं. सुधांशु और सुष्मिता की जोड़ी थोड़ी अलग है, वे अपने तथा अन्य लोगों के स्वास्थ्य के लिए जैविक खेती कर रहे हैं. दरअसल सुधांशु और सुष्मिता उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद गुरुग्राम में करोड़ों की पैकेज पर नौकरी करने गए थे. करीब एक दशक तक नौकरी के बाद अपने गिरते स्वास्थ्य को देखते हुए दोनों ने यह निर्णय लिया कि वापस अपने शहर लौटकर जैविक खेती करना इससे बेहतर है. मल्टीनेशनल की नौकरी छोड़ दोनों ने दो साल के भीतर जैविक खेती से न केवल अपने लिए शुद्ध आहार का प्रबंध किया, बल्कि गांव के अन्य छोटे किसानों को जोड़कर उन्हें भी जैविक खेती करने के लिए प्रेरित किया.

आज सुधांशु का जैविक जीवन ब्रांड इतना प्रसिद्ध हो गया कि उसके पास ग्राहकों की लम्बी फेहरिस्त है, जिन्हें वह ऑर्गेनिक स्टोर, अमेज़ॅन और व्हाट्सएप के जरिए जैविक खाद्य सामग्री उपलब्ध करवा रहे हैं. सुधांशु बताते हैं कि करोड़ों का पैकेज न सही, लेकिन खुद को और दूसरों को स्वस्थ रखने के लिए वे जो प्रयास कर रहे हैं, उससे उन्हें आत्मसंतोष मिल रहा हैं. वहीं सुष्मिता एक दशक से अधिक समय तक सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम कर रही थी. उन्हें जमीनी स्तर से लेकर नीति निर्माण तक का व्यापक अनुभव हो गया था. स्वास्थ्य के बारे में उनकी समझ व्यापक है. वह कहती हैं कि दूषित हवा से 70 फीसदी लोग फेफड़ों के कैंसर से जूझ रहे हैं. वह एक प्रमाणित पोषण विशेषज्ञ, फिटनेस ट्रेनर और क्रॉसफिटर भी हैं जबकि सुधांशु ने यूके में लीड्स यूनिवर्सिटी बिजनेस स्कूल से स्नातक किया और भारत की प्रमुख बीमा कंपनी के साथ काम किया. सुधांशु के पास स्वास्थ्य बीमा, शिक्षा और चिकित्सा प्रौद्योगिकी क्षेत्र में एक दशक से अधिक का अनुभव है, यानी सुधांशु और सुष्मिता दोनों के पास स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं की जानकारी पहले से थी.

जीरो बजट प्राकृतिक खेती
मध्यप्रदेश में पले-बढ़े सुधांशु और सुष्मिता को जब बड़े शहरों का जीवन उबाऊ लगने लगा, तो दोनों ने कुछ नया करने का सोचा. नए में खेती का आईडिया सबसे पहले उनके जेहन में आया. सुष्मिता कहती हैं कि बड़े शहरों में कोई भावनात्मक संबंध नहीं, कोई ठहराव नहीं, सिर्फ लोग पैसे के पीछे दिन-रात भागते हैं, इससे उनके स्वास्थ्य पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ रहा है. उसने यह भी बताया कि असल में नौकरी मिलते ही लोग पहले कर्ज लेकर गाड़ी, बंगला खरीद लेते हैं और पूरी जिंदगी ईएमआई चुकाने के लिए भागते रहते हैं. हमलोगों के साथ अच्छी बात यह थी कि हमने ऐशो-आराम के लिए बैंक से कोई कर्ज नहीं लिया था. हमें लग्जरी जीवन नहीं जीना था, हमें सुकून की जिंदगी चाहिए थी. ईएमआई का कोई पंगा नहीं था, इसलिए आसानी से नौकरी छोड़ने का निर्णय ले पाए.

