मिट्टी पहचान लेती है

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मिट्टी पहचान लेती है हर बीज के गर्भ को और सेती है उसे अंडे की तरह देती है एक पहचान उसे कि वह है – लौकी,कुम्हड़ा,....या करेला का कोई कुलदीपक।

मिट्टी पहचानती है

 

मिट्टी पहचान लेती है
हर बीज के गर्भ को
और सेती है उसे अंडे की तरह
देती है एक पहचान उसे कि वह है –
लौकी,कुम्हड़ा,....या करेला का कोई कुलदीपक।

मिट्टी को आता है
पहचान देने और मिटाने का हुनर
मेरा मन पूछ रहा है मिट्टी से-
क्या हँसी,ख़ुशी,और सुकून के दो पल
उगा सकोगी?
मिट्टी ने मुझसे बीज माँगा
मैंने अपना मन दिखा दिया
वह हँस पड़ी बच्चे की इस नादानी पर। 

पहचान के संकट के इस बुरे दौर में
मिट्टी चुप है और
बीज गूँगे हो गए हैं
सिर्फ बाज़ार और सत्ता बोलती है
वही जारी करते हैं पहचान पत्र
हम सिर्फ मुखौटा लिए घूम रहे हैं
जिन्दा होने का प्रमाण पत्र लिए
अपने ही काँधों पर खुद की लाश ढोते हुए।

..........

 

मोबाइल का झूठ 

मेरे मोबाइल में सुरक्षित हैं नम्बर-
दोस्तों,रिश्तेदारों के,
हॉकर के, अस्पताल, काम वाली बाई,
दूध वाला,डिश वाला,
ऑफिस, स्कूल.....और वकील के। 

मिट्टी पहचानती है
इसमें नहीं मिला नम्बर मुझे-
हरहराती नदी का, मचलते जंगल का,
गर्वीले पहाड़ों का, सुरमई भोर का,
ताकती साँझ का,
चहकती चिड़िया का....और
स्फूर्ति भरी बेफिक्र भोर का।

गुड मॉर्निंग की जगह यदि आपके पास
इनके नम्बर हो तो भेजिएगा!
मुझे सहेजना है-
प्रकृति का हरापन,
नदी की पवित्रता और
चहकती ज़िंदगी के बीच
अपने छोटे से घर में एक बागीचा। 

मोबाइल के चारों ओर
बहानों एवं झूठ की दुनिया आबाद है
मोबाइल एक जेल है
जिसकी कैद में घुट रही है-
मेरी प्रकृति,मेरी जिंदगी और
मानवीयता के सभी सरोकार.. ।

..........   

 

पूछूँगा बन्दूकों-तोपों से

भोर, तुम मुझे कल जल्दी उठाना
मुझे खेतों में जाना है
उन बच्चों की आत्माएँ बोने
जो यूक्रेन के बीज हैं;
उन्हीं बच्चों की स्मृति में
मैं क्षमा माँगूगा अपनी
अनजानी गलतियों की ईश्वर से कि
मैं उन्हें नहीं बचा पाया। 

सुनो कल मेरा व्रत भी है
उन्हीं भूखे बच्चों का साथ देने
उनकी भूख से अपनी भूख मिलाकर
पूछूँगा बन्दूकों-तोपों से
उनका क्या कसूर था?
सूना है भूख में
शक्ति होती है पूछने की।   

हाँ, परसों वहाँ जाऊँगा ज़रूर
कुछ मोमबत्ती और फूल लेकर
उनकी आत्मा की शांति के लिए
उनकी माता की सांत्वना में साथ खड़े होने
उस स्कूल की घंटी बजाने
गोया कहीं, कोई बच्चा बचा हो तो
लौट आए अपने बस्तों संग  
खुशियाँ समेटे,चहक बगराने। 

मुझे तपस्या में रहने दे ए वक्त
मैं किसान हो जाना चाहता हूँ
उनकी नयी फ़सल उगने तक
उन्हें पालने-पोषने के लिए
मिट्टी,धूप और हवा के खिलाफ
याद रखना
किसान और शिक्षक की पुकार मिलकर 
एक दिन ज़रूर हरियाएँगे
बच्चों की ख़ुशी
संभावनाएँ सदा ज़िन्दा रहती हैं।

.........