अब दोनों ने मिलकर विदिशा मुख्यालय से सिर्फ 5 किलोमीटर दूर धनौरा हवेली गांव में अपनी पुश्तैनी 14 एकड़ जमीन पर  2018 से जैविक खेती का सफर शुरू किया. शुरुआत दोनों ने जैविक औषधी से की थी. परंतु धीरे-धीरे खेत को एकीकृत जैविक खेत में बदल दिया. वर्तमान में उनके खेत में कई प्रकार की सब्जियां, हल्दी, अरहर, हरा चना, ज्वार, मक्का, मूंगफली, तिल, काले चने, भूरे चने, प्राचीन खापली और बंसी गेहूं, जौ, सरसों, धनिया, मवेशियों के चारे के लिए बरसीम घास, कई पौधे उगाए जाते हैं. अमरूद, केला और नींबू का उत्पादन हो रहा है. खेत में ही एक प्रसंस्करण केंद्र है जहां उत्पादित सामग्रियों को प्रसंस्करित कर पैक किया जाता है. उसके सारे अवशेष गौशाला में गायों के लिए चला जाता है. जिससे जीरो वेस्ट फार्म की कल्पना साकार होने में मदद मिलती है. सुधांशु के गौशाला में इस समय बिना दूध देने वाली 15 गायें हैं,  जिन गायों को लोगों ने सड़कों पर छोड़ दिया था, उन्होंने उन गायों को गोद लिया, ताकि उसे जैविक खेती के आवश्यक गौमूत्र और गोबर मिल सके.

सुधांशु ने अपने खेत में ही एक बड़ा तालाब बनाया है, जहां बरसात का पानी इकट्ठा होता है, जो साल भर सिंचाई के लिए काम आता है. वर्तमान में उसके पास ग्राहकों की एक लम्बी फेहरिस्त है, जिन्हें वह जैविक उत्पाद बेचते हैं. उनकी कंपनी जैविक जीवन का उत्पाद ग्राहक अमेजन से मंगवाते हैं. अब तो हाल यह है कि उनके ग्राहकों की संख्या को देखते हुए 14 एकड़ कृषि भूमि भी उसके लिए कम पड़ने लगी है. सुधांशु बताते हैं कि मेरा खेती करने का अनुभव रोमांचक और चुनौतीपूर्ण रहा है. परंतु अब दुनिया को स्वस्थ बनाने का यह तरीका मुझे अच्छा लगने लगा है. वे गांव में छोटे-छोटे किसानों को अपने साथ जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं और उन्हें जैविक खेती करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं. उन्होंने कहा कि शुरू में किसानों के मन में यह डर था कि जैविक से उत्पादन बहुत कम हो जाएगा. लेकिन अब यह भ्रम टूट चुका है. 

जैविक खाद के सिलसिले में उन्होंने कहा कि सड़कों पर बहुत सारी गाय विचरण करती रहती है. हम उन्हें आसरा देकर उनके गोबर और गौमूत्र को खाद के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं. इस तरह जीरो बजट वाली खेती को संभव कर सकते है. सब्जियों की खेती के संबंध में उन्होंने कहा कि केवल दो से ढाई महीने में सब्जियां तैयार हो जाती हैं. किसान खेतों को टुकड़े-टुकड़े में बांटकर अलग-अलग मौसम की सब्जियां उगाकर अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं. हम उन्हें बाजार उपलब्ध कराने में मदद कर रहे हैं ताकि वे जैविक खेती करने के लिए उत्साहित हों. 

अब सुधांशु जीरो बजट वाली खेती की सीख को सैकड़ों सीमांत किसानों तक ले जाना चाहते हैं ताकि वे भी इस अमूल्य श्रृंखला का हिस्सा बनकर लाभान्वित हो सके. इससे न केवल उन्हें अपनी उपज के लिए बाजार प्राप्त करने में मदद मिलेगी बल्कि उन्हें अपने खेतों को टिकाऊ बनाने और मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने में भी मदद मिलेगी. (चरखा फीचर)




- रूबी सरकार,
भोपाल, मप्र

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