 

जिंदगी का एक लाल रंग

पलाश लड़ रहा है
सेठ सूर्य से
ब्याज की किचकिच मची है ,
कुछ बच्चे इसका फूल बिन रहे हैं
अपनी जिंदगी में रंग भरने,
एक नया जोड़ा
इसके साथ सेल्फी लेकर लौट गया है,
कुछ यात्री इसकी छाँह में बातें कर रहे हैं-
नयी सड़क यहीं से होकर गुजरेगी
पलाश क्या-क्या सुने। 

इसी तरह अपनी ज़िंदगी में
रोज पलाश होता है मंगलू
ब्याज चुकाने नौकरी पर है,
हफ्ता देने, मुफ्त की चौकीदारी करता है
और नंगे ज़ेब घर लौटकर पूछता है
कुछ खाने को है क्या?
सूर्य इन्हें रोज चिढ़ाकर चुप हो जाता है
रूस की तरह। 

पलाश सा यूक्रेन अपनी
लूट का तमाशा बना बैठा है,
सपनों के रेगिस्तान में रहते हैं
मंगलू जैसे कई लोग
गुमशुदा मोहल्ले में
जिसे तलाश भी नहीं पाते
हँसी-ख़ुशी के शब्द कभी। 

इनके राशन कार्ड जैसी सभी सुविधाएँ
गिरवी हैं ज़रूरतों के नाम पर कहीं
लौट आए हैं मेरे सांत्वना के शब्द भी वहाँ से;
यहीं बिकते हैं बच्चे और जवानी
पलाश के फूल की भाव पर
चाकरी के लिए बड़ी-बड़ी गाड़ियों में
पलाश की तरह दहकता सुर्ख
जिंदगी का एक लाल रंग यह भी है ।
..........

 

घर और बाहर 

कुछ बोल रही हैं
पानी भरती औरतों का झुण्ड 
चुगलखोर वक्त सुन रहा है
क्रूर मौसम की जासूसी में;
दूर पीपल की छाँव तले
दो सांड और कुछ मवेशी
पगुराने की भाषा में बतिया रहे थे
किसी खाप पंचायत की तरह   
फैसला सुनाने। 

औरतें मुँह तोपे रेंग रही हैं
धूप बेशर्म उन्हें सेंक रहा है
औरतें पक रही हैं
कमबख्त प्यास रोज ज़िन्दा हो जाती है
औरतें रास्ते में ढूँढ रही हैं
बचपन की अल्हड़ता और
देख रही हैं वृद्धावस्था की लाचारियाँ।

रमेश कुमार सोनी
रमेश कुमार सोनी
एक पसरा हुआ सन्नाटा अचानक
अंगड़ाई लेने लगता है और
सवालों की झड़ी लग जाती है
आपने हमारे लिए कुछ किया क्या?
चुप्पियों में पूछ रही हैं मटकियाँ
जो उनके कमर और सिर पर हैं
किसी धरती की बोझ की तरह। 

अब ये टोली समझ चुकी है कि
इनके सपनों को पानी इन्हें ही देना है
पहाड़ चुप हो गए
इनके जज्बे की गर्मी से
टूट गए हैं ग्लेशियर   
ये नये ज़माने की औरतें हैं
जो कहती हैं
पिंजड़ा तुम्हें मुबारक।
 
इसी तरह परिंदों का एक झुण्ड
रोज भोर में ही निकल पड़ता है
लैपटॉप,टिफ़िन और पानी की बोतल लिए
अपने अंतरिक्ष की सैर में
अपनी दहाड़ सुनाते
आकाशगंगाएँ जाग रही हैं
सुख दुःख की बातों के साथ 
घर को संवारने का नमक
अब भी ज़िन्दा है इनमें।

..........

 

एक पेड़ का शहीद होना 

मेरे पड़ोस में
एक पेड़ और शहीद हुआ
ढह गए अनगिनत घोंसले
परिंदों के फूस के आशियाने
धर्मशाला गिरा धूप का
हवाओं की फैक्ट्री बंद हुई
मिट्टी का मितान मरा और
बंद हुई साँसों की रसोई। 

कुल्हाड़ी चलती है अपने साथ लेकर
शहरों की फ़ौज
दौलत की धौंस और 
अनुमति का दंभ लेकर;
कुल्हाड़ी का ब्रम्हराक्षस निगलना चाहता है-
मेरा खेत,बाड़ी, घर,गाँव
परिंदों की दुनिया
यात्रियों की छाँह
बच्चों का खेल मैदान...और 
बरदी का ठिया। 

बाज़ार और कुल्हाड़ी मितान हैं
ये एक अघोषित युद्ध है
जो किसी को दिखता नहीं
गाँव बोल नहीं पाते
बाज़ार की तूती बोलती है
उसे ब्रांड परोसने आता है
बाज़ार के काँधे पर कुल्हाड़ी ऐश करता है।

..........



- रमेश कुमार सोनी 
कबीर नगर -रायपुर ,छत्तीसगढ़ 
मो.94242 202209 

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